विरह-पदावली -सूरदास
राग देसकार (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है- सखी!) सभी ऋतुएँ अब दूसरी ही भाँति की लगती हैं। सखी! सुन, उन श्रीव्रजराज के बिना सब उमंगें फीकी लगती हैं। वर्षा-ऋतु के मेघों को देखकर नेत्र वर्षा करने (अश्रु गिराने) लगते हैं और (उसके) बीतने पर (वे) शीतल होते हैं; (क्योंकि श्यामसुन्दर के) प्रेम की जो नदी हृदय में एकत्र है, वह शरद्-ऋतु में नेत्रों के मार्ग से जल बनकर बहने लगा है। (हेमन्त की) शीतलता और चन्द्रमा को देखकर (तो) यह (वेदना) और (भी) उत्पन्न होती (बढ़ जाती) है। मैं रात्रि में इसी प्रकार व्याकुल रहती हूँ तथा शिशिर-ऋतु में श्यामसुन्दर के साथ (किये गये उन) आनन्दोपभोगों का स्मरण करके हृदय व्याकुल होकर कमल के समान काँपता है। वसन्त-ऋतु को देखकर शरीर में (जो) वियोग की लता पनप रही है, उसमें वे (पहिले के) सुख (अब) दुःख बनकर फूलने लगे हैं और ग्रीष्म-ऋतु में कामदेव एक क्षण को भी छोड़ता नहीं, (जिससे) शरीर की सब सुधि भूल जाती है। इस प्रकार छहों ऋतुओं ने एकत्र होकर मेरे शरीर में ही स्थान बना लिया है और त्रिदोष (वात, कफ़, पित्त के समान वियोग, वेदना एवं काम) का ज्वर उत्पन्न कर दिया है। अस्तु, अब तक तो अवधि (मोहन के लौटने के समय) रूपी उपचार (दवा) से किसी प्रकार प्राणों को भुलावा देकर (बहकाकर) रोक रखा है (पर आगे क्या होगा, समझ में नहीं आता)। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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