सुलभा का राजा जनक के शरीर में प्रवेश करना

महाभारत शान्ति पर्व के मोक्षधर्म पर्व के अंतर्गत 320 वें अध्याय में सुलभा का राजा जनक के शरीर में प्रवेश करने वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]-

राजा जनक से सुलभा का मिलना

युधिष्ठिर ने पूछा—कुरूकुल राजर्षिशिरोमणि! जहाँ बुद्धि का लय हो जाता है, उस मोक्ष तत्‍व को गृहस्‍था श्रम का त्‍याग बिना किये कौन पुरुष प्राप्‍त हुआ है, यह मुझे बताईये। पितामह! यह मनुष्‍य शरीर जिस प्रकार स्‍थूल शरीर का त्‍याग करता है और जिस प्रकार स्‍थूल शरीर का आत्‍मा सूक्ष्‍म शरीर का त्‍याग करता है अर्थात् स्‍थूल और सूक्ष्‍म—इन दोनों शरीर के अभिमान से जिस प्रकार रहित हो सकता है एवं उनके त्‍याग का जो स्‍वरूप है और जो मोक्ष का तत्‍व है, वह मझे बताइये। भीष्‍मजी ने कहा—भरतनन्‍दन! इस विषय में जानकार मनुष्‍य जनक और सुलभा के संवादरूप इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। प्राचीन काल में मिथिलापुरी के कोई एक राजा जनक हो गये हैं, जो धर्मध्‍वज नाम से प्रसिद्ध थे। उन्‍हें (ग्रहस्‍था श्रम में रहते हुए भी) संन्‍यास का जो सम्‍यग् ज्ञानरूप फल हे, वह प्राप्‍त हो गया था। उन्‍होंने वेद में, मोक्षशास्‍त्र में तथा अपने शास्‍त्र (दण्‍डनीति)- में भी बड़ा परिश्रम किया था। वे इन्द्रियों को एकाग्र करके इस वसुन्‍धरा का शासन करते थे। नरेश्‍वर! वेदों के ज्ञाता विद्वान् पुरुष उनकी उस साधुवृत्ति का समाचार सुनकर उन्‍हीं के समान सज्‍जन होने की इच्‍छा करते थे। वह धर्मप्रधान युग का समय था। उन दिनों सुलभा नामवाली एक संन्‍यासिनी योगधर्म के अनुष्‍ठान द्वारा सिद्धि प्राप्‍त करके अकेली ही इस पृथ्‍वी पर विचरण करती थी। इस सम्‍पूर्ण जगत् में घूमती हुई सुलभा ने यत्र-तत्र अनेक स्‍थानों में त्रिदण्‍डी संन्‍यासियों के मुख से मोक्षतत्‍व की जानकारी के विषय में मिथिलापति राजा जनक की प्रशंसा सुनी। उनके द्वारा कही जाने वाली अत्‍यन्‍त सूक्ष्‍म पर ब्रह्मा-विषयक वार्ता दूसरों के मुख से सुनकर सुलभा के मन में यह संदेह हुआ कि पता नहीं जनक के सम्‍बन्‍ध में जो बातें सुनी जाती हैं, वे सत्‍य हैं या नहीं। यह संशय उत्‍पन्‍न होने पर उसके हृदय में राजा जनक के दर्शन का संकल्‍प उदित हुआ। उसने योग शक्ति से अपना पहला शरीर छोड़कर दूसरा परम सुन्‍दर रूप धारण कर लिया। अब उसका प्रत्‍येक अंग अनिन्‍द्य सौन्‍दर्य से प्रकाशित होने लगा। सुन्‍दर भौंहों वाली वह कमलनयनी बाला बाणों के समान तीव्र गति से चलकर पल भर में विदेहदेश की राजधानी मिथिला में जा पहुँची। प्रचुर जनसमुदाय से भरी हुई उस रमणीय मिथिलानगरी में पहुँकर संन्‍यासिनी सुलभा ने भिक्षा लेने के बहाने मिथिलानरेश का दर्शन किया। उसके परम सुकुमार शरीर और सौन्‍दर्य को देखकर राजा जनक आश्‍चर्य से चकित हो उठे और मन-ही-मन सोचने लगे, ‘यह कौन है, किसकी है अथवा कहाँ से आयी है ?’ तदनन्‍तर उसका स्‍वागत करके राजा ने उसे सुन्‍दर आसान समर्पित किया और पैर धुलाकर उसका यथोचित पूजन करने के पश्‍चात् उत्‍तमोत्‍तम अन्‍य देकर उसे तृप्‍त किया। भोजन करके संतुष्‍ट हुई संन्‍यासिनी सुलभा ने सम्‍पूर्ण भाष्‍यवेत्‍ता विद्वानों के बीच में मन्त्रियों से घिरकर बैठे हुए राजा जनक से कुछ प्रश्‍न करने का विचार किया।[1]

