सनत्कुमार का ऋषियों को भगवत्स्वरूप का उपदेश

महाभारत शान्ति पर्व में मोक्षधर्म पर्व के अंतर्गत 222वें अध्याय में सनत्कुमार का ऋषियों को भगवत्स्वरूप का उपदेश देने का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]

भीष्म द्वारा युधिष्ठिर के प्रश्न का उत्तर देना

युधिष्ठिर ने पूछा- राजन! जगत में कुछ विद्वान जड और चेतन अथवा प्रकृति और पुरुष दो तत्त्वों का प्रतिपादन करते हैं। कुछ लोग जीव, ईश्‍वर और प्रकृति इन तीन तत्त्वों का वर्णन करते हैं और कितने ही विद्वान अनेक तत्त्वों का वर्णन करते हैं और कितने ही विद्वान अनेक तत्त्वों का निरूपण करते रहते हैं; अत: कहीं न विश्‍वास किया जा सकता है, न अविश्‍वास। इसके सिवा वह परब्रह्म परमात्‍मा दिखायी नहीं देता है। नाना प्रकार के शास्त्र हैं और भिन्‍न-भिन्‍न प्रकार से उनका वर्णन किया गया है; इसलिये पितामह! मैं किस सिद्धान्‍त का आश्रय लेकर रहूँ, यह मुझे बताइये।

भीष्‍म जी ने कहा- राजन! शास्त्रों के विचार में प्रभावशाली सभी महात्‍मा अपने-अपने सिद्धान्‍त के प्रतिपादन में स्थित हैं। ऐसे पण्डित इस जगत में बहुत हैं; परंतु उनमें वास्‍तव में कौन तत्त्व को जानने वाला विद्वान है और कौन शास्त्र चर्चा में पण्डित है? यह कहना कठिन है। सबके तत्त्व को भलीभाँति समझकर जैसी रुचि हो, उसी के अनुसार आचरण करे। इस विषय में एक प्राचीन इतिहास प्रसिद्ध है।

एक समय बहुत से भावित्‍मा मुनियों का इसी विषय को लेकर आपस में बड़ा भारी वाद-विवाद हुआ था। हिमालय पर्वत के पार्श्‍वभाग में कठोर व्रत का पालन करने वाले छ: हजार ऋषियों की एक बैठक हुई थी। उनमें से कुछ लोग इस जगत को ध्रुव (सदा रहने वाला) बताते थे, कुछ इसे ईश्‍वरसहित कहते थे और कुछ लोग बिना ईश्‍वर के ही जगत की उत्‍पत्ति का प्रतिपादन करते थे। कुछ लोगों का मत यह था कि वास्‍तव में इस सम्‍पूर्ण जगत की सत्‍ता है ही नहीं। इसी प्रकार दूसरे ब्राह्मणों में से कुछ लोग स्‍वभाव को, कितने ही कर्म को, बहुतेरे पुरुषार्थ को, दूसरे लोग दैव को और अन्‍य बहुत से लोग स्‍वभाव कर्म आदि सभी को जगत का कारण बताते थे। वे नाना प्रकार के शास्त्रों के प्रवर्तक थे तथा अनेक प्रकार की सैकड़ों युक्तियों द्वारा अपने मत का पोषण करते थे। राजन! वे सभी ब्राह्मण स्‍वभाव से ही इस शास्त्रार्थ में एक दूसरे को पराजित करने की इच्‍छा करते थे। तदनन्‍तर उन वादी और प्रतिवादियों में मूलभूत प्रश्‍न को लेकर बड़ा भारी वाद-विवाद खड़ा हो गया। उनमें से कितने ही क्रोध में भरकर एक दूसरे के पात्र, दण्‍ड, वल्‍कल, मृगचर्म और वस्त्रों को भी नष्ट करने लगे।

