सूर विनय पत्रिका
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग केदारौ
(158) हे नाथ! अबकी बार मेरा उद्धार करो। हे कृपासिंधु मुरारि! मैं भवसागर में डूबा हुआ हूँ। (इस संसार-सागर में) मायारूपी अत्यन्त गहरा पानी भरा है, जिसमें लोभ की लहररूपी तरंगें उठती रहती हैं। कामदेवरूपी मगर पकड़कर अगाध जल में मुझे (खींचे) लिये जा रहा है। इन्द्रियाँ इसमें मछलियों के समान हैं, जो शरीर को काट (दुःख पहुँचा) रही हैं। सिर पर पाप की भारी गठरी है। मोहरूपी सिवार में उलझे जाने के कारण पैर भी इधर-उधर ठिकाने से नहीं रखने पाता। क्रोध, दम्भ, गर्व और तृष्णारूपी पवन अत्यन्त वेग से झंझा बनकर चल रहा है। पुत्र और स्त्री (की आसक्ति) भगवन्नामरूपी नौका की और देखने ही नहीं देती। हे करुणाकन्द! सुनो, मैं मध्य समुद्र में थक गया हूँ, बेहाल और विह्वल (अत्यन्त व्याकुल) हो रहा हूँ। हे श्यामसुन्दर! इस सूरदास को हाथ पकड़कर व्रजभूमिरूपी किनारे पर निकाल दीजिये। (व्रजभूमि में निवास दीजिये।) |
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