सुलभा जनक संवाद

सुलभा मोक्षधर्म के विषय में राजा से कुछ पूछना चाहती थी। उसके मन में यह संदेह था कि राजा जनक जीवन मुक्‍त हैं या नहीं। वह योगशक्तियों की जानकर तो थी ही, अपनी सूक्ष्‍म बुद्धिद्वारा राजा की बुद्धि में प्रविष्‍ट हो गयी। राजा जनक से प्रश्‍न करने के लिये उद्यत हो उसने अपने नेत्रों की किरणों द्वारा उनके नेत्रों की किरणों को संयत करके योगबल से उनके चित्‍त को बाँधकर उन्‍हें वश में कर लिया। नृपश्रेष्‍ठ! तब राजा जनक ने सुलभा के अभिप्राय को जानकर उसका आदर करते हुए मुस्‍कराकर अपने भावद्वारा उसके भाव को ग्रहण कर लिया। फिर छत्र आदि राज चिह्न से रहित हुए राजा जनक और त्रिदण्‍डरूप संन्‍यास-चिह्न से मुक्‍त हुई सुलभा का एक ही शरीर में रह कर जो संवाद हुआ था, उसे सुनो।

जनक ने पूछा—भग‍वति! आपको यह संन्‍यास की दीक्षा कहाँ से प्राप्‍त हुई है, आप कहाँ से जायँगी ? किसकी हैं और कहाँ से यहाँ आपका शुभागमन हुआ है ? ये सब बातें राजा जनक ने सुलभा से पूछीं। वे बोले, किसी से पूछे बिना उसके शास्‍त्रज्ञान, अवस्‍था और जाति के विषय में सच्‍ची बात नहीं मालूम होती; अत: मेरे साथ जो तुम्‍हारा समागम हुआ है, इस अवसर पर इन सब विषयों की जानकारी के लिये यथार्थ उत्‍तर जनना आवश्‍यक है। छत्र आदि जो विशेष राजोचित चिह्न हैं, उन्‍हें इस समय मैं त्‍याग चुका हूँ; अत: अब आप मुझे यथार्थरूप से जान लें। मैं आपका सम्‍मान करना चा‍हता हूँ; क्‍योंकि आप मुझे सम्‍मान के योग्‍य जान पड़ती हैं। मैंने पूर्वकाल में सर्वश्रेष्‍ठ मोक्ष विषयक ज्ञान जिनसे प्राप्‍त किया था, जिसका उनके सिवा दूसरा कोई प्रतिपादन करने वाला नहीं है, उस ज्ञान और ज्ञानदाता गुरु का भी परिचय आप मुझे सुनो। पराशर गोत्री संन्‍यास-धर्मावलम्‍बी वृद्ध महात्‍मा पंचशिख मेरे गुरु हैं। मैं उनका परम प्रिय शिष्‍य हूँ। सांख्‍य ज्ञान, योगविद्या तथा राजधर्म—इन तीन प्रकार के मोक्षधर्म में मुझे गन्‍तव्‍य मार्ग गुरुदेव से प्राप्‍त हो चुका है। इन विषयों के मेरे सारे संशय दूर हो गये हैं। पहले की बात है, वे आचार्य चरण शास्‍त्रोक्‍त मार्ग से चलते हुए घूमते-घामते इधर आ निकले और वर्षा-ॠतु के चार महिने मेरे यहाँ सुखपूर्वक रहे। वे सांख्‍यशास्‍त्र के प्रमुख विद्वान् हैं और सारा सिद्धान्‍त उन्‍हें यथावत् रूप से प्रत्‍यक्ष की भाँति ठीक-ठीक ज्ञात है। उन्‍होंने मुझे त्रिविध मोक्षधर्म श्रवण कराया है, परंतु राज्‍य से दूर हटने की आाज्ञा नहीं दी है। इस प्रकार उपदेश पाकर मैं विषयों की आसक्ति से रहित हो मुक्ति विषयक तीन प्रकार की समस्‍त वृत्तियों का आचरण करता हूँ और अकेला परमपद में स्थित हूँ। वैराग्‍य ही इस मुक्ति का प्रधान कारण है और ज्ञान से ही वह वैराग्‍य प्राप्‍त होता है, जिससे मनुष्‍य मुक्‍त हो जाता है। मनुष्‍य ज्ञान के द्वारा मुक्ति पाने के लिये यत्‍न करता है। उस यत्‍न से महान् आत्‍मज्ञान की प्राप्ति होती है। वह महान् आत्‍मज्ञान ही सुख-दु:ख आदि द्वन्‍द्वों से छुटकारा दिलाने का साधन है, वही सिद्धि है, जो काल (मृत्‍यु)-को भी लाँघ जाने वाली है। मेरा मोह दूर हो गया है। मैं समस्‍त संसर्गों का त्‍याग कर चुका हूँ; इसलिये मैंने इस गृहस्‍थ धर्म में रहते हुए ही बुद्धि की परम निर्द्वन्‍द्वता प्राप्‍त कर ली है।[2] जैसे जिस खेत को जोतकर खूब मुलायम बना दिया गया हो और यथासमय उसे पानी से सींचा गया हो, वही बोये हुए बीज में अंकुर उत्‍पन्‍न करता है, उसी प्रकार मनुष्‍यों का शुभ-अशुभ कर्म ही पुनर्जन्‍म का उत्‍पादन करता है। जैसे मिट्टी के खपरे में या और किसी भी बर्तन में भूना गया बीज-बीज न रह जाने के कारण अंकुर उगाने योग्‍य खेत में पड़कर भी नहीं जमता है, उसी प्रकार मेरे संन्‍यासी गुरु भगवान् पंचशिख ने मुझे जो ज्ञान प्रदान किया है, वह निर्बीज है। इसलिये विषयों के क्षेत्र में अंकुरित नहीं होता है। मेरी बुद्धि किसी अनर्थ में अथवा भोगों के संग्रह में भी आसक्‍त नहीं होती है। स्‍त्री आदि के विषय में जो अनुराग और शत्रु आदि के विषय मे जो क्रोध होता है, वह व्‍यर्थ होने के कारण उसकी ओर मेरी बुद्धि की प्रवृत्ति नहीं होती है। जो मेरी दाहिनी बाँह पर चन्‍दन छिड़ के और जो बायीं बाँह को बँसूले से काटे तो ये दोनों ही मनुष्‍य मेरे लिये एक समान हैं। मैं आप्‍तकाम होकर सदा सुख का अनुभव करता हूँ। मेरी दृष्टि में मिटृी के ढेले, पत्‍थर और सुवर्ण सब एक-से हैं। मैं आसक्तिरहित होकर राजा के पद पर प्रतिष्ठित हूँ। अत: अन्‍य त्रिदण्‍डी साधुओं से मेरा स्‍थान विशिष्‍ट है। अलौकिक जो ज्ञान है, अलौकिक जो संन्‍यास है तथा जो कर्मों का अलौकिक अनुष्‍ठान है अर्थात् निष्‍काम भाव से कर्मों का करना है- इन तीन प्रकार की निष्‍ठाओं को ही मोक्षवेत्‍ता विद्वानों ने मोक्ष का उपाय देखा और समझा है। मोक्षशास्‍त्र का ज्ञान रखने वाले श्रेणी के लोग कहते हैं कि ज्ञाननिष्‍ठा ही मोक्ष का साधन है तथा दूसरे सूक्ष्‍मदर्शी यति लोग कर्मनिष्‍ठा को ही मुक्ति का उपाय बताते हैं। किंतु उन महात्‍मा पंचशिखाचार्य ने पूर्वोक्‍त केवल ज्ञान और केवल कर्म- इन दोनों पक्षों का परित्‍याग करके एक तीसरी निष्‍ठा बतायी है।

