विरह-पदावली -सूरदास
राग नट (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है- सखी!) अब तो मेरे दिन ऐसे ही बीतेंगे। सखी! सुन, इसमें किसी का दोष नहीं; श्यामसुन्दर ने ही प्रेमपूर्ण नेत्र (मेरी ओर से) घुमा लिये। सच कहती हूँ, (उसी दिन से) कस्तूरी, चन्दन, कपूर और कुंकुम (केसर)- ये सब मुझे तप्त करते हैं और मन्द वायु, चन्द्रमा तथा अत्यन्त कोमल पुष्प भी (मुझे) कठोर दिखायी पड़ते हैं। प्रत्येक वन में मयूर, चातक और कोकिल बसते हैं, उन्होंने ही (वहाँ इन्हें) बसेरा (निवास) दिया था। (उनमें से) जिसे जो अच्छा लगता है, वही अब बकता (बोलता) रहता है; मेरे मना करने से कोई मानते नहीं। जिन वृक्षों को (हमने) अपने हाथों से सींच-सींचकर बढ़ाते हुए बड़ा किया था, सुनो, (अब) उनके ही किसलय (नवीन पत्ते) मेरे लिये भारी पर्वत हो मेरे नेत्रों का मार्ग आकर रोके रहते हैं (उन्हें देखकर नेत्र दुःखी होते हैं)। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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