सुवर्ण की उत्पत्ति और उसके दान की महिमा

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 84 में सुवर्ण की उत्पत्ति और उसके दान की महिमा का वर्णन हुआ है[1]-

सुवर्ण की उत्पत्ति का वर्णन

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! 'धर्मज्ञ। ऐसा करने से हम और हमारे सभी पितामह पवित्र हो जायेंगे; क्योंकि सुवर्ण सबसे अधिक पावन वस्तु है।' ‘जो सुवर्णदान करते हैं, वे अपने पहले और पीछे की दस-दस पीढ़ियों का उद्धार कर देते हैं।’ राजन! जब मेरे पितरों ने ऐसा कहा तो मेरी नींद खुल गयी। उस समय स्वप्न का स्मरण करके मुझे बड़ा विस्मय हुआ। प्रजानाथ! भरतश्रेष्ठ! तब मैंने सुवर्णदान करने का निश्चित विचार कर लिया। राजन! अब (सुवर्ण की उपत्ति और उसके माहात्मय के विषय में) एक प्राचीन इतिहास सुनो जो जमदग्नीनन्दन परशुराम जी से सम्बन्ध रखने वाला है। विभो! यह आख्यान धन तथा आयु की वृद्धि करने वाला है। पूर्वकाल की बात है, जमदग्नीकुमार परशुराम जी ने तीव्र रोष में भरकर इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रियों से शून्य कर दिया था। महाराज! इसके बाद सम्पूर्ण पृथ्वी को जीतकर वीर कमलनयन परशुराम जी ने कामनाओं को पूर्ण करने वाले अश्‍वमेध यज्ञ का अनुष्ठान किया।

यद्यपि अश्‍वमेध यज्ञ समस्त प्राणियों को पवित्र करने वाला तथा तेज और कांति को बढ़ाने बाला है। तथापि उसके फल से तेजस्वी परशुराम जी सवर्था पापमुक्त न हो सके। इससे उन्होंने अपनी लघुता का अनुभव किया। प्रचुर दक्षिणा से सम्पन्न उस श्रेष्ठ यज्ञ का अनुष्ठान पूर्ण करके महामना भृगुवंशी परशुराम जी ने मन में दया भाव लेकर शास्त्रज्ञ ऋषि और देवताओं से इस प्रकार पूछा- ‘महाभाग महात्माओं। उग्रकर्म में लगे हुए मनुष्यों के लिये जो परम पावन वस्तु हो वह मुझे बताइये।' उनके इस प्रकार पूछने पर उन वेद-शास्‍त्रों के ज्ञाता महर्षियों ने इस प्रकार कहा- ‘परशुराम। तुम वेदों की प्रमाणिकता पर दृष्टि रखते हुए ब्राह्मणों का सत्कार करो ओर ब्रह्मर्षियों के समुदाय से पुनः इस पावन वस्तु के लिये प्रश्‍न करो।' ‘और वे महाज्ञानी महर्षिगण जो कुछ बतावें, उसी का प्रसन्नतापूर्वक पालन करो।’

