विरह-पदावली -सूरदास
(145) (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है-) श्यामसुन्दर! (मेरी) आँखें (तुम्हारे दर्शनों के लिये) अत्यन्त हठ कर रही हैं (अतः इनकी तृप्ति के लिये) अतिथि बनने के बहाने ही सही, चार दिन के लिये मिल जाओ न। (तुम्हारे आगमन का शकुन जानने के लिये) कौओं को उड़ाते-उड़ाते (मेरी) भुजा थक गयी, कब उसी रूप में तुम्हें देखूँगी ? अरे, मैं तो यमुना के कगारों पर (तुम्हारी याद में) ‘श्याम! श्याम!’ कहकर पुकारती रहती हूँ। (मेरे) कमल-समान मुख पर (नेत्ररूपी) दो खंजन (इस भाँति भीग रहे हैं) मानो जल में डूब रहे हों। हे स्वामी! तुम्हारे दर्शन के बिना ये पंख भी (तो) नहीं फैला सकते (अतः दर्शन देकर इन्हें डूबने से बचा लो)। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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