ब्राह्मणों का सनत्‍कुमार के पास जाना

तत्‍पश्‍चात शान्‍त होने पर वे सभी श्रेष्ठ ब्राह्मण म‍हर्षि वशिष्ठ से बोले– ‘प्रभो! आप ही हमें सनातन तत्त्व का उपदेश करें यह सुनकर वशिष्ठ ने उत्‍तर दिया- ‘विप्रवरो! मैं उस सनातन तत्त्व के विषय में कुछ नहीं जानता’। तब वे सब ब्राह्मण एक साथ नारद मुनि से बोले- ‘महाभाग! आप ही हमें सनातन तत्त्व का उपदेश करें; क्‍योंकि आप तत्त्ववेत्‍ता हैं’। तब भगवान नारद ने ब्राह्मणों से कहा- ‘विप्रगण! मैं उस तत्त्व को नहीं जानता। हम सब लोग मिलकर कहीं और चलें। इस जगत में कौन ऐसा विद्वान है, जिसमें मोह न हो तथा जो उस अद्भुत अमृत तत्त्व के प्रतिपादन में समर्थ हो’। यह बातचीत हो ही रही थी कि उन ब्राह्मणों ने किसी अदृश्‍य देवता की बात सुनी- ‘ब्राह्मणो! सनत्‍कुमार के आश्रम पर जाकर पूछो। वे तुम्‍हें तत्त्वज्ञान का उपदेश करेंगे’।[1]

विभाण्‍डक का अदृश्य देवता से संवाद

उस समय वेदराशि के ज्ञान से सुशोभित विभाण्डक नामक किन्‍हीं ब्राह्मण शिरोमणि ने उस अदृश्‍य देवता से पूछा- ‘हम लोगों में तत्त्व के विषय में मतभेद उत्‍पन्‍न हो गया है; ऐसी स्थिति में आप कौन हैं, जो बात तो कर रहे हैं, किंतु दीखते नहीं हैं’। भीष्‍म जी कहते है- राजन! तब भगवान सनत्‍कुमार ने उनसे कहा- ‘महामुने! तुम तो पण्डित हो। तुम मुझे सदा एकरूप से ही विचरण करने वाला पुरातन ऋषि सनत्‍कुमार समझो। मैं वही हूँ, जिसे वेदवेत्‍ता पुरुष अक्षय बताते हैं’। कुन्‍तीनन्‍दन! तब उन महात्‍मा विभाण्‍डक ने पुन: उनसे कहा- ‘आदिमुनिप्रवर! आप अपने स्‍वरूप का परिचय दीजिये। केवल आप ही हमसे विलक्षण जान पड़ते हैं, आपका स्‍वरूप हमारे प्रत्‍यक्ष नहीं है। अथवा यदि आपका भी कोई स्‍वरूप है तो वह कैसा है? तब उस अदृश्‍य आदि-महात्‍मा गम्‍भीर स्‍वर में यह बात कही- ‘मुने! तुम्‍हारे न तो कान है, न मुख है, न हाथ है, न पैर है और न पैरों के पंजे ही हैं’। मुनियों से बातचीत करते हुए विद्वान विभाण्‍डक ने अपने विषय में जब यह सत्‍य देखा तो मन ही मन विचार करके कहा- ‘ऋषे! आप ऐसी बात क्‍यों कहते हैं? यदि इसको जानने वाला कोई न रहे, तब क्‍या होगा?’ परंतु इसका उत्‍तर उन श्रेष्ठ ब्राह्मणों को फिर सुनायी दिया। वे हँसते हुए आकाश की ओर देखते ही रह गये।[2]