मोक्ष धर्म का वर्णन

यम, नियम, काम, द्वेष, परिग्रह, मान, दम्‍भ तथा स्‍नेह करके उनसे होने वाले लाभ और हानि में संन्‍यासी भी गृहस्‍थों के ही तुल्‍य है अर्थात् यम-नियम आदि का अभ्‍यास करने पर गृहस्‍थ भी मोक्ष-लाभ कर सकते हैं और कामना तथा द्वेष होने पर संन्‍यासी भी मुक्ति से वंचित हो सकते हैं। संन्‍यासी त्रिदण्‍ड आदि धारण करते हैं और गृहस्‍थ नरेश छत्र-चँवर आदि। यदि त्रिदण्‍ड धारण करने पर किसी को ज्ञान द्वारा मोक्ष प्राप्‍त हो सकता है तो छत्र आदि धारण करने पर दूसरे को उसी ज्ञान के द्वारा मोक्ष कैसे प्राप्‍त नहीं हो सकता? क्‍योंकि प्रतिबन्‍ध का कारण परिग्रह दोनों के लिये समान है- एक त्रिदण्‍ड आदि का संग्रह करता है और दूसरा छत्र आदि का। अपने-अपने अभीष्‍ट अर्थ की सिद्धि के लिये जिस मनुष्‍य को जिस-जिस साधन भूत वस्‍तु से प्रयोजन होता है, वे सभी अपना-अपना काम बनाने के लिये उन-उन वस्‍तुओं का आश्रय लेते हैं। जो ग्रहस्‍थ-आश्रम में दोष देखकर उसका परित्‍याग करके दूसरे आश्रम में चला जाता है, वह भी कुछ छोड़ता है और कुछ ग्रहण करता है; अत: उसे भी संगदोष से छुटकारा नहीं मिलता है। किसी का निग्रह और किसी पर अनुग्रह करना ही आधिपत्‍य (प्रभुत्‍व) कहलाता है। यह जैसे राजा में है, वैसे संन्‍यासी में भी है। इस दृष्टि से जब संन्‍यासी भी राजाओं के ही समान हैं, तब केवल वे ही मुक्‍त होते हैं- मानने का क्‍या कारण है?[3]

