विरह-पदावली -सूरदास
राग मलार (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है-) सखी! सुनो, वे स्त्रियाँ धन्य हैं, जो स्वप्न में अपने प्राणवल्लभ की मूर्ति देखती हैं। मैं क्या करूँ, श्यामसुन्दर के जाते समय निद्रा उनसे चार दिन पहले ही चली गयी। देखो, सखी! कुछ कहते नहीं बनता, (रात-दिन) अपमानों के मारे मन में कुढ़ती रहती हूँ। जिस दिन से मेरे मोहन नेत्रों से ओझल हुए (उसी दिन से) दिनों दिन (नेत्रों में) अत्यन्त जल (इस भाँति) बढ़ता जाता है, मानो दो सुन्दर सरोवर मर्यादा (सीमा) को तोड़कर उमड़ पड़े हों। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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