यह तो बड़े आश्‍चर्य की बात है’ ऐसा मानकर सभी मुनिश्रेष्ठ दल-बलसहित सुवर्णमय महागिरि मेरु पर सनत्‍कुमार जी के पास गये। उस पर्वत पर आरूढ़ हो ध्‍यान का आश्रय ले उन ऋषियों ने पूजनीय देव सनत्‍कुमार को देखा, जो निरन्‍तर वेद के पारायण में लगे हुए थे। राजेन्‍द्र! एक वर्ष पूर्ण होने पर जब महामुनि सनत्‍कुमार प्रकृतिस्‍थ हुए, तब वे ब्राह्मण उन्‍हें प्रणाम करके खड़े हो गये। ज्ञान से जिनके सारे पाप धुल गये थे, उन भगवान सनत्‍कुमार ने वहाँ पधारे हुए ऋषियों से कहा- ‘मुनिगण! अदृश्‍य देवता ने जो बात कही है, वह मुझे ज्ञात है; अत: आज आप लोगों के प्रश्‍नों का उत्‍तर देना है। मुनिवरो! आप इच्‍छानुसार प्रश्‍न करें। (भीष्‍म जी कहते हैं) तब उन ब्राह्मणों ने हाथ जोड़कर परम निर्मल ज्ञाननिधि द्विजश्रेष्ठ महामुनि सनत्‍कुमार से कहा- ‘कुमार! हमलोग ज्ञान के भण्‍डार और सर्वश्रेष्ठ विश्‍वरूप परमेश्‍वर का किस प्रकार यजन करें? ‘भगवन! महामुने! महानुभाव! आप हम पर प्रसन्‍न होइये और हमें ज्ञानरूपी मधुर अमृत का लेशमात्र दान दीजिये; क्‍योंकि संत अपने शरणागतों को सदा सुख देते हैं। वह जो विश्‍वरूप पद है, वह क्‍या है? यह हमें बताइये’। उनके इस प्रकार विशेष अनुरोध करने पर परब्रह्म परमात्‍मा में आसक्‍तचित्‍त सत्‍यवेत्‍ता महात्‍मा भगवान सनत्‍कुमार ने जो कुछ कहा, उसे सुनो।

सनत्कुमार का ऋषियों को भगवत्स्वरूप का उपदेश देना

वे अनेक सहस्र ऋषियों के बीच में बैठे थे। उन्‍होंने उनके शुभ निवेदन से सत्‍स्‍वरूप आनन्‍दमय परमेश्‍वर का इस प्रकार प्रतिपादन प्रारम्‍भ किया। सनत्‍कुमार बोले- द्विजोत्‍तमों! आप लोगों के बीच में पहले अदृश्‍य देवता ने जो कुछ कहा था, उनका वह कथन उसी रूप में सत्‍य है। आप लोगों ने उसे न जानते हुए ही उसके साथ वार्तालाप किया था। सुनिये, वह विश्‍वरूप परमात्‍मा सबका परम कारण हैं।[2] जो उस सर्वस्‍वरूप परमेश्‍वर को जानता है, वह न तो भयभीत होता है और न कहीं जाता है। मैं कहाँ हूँ? किस-किस साधन से कार्य करता हूँ? इत्‍यादि विचारों में न पड़कर परमात्मा को अनुभव करता हैं। वह परमात्‍मा युग-युग में व्‍यापक है। वह जडात्‍मक प्रपंच से अत्‍यन्‍त भिन्‍न रूप में पृथक स्थित है। उस परमात्‍मा से भिन्‍न जो कोई भी जड वस्‍तु है, उसकी पारमार्थिक सत्‍ता नहीं है। जैसे वायु एक होकर भी अनेक रूपों में संचरित होता है। पक्षी, मृग, व्‍याघ्र और मनुष्‍य में तथा वेणु में यथार्थ रूप से स्थित होकर एक ही वायु के भिन्‍न-भिन्‍न स्‍वरूप हो जाते हैं। जो आत्‍मा है वही परमात्‍मा है; परंतु वह जीवात्‍मा से भिन्‍न सा जान पड़ता है। इस प्रकार वह आत्‍मा ही परमात्‍मा है। वही जाता है, वह आत्‍मा ही सबको देखता है, सबकी बातें सुनता है, सभी गंधो को सूँघता है और सबसे बातचीत करता है।[3]