मनुष्‍य रूप उत्‍तम शरीर में स्थित हुए प्राणी प्रभुत्‍व रखते हुए भी केवल ज्ञान के ही बल से यहाँ समस्‍त पापों से मुक्‍त हो जाते हैं। मेरी तो यह धारणा है कि गेरूआ वस्‍त्र पहनना, मस्‍तक मुड़ा लेना तथा त्रिदण्‍ड और कमण्डलु धारण करना- से सब उत्‍कृष्‍ट संन्‍यास मार्ग का परिचय देने वाले चिह्न मात्र हैं। इनके द्वारा मोक्ष की सिद्धि नहीं होती। यदि इन चिह्नों के रहते हुए भी यहाँ दु:ख से सर्वथा मोक्ष पाने के लिये एकमात्र ज्ञान ही उपाय है तो जितने भी चिह्न धारण किये जाते हैं, वे सब निरर्थक हैं। अथवा यदि कहें कि त्रिदण्‍ड और गैरिक वस्‍त्र आदि धारण करने से कुछ सुविधा प्राप्‍त होती है और कष्‍ट कम होता है, इसलिये संन्‍यासियों ने उन चिह्नों को धारण करने का विचार किया है तो छत्र आदि धारण करने में भी इसी सामान्‍य प्रयोजन की और क्‍यों ने दृष्टि रखी जाय? न तो अकिंचनता (दरिद्रता)- में मोक्ष है और न किंचनता (आवश्‍यक वस्‍तुओं से सम्‍पन्‍न होने)- में बन्‍धन ही है। धन और निर्धनता दोनों ही अवस्‍थाओं में ज्ञान से ही जीव को मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसलिये धर्म,अर्थ, काम तथा राज्‍यपरिग्रह- इन बन्‍धन के स्‍थानों में रहते हुए भी मुझे आप बन्‍धनरहित (जीवन्‍मुक्‍त) पद पर प्रतिष्ठित समझें। मैंने मोक्षरूपी पत्‍थर पर रगड़कर तेज किये हुए त्‍याग-वैराग्‍यरूपी तलवार से राज्‍य और ऐश्‍वर्य रूपी पाश को तथा स्‍नेह के आश्रयभूत स्‍त्री-पुत्र आदि के ममत्‍वरूपी बन्‍धन को काट डाला है। संन्‍यासिनी! इस प्रकार मैं जीवन्‍मुक्‍त हूँ। आप में योग का प्रभाव देखकर यद्यपि आपके प्रति मेरी आस्‍था और आदर-बुद्धि हो गयी है तथापि मैं आपके इस रूप और सौन्‍दर्य को योगसाधना के योग्‍य नहीं मानता, अत: इस विषय में मैं जो कुछ कहता हूँ, मेरे उस वचन को आप सुनिये। सुकुमारता, सौन्‍दर्य, मनोहर शरीर तथा यौवनावस्‍था- ये सारी वस्‍तुएँ योग के विरुद्ध हैं; फिर भी आप में इन सब गुणों के साथ-साथ योग और नियम भी हैं ही, यह कैसे सम्‍भव हुआ? यही मेरे मन में संदेह है। यह जो त्रिदण्‍ड धारणरूप चिह्न है, उसके अनुरूप आपकी कोई चेष्‍टा नहीं है। यह मुक्‍त है या नहीं, इसकी परीक्षा लेने के लिये आपने मेरे शरीर को अभिभूत कर दिया है- उस पर बलात् अधिकार जमा लिया है। मनुष्‍य योगयुक्‍त होकर भी यदि कामभोग में आसक्‍त हो जाय तो उसका त्रिदण्‍ड धारण करना अनुचित एवं व्‍यर्थ है। आप अपने इस बर्ताव द्वारा संन्‍यास-आश्रम के नियम की रक्षा नहीं कर रही हैं। यदि अपने स्‍वरूप को छिपाने के लिये आपने ऐसा किया हो तो जीवन्‍मुक्‍त पुरुष के लिये आत्‍मगोपन आवश्‍यक नहीं है। आपने स्‍वभावत: सोच-समझकर मेरे पूर्व-शरीर का आश्रय लेने की चेष्‍टा की है, अत: मेरे पक्ष का आश्रय लेने-मेरे शरीर में प्रवेश करने के कारण आपसे जो व्‍यतिक्रम बन गया है, उसे बताता हूँ, सुनिये। आपने किस कारण से मेरे राज्‍य अथवा नगर में प्रवेश किया है अथवा किसके संकेत से आप मेरे हृदय में घुस आयी हैं?[4]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 320 श्लोक 1-15
  2. महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 320 श्लोक 16-31
  3. महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 320 श्लोक 32-45
  4. महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 320 श्लोक 46-59

