सूर विनय पत्रिका
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग देवगंधार
(137) अरी (बुद्धिरूपी) चक्रवाकी! (श्रीहरि के) चरणरूपी उस सरोवरपर चल, जहाँ प्रेम में वियोग नहीं होता। जहाँ कभी भी भ्रमरूपी रात्रि नहीं होती, वही सरोवर (तेरे लिये) सुखदायी है। जहाँ पर सनकादि तथा शंकर जी जैसे राजहंस तथा मुनिगणरूपी मछलियाँ रहती हैं और नखज्योतिरूपी सूर्य का प्रकाश रहता है। जो चरण-कमल सदा खिले ही रहते हैं, एक क्षण के लिये भी जहाँ चन्द्रमा का भय नहीं है, जिनमें श्रुतियों की गुंजार और सुगन्ध सदा रहती है। जिस सरोवर में बड़ा ही सुन्दर मुक्तिरूपी मोती है, वहाँ चलकर पुण्यरूपी अमृत-रस का पान करो (भगवान के चरणों में लगने से अपने-आप पुण्य होंगे और पुण्य से सुख प्राप्त होगा)। अरी कुबुद्धिरूपी पक्षिणी! उस सरोवर को छोड़कर यहाँ रहकर क्या करना है। (यहाँ तो कोई सुख है नहीं)। सूरदास जी कहते हैं- जहाँ श्रीहरि की लक्ष्मी के साथ नित्य मनोरम क्रीड़ा होती है, उस समुद्र की आशा में (उसे पाने की इच्छा से ही) अब विषय-भोग के सुख का गड्ढा अच्छा नहीं लगता।
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