सूर्यदेव के चक्र में सब ओर दस-दस किरणें हैं, जो वहाँ से निकलकर महात्‍मा भगवान सूर्य के पीछे-पीछे चलतीं हैं। सूर्यदेव प्रतिदिन अस्‍त होते और पुन: पूर्व दिशा में उदित होते है; परंतु वे उदय और अस्‍त दोनों ही सूर्य में नहीं है। इसी प्रकार शरीर के अन्‍तर्गत अन्‍तर्यामीरूप से जो भगवान नारायण विराजमान हैं, उनको जानो (उनमें शरीर और अशरीरभाव सूर्य में उदय-अस्‍त की ही भाँति कल्पित हैं।) विप्रवरो! आप लोगों को गिरते-पड़ते, चलते-फिरते और खाते-पीते प्रत्‍येक कार्य के समय, ऊपर-नीचे आदि प्रत्‍येक देश और दिशा में एकमात्र भगवान नारायण सर्वत्र विराज रहे हैं- ऐसा अनुभव करना चाहिये। उनका दिव्‍य सुवर्णमय धाम ही परमपद जानना चाहिये, उसे पाकर जीवन कृतार्थ हो जाता है। वह स्‍वयं ही अपना प्रकाशक और स्‍वयं ही अपने-आप में अन्‍तर्यामी आत्‍मा है। भौंरा पहले रस का संचय कर लेता है तब फूल के चारों और चक्‍कर लगाने लगता है, उसी प्रकार जो ज्ञानी पुरुष देहाभिमानी जैसा बनकर लोकसंग्रह के लिये सब विषयों का अनुभव करता है वह न तो मोह में पड़ता है और न क्षीण ही होता है। कोई भी उस परमात्‍मा को अपने चर्मचक्षुओं से नहीं देख सकता। अन्‍त:करण में स्थित निर्मल बुद्धि के द्वारा ही उसके रूप को ज्ञानी पुरुष देख पाता है। उस परमात्‍मा का मन्‍त्र द्वारा यजन किया जाता है तथा श्रेष्ठ द्विज ही उसका यजन करता है। वह अमृतस्‍वरूप परमात्‍मा न धर्मी है, न अधर्मी। वह द्वन्‍द्वों से अतीत और ईर्ष्‍या द्वेष से शून्‍य है। इसमे संदेह नहीं कि कि वह ज्ञान से परितृप्‍त होकर सुखपूर्वक सोता है तथा ये भगवान अपनी माया द्वारा जगत की सृष्टि करते हैं। जिसका हृदय मोह से आच्‍छन्‍न है वह अपने कारणभूत परमात्‍मा को नहीं जानता। वही ध्‍यान, दर्शन, मनन और देखी हुई वस्‍तुओं का बोध प्राप्‍त करने वाला है। सम्‍पूर्ण जगत की उत्‍पत्ति करने वाले उस अनन्‍त परमात्‍मा को कौन जान सकता है? मुनिवरो! मुझसे जहाँ तक हो सकता था मैंने इसका स्‍वरूप बता दिया। अब आप लोग जाइये।

भीष्‍म जी कहते हैं- राजन! इस प्रकार ज्ञान के समुद्र की उत्‍पत्ति के कारणभूत मनोहर आकृति वाले सनत्‍कुमार को प्रणाम करके उनका दर्शन करने के पश्‍चात वे सब ऋषि मुनि वहाँ से चले गये।[3] अत: महाराज कुन्‍तीनन्‍दन! तुम भी ज्ञानयोग के साधन में तत्‍पर हो जाओ। ऐसा ज्ञान ही सम्‍पूर्ण दु:खों का विनाश करने वाला है। जो लोग महान दु:ख के आकर बने हुए हैं, उन मनुष्‍यों के परित्राण के लिये पूर्वकाल में पुराण पुरुष महात्‍मा महामुनि शिरोमणि नारायण ऋषि ने इस ज्ञान को प्रकट किया था, यह अविनाशी है।[4]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 222 भाग 1
  2. 2.0 2.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 222 भाग 2
  3. 3.0 3.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 222 भाग 3
  4. महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 222 भाग 4