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राजधर्मानुशासन पर्व
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युधिष्ठिर को समझाना | व्यास का युधिष्ठिर को समझाते हुए देवासुर संग्राम का औचित्य सिद्ध करना | कर्मों को करने और न करने का विवेचन | पापकर्म के प्रायश्चितों का वर्णन | स्वायम्भुव मनु के कथानुसार का धर्म का स्वरूप | पाप से शुद्धि के लिए प्रायश्चित | अभक्ष्य वस्तुओं का वर्णन | दान के अधिकारी एवं अनधिकारी का विवेचन | व्यासजी और श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर का नगर में प्रवेश | नगर प्रवेश के समय पुरवासियों एवं ब्राह्मणों द्वारा राजा युधिष्ठिर का सत्कार | चार्वाक का ब्राह्मणों द्वारा वध | चार्वाक को प्राप्त हुए वर आदि का श्रीकृष्ण द्वारा वर्णन | युधिष्ठिर का राज्याभिषेक | युधिष्ठिर का धृतराष्ट्र के अधीन रहकर राज्य व्यवस्था के लिए अपने का भाइयों को नियुक्त करना | युधिष्ठिर और धृतराष्ट्र का युद्ध में मारे गये सगे-संबंधियों का श्राद्धकर्म करना | युधिष्ठिर द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति | युधिष्ठिर द्वारा दिये हुए भवनों में सभी भाइयों का प्रवेश और विश्राम | युधिष्ठिर द्वारा ब्राह्मणों एवं आश्रितों का सत्कार | युधिष्ठिर और श्रीकृष्ण का संवाद | श्रीकृष्ण द्वारा भीष्म की प्रशंसा तथा युधिष्ठिर को उनके पास चलने का आदेश | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की स्तुति-भीष्मस्तवराज | परशुराम द्वारा होने वाले क्षत्रिय संहार के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | परशुराम के उपाख्यान क्षत्रियों का विनाश तथा पुन: उत्पन्न होने की कथा | श्रीकृष्ण द्वारा भीष्म के गुण-प्रभाव का वर्णन | श्रीकृष्ण का भीष्म की प्रशंसा करते हुए उन्हें युधिष्ठिर को धर्मोपदेश देने का आदेश देना | भीष्म द्वारा अपनी असर्मथता प्रकट करने पर भगवान श्रीकृष्ण का उन्हें वर देना | पाण्डवों व ऋषियों का भीष्म से विदा लेना | श्रीकृष्ण की प्रातश्चर्या | सात्यकि द्वारा कृष्ण का संदेश पाकर युधिष्ठिर का भाइयों सहित कुरुक्षेत्र में आना | श्रीकृष्ण और भीष्म की बातचीत | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर को गुण-कथनपूर्वक प्रश्न करने का आदेश देना | भीष्म के आश्वासन पर युधिष्ठिर का उनके समीप जाना | युधिष्ठिर के पूछने पर भीष्म द्वारा राजधर्म का वर्णन | राजा के लिए पुरुषार्थ, सत्य, ब्राह्मणों की अदण्डनीयता | राजा की परिहासशीलता तथा मृदुता में प्रकट होने वाले दोष | राजा द्वारा धर्मानुकूल नीतिपूर्ण बर्ताव का वर्णन | भीष्म द्वारा राज्यरक्षा का वर्णन | युधिष्ठिर का 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राजधर्म का साररूप में वर्णन | दण्ड के स्वरूप, नाम, लक्षण और प्रयोग का वर्णन | दण्ड की उत्पत्ति का वर्णन | दण्ड का क्षत्रियों कें हाथ में आने की परम्परा का वर्णन | त्रिवर्ग के विचार का वर्णन | पाप के कारण राजा के पुनरुत्थान के विषय में आंगरिष्ठ और कामन्दक का संवाद | इन्द्र और प्रह्लाद की कथा | शील का प्रभाव, अभाव में धर्म, सत्य, सदाचार और लक्ष्मी के न रहने का वर्णन | सुमित्र और ऋषभ ऋषि की कथा | राजा सुमित्र का मृग की खोज में तपस्वी मुनियों के आश्रम पर पहुँचना | सुमित्र का मुनियों से आशा के विषय में प्रश्न करना | ऋषभ का सुमित्र को वीरद्युम्न व तनु मुनि का वृतान्त सुनाना | तनु मुनि का वीरद्युम्न को आशा के स्वरूप का परिचय देना | ऋषभ के उपदेश से सुमित्र का आशा को त्याग देना | यम और गौतम का संवाद | आपत्ति के समय राजा का धर्म

आपद्धर्म पर्व

आपत्तिग्रस्त राजा के कर्त्तव्य का वर्णन | ब्राह्मणों और श्रेष्ठ राजाओं के धर्म का वर्णन | धर्म की गति को सूक्ष्म बताना | राजा के लिए कोश संग्रह की आवश्यकता | मर्यादा की स्थापना और अमर्यादित दस्युवृत्ति की निन्दा | बल की महत्ता और पाप से छूटने का प्रायश्रित्त | मर्यादा का पालन करने वाले कायव्य दस्यु की सद्गति का वर्णन | राजा के द्वारा किसका धन लेने व न लेने तथा कैसे बर्ताव करे इसके विचार का वर्णन | शत्रुओं से घिरे राजा के कृर्त्तव्य का वर्णन | राजा के कृर्त्तव्य के विषय में बिडाल व चूहे का आख्यान | शत्रु से सावधान रहने के विषय में राजा ब्रह्मदत्त और पूजनी चिड़िया का संवाद | भारद्वाज कणिक का सौराष्ट्रदेश के राजा को कूटनीति का उपदेश | विश्वामित्र और चाण्डाल का संवाद | आपत्काल में धर्म का निश्चय | उत्तम ब्राह्मणों के सेवन का आदेश | बहेलिये और कपोत-कपोती का प्रसंग | कबूतर द्वारा अपनी भार्या का गुणगान व पतिव्रता स्त्री की प्रशंसा | कबूतरी का कबूतर से शरणागत व्याध की सेवा के लिए प्रार्थना | कबूतर द्वारा अतिथि-सत्कार और अपने शरीर का बहेलिये के लिए परित्याग | बहेलिये का वैराग्य | कबूतरी का विलाप और अग्नि में प्रवेश कर उन दोनों को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | बहेलिये को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | इन्द्रोत मुनि का जनमेजय को फटकारना | जनमेजय का इन्द्रोत मुनि की शरण में जाना | इन्द्रोत का जनमेजय को शरण देना | इन्द्रोत का जनमेजय को धर्मोपदेश देना | ब्राह्मण बालक के जीवित होने की कथा | नारद जी का सेमल वृक्ष से प्रश्न | नारद जी का सेमल को उसका अहंकार देखकर फटकारना | वायु का सेमल को धमकाना और सेमल का विचारमग्न होना | सेमल का हार स्वीकार कर बलवान के साथ वैर न करने का उपदेश | समस्त अनर्थो का कारण लोभ को बताकर उसने होने वाले पापों का वर्णन | श्रेष्ठ महापुरुषों के लक्षण | अज्ञान और लोभ को ही समस्त दोषों का कारण सिद्ध करना | मन और इंद्रियों के संयम रूप दम का माहात्म्य | तप की महिमा | सत्य के लक्षण, स्वरूप और महिमा का वर्णन | काम, क्रोध आदि दोषों का निरूपण व नाश का उपाय | नृशंस अर्थात अत्यन्त नीच पुरुष के लक्षण | नाना प्रकार के पापों और प्रायश्रितों का वर्णन | खड्ग की उत्पत्ति और प्राप्ति व महिमा का वर्णन | धर्म, अर्थ और काम के विषय में विदुर व पाण्डवों के पृथक-पृथक विचार | अन्त में युधिष्ठिर का निर्णय | मित्र बनाने व न बनाने योग्य पुरुषों के लक्षण | कृतघ्न गौतम की कथा का आरम्भ | गौतम का समुद्र की ओर प्रस्थान व बकपक्षी के घर पर अतिथि होना | गौतम का आतिथ्यसत्कार व विरूपाक्ष के भवन में प्रवेश | गौतम का राक्षसराज के यहाँ से सुर्वणराशि लेकर लौटना | गौतम का अपने मित्र बक के वध का विचार मन में लाना | कृतघ्न गौतम द्वारा राजधर्मा का वध | राक्षसों द्वार कृतघ्न की हत्या व उसके माँस को अभक्ष्य बताना | राजधर्मा और गौतम का पुन: जीवित होना

