सूर विनय पत्रिका
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग कान्हरौ
(199) थोड़े से जीवन में ही शरीर भाररूप हो गया। कभी संतों का संग नहीं किया और न आपका नाम ही लिया। मोह एवं माया के वश होकर अत्यन्त उन्मत्त हो गया, किसी बात का कुछ विचार नहीं किया। न तो स्वयं (संसार से पार होने का) उपाय करता हूँ, न और किसी से पूछता ही हूँ, खट्टे-कडुए (पाप-अन्याय) की कुछ गणना नहीं करता। इन्द्रियों के स्वाद में रात-दिन विवश होकर स्वयं ही अपनेपन (मनुष्यत्व) को हार गया। गहरे पानी में मैं चारों ओर तैरता रहा, अपने पैर में स्वयं कुल्हाड़ी मार ली (स्वयं अपनी हानि कर ली)। तीनों गुणों (सत्त्व, रज, तम) की गठरी फैलाकर बाँध ली और बीच में कहीं पड़ाव नहीं है। सूरदास ने (अपनी दशा) विचार करके देख ली, अब तो जब सिर पड़ी (मृत्यु का समय आया) है, तब आपकी शरण की पुकार की है (कि आप मुझे शरण में ले लें)। |
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