सुवर्ण दान की महिमा

तब महातेजस्वी भृगुनन्दन परशुराम जी ने वसिष्‍ठ, नारद, अगस्त्य और कश्‍यप जी के पास जाकर पूछा- विप्रवरों! मैं पवित्र होना चाहता हूँ। बताइये, कैसे किस कर्म के अनुष्ठान से अथवा किस दान से पवित्र हो सकता हूँ। ‘साधुशिरोमणे! तपोधनो! यदि आप लोग मुझ पर अनुग्रह करना चाहते हों तो बतायें, मुझे पवित्र करने वाला साधन क्या है?’ ऋषियों ने कहा- भृगुनन्दन! हमने सुना है कि पाप करने वाला मनुष्य यहाँ गाय, भूमि और धन का दान करके पवित्र हो जाता है। ब्रह्मर्षे! एक दूसरी वस्तु का दान भी सुनो। वह वस्तु सबसे बढ़कर पावन है। उसका आकार अत्यन्त अदभुत और दिव्य है तथा वह अग्नि से उत्पन्न हुई है। उस वस्तु का नाम है सुवर्ण। हमने सुना है कि पूर्वकाल में अग्नि ने सम्पूर्ण लोकों को भस्म करके अपने वीर्य से सुवर्ण को प्रकट किया था। उसी का दान करने से तुम्हें सिद्धि प्राप्त होगी। तदनन्तर कठोर व्रत का पालन करने वाले भगवान वसिष्ठ ने कहा- ‘परशुराम! अग्नि के समान प्रकाशित होने वाला सुवर्ण जिस प्रकार प्रकट हुआ है, वह सुनो। ‘सुवर्ण का दान तुम्हें उत्तम फल देगा क्योंकि वह दान के लिये सर्वोत्तम बताया जाता है। महाबाहो! सुवर्ण का जो स्वरूप है, जिससे उत्पन्न हुआ है और जिस प्रकार वह विशेष गुणकारी है, वह सब बता रहा हूं, मुझसे सुनो। ‘यह सुवर्ण अग्नि और सौम रूप है। इस बात को तुम निश्चित रूप से जान लो। बकरा, अग्नि, भेड़, वरुण तथा घोड़ा सूर्य का अंश है। ऐसी दृष्टि रखनी चाहिये। ‘भृगुनन्दन। हाथी और मृग नागों के अंश हैं। भैंसे असुरों के अंश हैं। मुर्गा और सूअर राक्षसों के अंश हैं। इडा- गौ, दुग्ध और सोम- ये सब भूमिरूप ही हैं। ऐसी स्मृति है। ‘सारे जगत का मन्थन करके जो तेज की राशि प्रकट हुई है, वही सुवर्ण है। अतः ब्रह्मर्षे। यह अज आदि सभी वस्तुओं से परम उत्तम रत्न है। ‘इसलिये देवता, गन्धर्व, नाग, राक्षस, मनुष्य और पिशाच- ये सब प्रयत्नपूर्वक सुवर्ण धारण करते हैं। ‘भृगुश्रेष्ठ। वे सोने के बने हुए मुकुट, बाजूबंद तथा अन्य नाना प्रकार के अलंकारों से सुशोभित होते हैं।

'अतः नरश्रेष्ठ! जगत में भूमि, रत्न तथा गौ आदि जितनी पवित्र वस्तुऐं है, सुवर्ण को उन सबसे पवित्र माना गया है; इस बात को भलिभाँति जान लो।' ‘विभो! पृथ्वी, गौ तथा और जो कुछ भी दान किया जाता है, उन सबसे बढ़कर सुवर्ण का दान है।' ‘देवपम! तेजस्वी! परशुराम! सुवर्ण अक्षय और पावन है, अतः तुम श्रेष्ठ ब्राह्मणों को यह उत्तम और पावन वस्तु ही दान करो। सब दक्षिणाओं में सुवर्ण का ही विधान है; अतः जो सुवर्ण दान करते हैं, वे सब कुछ दान करने वाले होते हैं। ‘जो सुवर्ण देते हैं, वे देवताओं का दान करते हैं; क्योंकि अग्नि सर्वदेवतामय है और सुवर्ण अग्नि का स्वरूप है। ‘पुरुषसिंह! अतः सुवर्ण का दान करने वाले पुरुषों ने सम्पूर्ण देवताओं का ही दान कर दिया- ऐसा माना जाता है। अतः विद्वान पुरुष! सुवर्ण से बढ़कर दूसरा कोई दान नहीं मानते हैं।[2]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 84 श्लोक 1-32
  2. महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 84 श्लोक 33-65

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मनुष्यों का वर्णन | दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित | दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन | पाँच प्रकार के दानों का वर्णन | तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना | ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना | नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन | शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना | शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना | वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार | प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण | वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा | ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन | बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन | स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन | उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन | मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन | राजधर्म का वर्णन | योद्धाओं के धर्म का वर्णन | रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा | संक्षेप से राजधर्म का वर्णन | अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा | दैव की 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माहात्म्य | भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन | भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना | भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना | भीष्म का प्राणत्याग | धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार | गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना

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