मोक्षधर्म पर्व

शोकाकुल चित्त की शांति के लिए सेनजित और ब्राह्मण संवाद | पिता के प्रति पुत्रद्वारा ज्ञान का उपदेश | त्याग की महिमा के विषय में शम्पाक का उपदेश | धन की तृष्णा से दु:ख का वर्णन | धन के त्याग से परम सुख की प्राप्ति | जनक की उक्ति तथा राजा नहुष के प्रश्नों के उत्तर मे बोध्यगीता | प्रह्लाद और अवधूत का संवाद | आजगर वृत्ति की प्रशंसा का वर्णन | काश्यप ब्राह्मण और इन्द्र का संवाद | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम कर्ता को भोगने का प्रतिपादन | भरद्वाज और भृगु के संवाद में जगत की उत्पत्ति का वर्णन | आकाश से अन्य चार स्थूल भूतों की उत्पत्ति का वर्णन | पंचमहाभूतों के गुणों का विस्तारपूर्वक वर्णन | शरीर के भीतर जठरानल आदि वायुओं की स्थिति का वर्णन | जीव की सत्ता पर अनेक युक्तियों से शंका उपस्थित करना | जीव की सत्ता तथा नित्यता को युक्तियों से सिद्ध करना | मनुष्यों की और समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन | कर्मो का और सदाचार का वर्णन | वैराग्य से परब्रह्मा की प्राप्ति | सत्य की महिमा, असत्य के दोष व लोक और परलोक के सुख-दु:ख का विवेचन | ब्रह्मचर्य और गार्हस्थ्य आश्रमों के धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास धर्मों का वर्णन | हिमालय के उत्तर में स्थित लोक की विलक्षणता व महत्ता का प्रतिपादन | भृगु और भरद्वाज के संवाद का उपसंहार | शिष्टाचार का फलसहित वर्णन | पाप को छिपाने से हानि और धर्म की प्रशंसा | अध्यात्मज्ञान का निरूपण | ध्यानयोग का वर्णन | जपयज्ञ के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | जप और ध्यान की महिमा और उसका फल | जापक में दोष आने के कारण उसे नरक की प्राप्ति | जापक के लिए देवलोक भी नरक तुल्य इसके प्रतिपादन का वर्णन | जापक को सावित्री का वरदान | धर्म, यम और काल का आगमन | राजा इक्ष्वाकु और ब्राह्मण का संवाद | सत्य की महिमा तथा जापक की गति का वर्णन | ब्राह्मण और इक्ष्वाकु की उत्तम गति का वर्णन | जापक को मिलने वाले फल की उत्कृष्टता | मनु द्वारा कामनाओं के त्याग एवं ज्ञान की प्रशंसा | परमात्मतत्त्व का निरूपण | आत्मतत्त्व और बुद्धि आदि पदार्थों का विवेचन | साक्षात्कार का उपाय | शरीर, इन्द्रिय और मन-बुद्धि से आत्मा की सत्ता का प्रतिपादन | आत्मा व परमात्मा के साक्षात्कार का उपाय तथा महत्त्व | परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | मनु बृहस्पति संवाद की समाप्ति | श्री कृष्ण से सम्पूर्ण भूतों की उत्पत्ति | श्री कृष्ण की महिमा का कथन | ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन | प्रत्येक दिशा में निवास करने वाले महर्षियों का वर्णन | विष्णु का वराहरूप में प्रकट हो देवताओं की रक्षा और दानवों का विनाश | नारद को अनुस्मृतिस्तोत्र का उपदेश | नारद द्वारा भगवान की स्तुति | श्री कृष्ण सम्बन्धी अध्यात्मतत्तव का वर्णन | संसारचक्र और जीवात्मा की स्थिति का वर्णन | निषिद्ध आचरण के त्याग आदि के परिणाम तथा सत्त्वगुण के सेवन का उपदेश | जीवोत्पत्ति के दोष और बंधनों से मुक्त तथा विषय शक्ति के त्याग का उपदेश | ब्रह्मचर्य तथा वैराग्य से मुक्ति | आसक्ति छोड़कर सनातन ब्रह्म की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने के उपदेश | स्वप्न और सुषुप्ति-अवस्था में मन की स्थिति का वर्णन | गुणातीत ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | सच्चिदान्नदघन परमात्मा, दश्यवर्ग प्रकृति और पुरुष उन चारों के ज्ञान से मुक्ति का वर्णन | परमात्मा प्राप्ति के अन्य साधनों का वर्णन | राजा जनक के दरबार में पञ्चशिख का आगमन | नास्तिक मतों के निराकरणपूर्वक शरीर से भिन्न आत्मा की नित्य सत्ता का प्रतिपादन | पञ्चशिख के द्वारा मोक्षतत्त्व के विवेचन का वर्णन | विष्णु द्वारा मिथिलानरेश जनकवंशी जनदेव की परीक्षा और उनके के लिए वर प्रदान | श्वेतकेतु और