सूर विनय पत्रिका
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग धनाश्री
हे हरि! मैं महापतित और अभिमानी हूँ, परमार्थ से उदासीन और विषयभोगों में लगा रहता हूँ। भावपूर्ण भक्ति करना तनिक भी नहीं जानता। नाना कामनाएँ करता हुआ रात-दिन दु:खी रहता हूँ, (कामना के अनुसार भोग) मिलने पर भी तृष्णा कभी शान्त नहीं होती। मृत्यु सिर पर सवार है, आयु अंजलि में भरे पानी के समान बराबर घट रही है परंतु मैं नीच इसे देखता नहीं। प्रतिदिन भगवान से विमुख लोगों के साथ प्रेम-सम्बन्ध जोड़ता हूँ और साधु-पुरुषों से कभी परिचय तक नहीं किया। जो सभी दिन (सब समय) विषयसुखों का वर्णन करता है, उसके बिना मैं रात-दिन में किसी समय रह नहीं पाता (सदा मुझे बहिर्मुख, विषय-चर्चा करने वालों का साथ अच्छा लगता है)। माया, मोह और लोभ के कारण (प्रेम की) राजधानी श्रीवृन्दावन को नहीं जाना। सूरदास जी कहते हैं कि समस्त सुखों के दाता नव-जलधरवर्ण परम सुन्दर श्रीव्रजराजकुमार को मैं भूल ही गया। |
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