सुवर्चला का विवाह | पति-पत्नी का अध्यात्मविषयक संवाद | दम की महिमा का वर्णन | व्रत, तप, उपवास, ब्रह्मचर्य तथा अतिथि सेवा का विवेचन | सनत्कुमार का ऋषियों को भगवत्स्वरूप का उपदेश | इंद्र और प्रह्लाद का संवाद | इन्द्र के आक्षेप युक्त वचनों का बलि के द्वारा कठोर प्रत्युत्तर | बलि और इन्द्र का संवाद | बलि द्वारा इन्द्र को फटकारना | इन्द्र और लक्ष्मी का संवाद | बलि को त्यागकर आयी हुई लक्ष्मी की इन्द्र के द्वारा प्रतिष्ठा | इन्द्र और नमुचि का संवाद | काल और प्रारब्ध की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी का दैत्यों को त्यागकर इन्द्र के पास आना | सद्गुणों पर लक्ष्मी का आना व दुर्गुणों पर त्यागकर जाने का वर्णन | जैगीषव्य का असित-देवल को समत्वबुद्धि का उपदेश | श्रीकृष्ण और उग्रसेन का संवाद | शुकदेव के प्रश्नों के उत्तर में व्यास जी द्वारा काल का स्वरूप बताना | व्यास जी का शुकदेव को सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम तथा युगधर्मों का उपदेश | ब्राह्मप्रलय एंव महाप्रलय का वर्णन | ब्राह्मणों का कर्तव्य और उन्हें दान देने की महिमा का वर्णन | ब्राह्मण के कर्तव्य का प्रतिपादन करते हुए कालरूप नद को पार करने का उपाय | ध्यान के सहायक योग | फल और सात प्रकार की धारणाओं का वर्णन | मोक्ष की प्राप्ति | सृष्टि के समस्त कार्यों में बुद्धि की प्रधानता | प्राणियों की श्रेष्ठता के तारतम्य का वर्णन | नाना प्रकार के भूतों की समीक्षापूर्वक कर्मतत्त्व का विवेचन | युगधर्म का वर्णन एवं काल का महत्त्व | ज्ञान का साधन और उसकी महिमा | योग से परमात्मा की प्राप्ति का वर्णन | कर्म और ज्ञान का अन्तर | ब्रह्मप्राप्ति के उपाय का वर्णन | ब्रह्मचर्य-आश्रम का वर्णन | गार्हस्थ्य-धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रम के धर्म और महिमा का वर्णन | संन्यासी के आचरण | ज्ञानवान संन्यासी का प्रशंसा | परमात्मा की श्रेष्ठता व दर्शन का उपाय | ज्ञानमय उपदेश के पात्र का निर्णय | महाभूतादि तत्त्वों का विवेचन | बुद्धि की श्रेष्ठता और प्रकृति-पुरुष-विवेक | ज्ञान के साधन व ज्ञानी के लक्षण और महिमा | परमात्मा की प्राप्ति का साधन | ज्ञान से ब्रह्म की प्राप्ति | ब्रह्मवेत्ता के लक्षण व परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | शरीर में पंचभूतों के कार्य व गुणों की पहचान | जीवात्मा और परमात्मा का योग द्वारा साक्षात्कार | कामरूपी अद्भुत वृक्ष व शरीर रूपी नगर का वर्णन | मन और बुद्धि के गुणों का विस्तृत वर्णन | युधिष्ठिर का मृत्युविषयक प्रश्न व ब्रह्मा की रोषाग्नि से प्रजा के दग्ध होने का वर्णन | ब्रह्मा के द्वारा रोषाग्नि का उपसंहार व मृत्यु की उत्पत्ति | मृत्यु की तपस्या व प्रजापति की आज्ञा से मृत्यु का प्राणियों के संहार का कार्य स्वीकार करना | धर्माधर्म के स्वरूप का निर्णय | युधिष्ठिर का धर्म की प्रमाणिकता पर संदेह उपस्थित करना | जाजलि की घोर तपस्या व जटाओं में पक्षियों का घोंसला बनाने से उनका अभिमान | आकाशवाणी की प्रेरणा से जाजलि का तुलाधार वैश्य के पास जाना | जाजलि और तुलाधार का धर्म के विषय में संवाद | जाजलि को तुलाधार का आत्मयज्ञविषयक धर्म का उपदेश | जाजलि को पक्षियों का उपदेश | राजा विचख्नु के द्बारा अहिंसा-धर्म की प्रशंसा | महर्षि गौतम और चिरकारी का उपाख्यान | दीर्घकाल तक सोच-विचारकर कार्य करने की प्रशंसा | द्युमत्सेन और सत्यवान का संवाद | अहिंसापूर्वक राज्यशासन की श्रेष्ठता का कथन | स्यूमरश्मि और कपिल का संवाद | प्रवृत्ति एवं निवृत्तिमार्ग के विषय में स्यूमरश्मि व कपिल संवाद | चारों आश्रमों में उत्तम साधनों के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति का कथन | ब्रह्मण और कुण्डधार मेघ की कथा | यज्ञ में हिंसा की निंदा और अहिंसा की प्रशंसा | धर्म, अधर्म, वैराग्य और मोक्ष के विषय में युधिष्ठिर के प्रश्न | मोक्ष के साधन का वर्णन | नारद और असितदेवल का संवाद | तृष्णा के परित्याग के विषय में माण्डव्य मुनि और जनक का संवाद | पिता और पुत्र का संवाद | हारित मुनि के द्वारा आचरण व धर्मों का वर्णन | ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | ब्रह्म की प्राप्ति के विषय में वृत्र और शुक्र का संवाद | वृत्रासुर को सनत्कुमार का आध्यात्मविषयक उपदेश | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर की शंका निवारण | इन्द्र और वृत्रासुर के युद्ध का वर्णन | वृत्रासुर के वध से प्रकट हुई ब्रह्महत्या का ब्रह्मा जी के द्वारा चार स्थानों में विभाजन | शिवजी के द्वारा दक्ष के यज्ञ का भंग | शिवजी के क्रोध से ज्वर की उत्पत्ति व उसके विविध रूप | पार्वती के रोष के निवारण के लिए शिव द्वारा दक्ष-यज्ञ का विध्वंस | महादेव जी का दक्ष को वरदान | स्तोत्र की महिमा | अध्यात्म ज्ञान और उसके फल का वर्णन | समंग द्वारा नारद जी से अपनी शोकहीन स्थिति का वर्णन | नारद जी द्वारा गालव मुनि को श्रेय का उपदेश | अरिष्टनेमि का राजा सगर को मोक्षविषयक उपदेश | उशना का चरित्र | उशना को शुक्र नाम की प्राप्ति | पराशर मुनि का राजा जनक को कल्याण की प्राप्ति के साधन का उपदेश | कर्मफल की अनिवार्यता | कर्मफल से लाभ | धर्मोपार्जित धन की श्रेष्ठता, व अतिथि-सत्कार का महत्त्व | गुरुजनों की सेवा से लाभ | सत्संग की महिमा व धर्मपालन का महत्त्व | ब्राह्मण और शूद्र की जीविका | मनुष्यों में आसुरभाव की उत्पत्ति व शिव के द्वारा उसका निवारण | विषयासक्त मनुष्य का पतन | तपोबल की श्रेष्ठता व दृढ़तापूर्वक स्वधर्मपालन का आदेश | वर्ण विशेष की उत्पत्ति का रहस्य | हिंसारहित धर्म का वर्णन | धर्म व कर्तव्यों का उपदेश | राजा जनक के विविध प्रश्नों का उत्तर | ब्रह्मा को साध्यगणों को उपदेश | योगमार्ग के स्वरूप, साधन, फल और प्रभाव का वर्णन | सांख्ययोग के अनुसार साधन का वर्णन | सांख्ययोग के फल का वर्णन | वसिष्ठ और करालजनक का संवाद | प्रकृति-संसर्ग के कारण जीव का बारंबार जन्म ग्रहण करना | प्रकृति के संसर्ग दोष से जीव का पतन | क्षर-अक्षर एवं प्रकृति-पुरुष के विषय में राजा जनक की शंका | योग और सांख्य के स्वरूप का वर्णन तथा आत्मज्ञान से मुक्ति | विद्या-अविद्या व पुरुष के स्वरूप के उद्गार का वर्णन | वसिष्ठ व जनक संवाद का उपसंहार | जनकवंशी वसुमान को मुनि का धर्मविषयक उपदेश | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश | इन्द्रियों में मन की प्रधानता का प्रतिदान | संहार क्रम का वर्णन | अध्यात्म व अधिभूत वर्णन तथा राजस और तामस के भावों के लक्षण | राजा जनक के प्रश्न | प्रकृति पुरुष का विवेक और उसका फल | योग का वर्णन व उससे परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति | मृत्यु सूचक लक्षण व मृत्यु को जीतने का उपाय | याज्ञयवल्क्य द्वारा सूर्य से वेदज्ञान की प्राप्ति का प्रसंग सुनाना | विश्वावसु को जीवात्मा और परमात्मा की एकता के ज्ञान का उपदेश देना | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश देकर विदा होना | पञ्चशिख और जनक का संवाद | सुलभा का राजा जनक के शरीर में प्रवेश करना | राजा जनक का सुलभा पर दोषारोपण करना | सुलभा का राजा जनक को अज्ञानी बताना | व्यास जी का शुकदेव को धर्मपूर्ण उपदेश देते हुए सावधान करना | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम का वर्णन | शंकर द्वारा व्यास को पुत्रप्राप्ति के लिये वरदान देना | शुकदेव की उत्पति तथा संस्कार का वृतान्त | पिता की आज्ञा से शुकदेव का मिथिला में जाना | शुकदेव का ध्यान में स्थित होना | राजा जनक द्वारा शुकदेव जी का पूजन तथा उनके प्रश्न का समाधान | जनक द्वारा बह्मचर्याश्रम में परमात्मा की प्राप्ति | शुकदेव द्वारा मुक्त पुरुष के लक्षणों का वर्णन | शुकदेव का पिता के पास लौट आना


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