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आपद्धर्म पर्व

आपत्तिग्रस्त राजा के कर्त्तव्य का वर्णन | ब्राह्मणों और श्रेष्ठ राजाओं के धर्म का वर्णन | धर्म की गति को सूक्ष्म बताना | राजा के लिए कोश संग्रह की आवश्यकता | मर्यादा की स्थापना और अमर्यादित दस्युवृत्ति की निन्दा | बल की महत्ता और पाप से छूटने का प्रायश्रित्त | मर्यादा का पालन करने वाले कायव्य दस्यु की सद्गति का वर्णन | राजा के द्वारा किसका धन लेने व न लेने तथा कैसे बर्ताव करे इसके विचार का वर्णन | शत्रुओं से घिरे राजा के कृर्त्तव्य का वर्णन | राजा के कृर्त्तव्य के विषय में बिडाल व चूहे का आख्यान | शत्रु से सावधान रहने के विषय में राजा ब्रह्मदत्त और पूजनी चिड़िया का संवाद | भारद्वाज कणिक का सौराष्ट्रदेश के राजा को कूटनीति का उपदेश | विश्वामित्र और चाण्डाल का संवाद | आपत्काल में धर्म का निश्चय | उत्तम ब्राह्मणों के सेवन का आदेश | बहेलिये और कपोत-कपोती का प्रसंग | कबूतर द्वारा अपनी भार्या का गुणगान व पतिव्रता स्त्री की प्रशंसा | कबूतरी का कबूतर से शरणागत व्याध की सेवा के लिए प्रार्थना | कबूतर द्वारा अतिथि-सत्कार और अपने शरीर का बहेलिये के लिए परित्याग | बहेलिये का वैराग्य | कबूतरी का विलाप और अग्नि में प्रवेश कर उन दोनों को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | बहेलिये को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | इन्द्रोत मुनि का जनमेजय को फटकारना | जनमेजय का इन्द्रोत मुनि की शरण में जाना | इन्द्रोत का जनमेजय को शरण देना | इन्द्रोत का जनमेजय को धर्मोपदेश देना | ब्राह्मण बालक के जीवित होने की कथा | नारद जी का सेमल वृक्ष से प्रश्न | नारद जी का सेमल को उसका अहंकार देखकर फटकारना | वायु का सेमल को धमकाना और सेमल का विचारमग्न होना | सेमल का हार स्वीकार कर बलवान के साथ वैर न करने का उपदेश | समस्त अनर्थो का कारण लोभ को बताकर उसने होने वाले पापों का वर्णन | श्रेष्ठ महापुरुषों के लक्षण | अज्ञान और लोभ को ही समस्त दोषों का कारण सिद्ध करना | मन और इंद्रियों के संयम रूप दम का माहात्म्य | तप की महिमा | सत्य के लक्षण, स्वरूप और महिमा का वर्णन | काम, क्रोध आदि दोषों का निरूपण व नाश का उपाय | नृशंस अर्थात अत्यन्त नीच पुरुष के लक्षण | नाना प्रकार के पापों और प्रायश्रितों का वर्णन | खड्ग की उत्पत्ति और प्राप्ति व महिमा का वर्णन | धर्म, अर्थ और काम के विषय में विदुर व पाण्डवों के पृथक-पृथक विचार | अन्त में युधिष्ठिर का निर्णय | मित्र बनाने व न बनाने योग्य पुरुषों के लक्षण | कृतघ्न गौतम की कथा का आरम्भ | गौतम का समुद्र की ओर प्रस्थान व बकपक्षी के घर पर अतिथि होना | गौतम का आतिथ्यसत्कार व विरूपाक्ष के भवन में प्रवेश | गौतम का राक्षसराज के यहाँ से सुर्वणराशि लेकर लौटना | गौतम का अपने मित्र बक के वध का विचार मन में लाना | कृतघ्न गौतम द्वारा राजधर्मा का वध | राक्षसों द्वार कृतघ्न की हत्या व उसके माँस को अभक्ष्य बताना | राजधर्मा और गौतम का पुन: जीवित होना

मोक्षधर्म पर्व

शोकाकुल चित्त की शांति के लिए सेनजित और ब्राह्मण संवाद | पिता के प्रति पुत्रद्वारा ज्ञान का उपदेश | त्याग की महिमा के विषय में शम्पाक का उपदेश | धन की तृष्णा से दु:ख का वर्णन | धन के त्याग से परम सुख की प्राप्ति | जनक की उक्ति तथा राजा नहुष के प्रश्नों के उत्तर मे बोध्यगीता | प्रह्लाद और अवधूत का संवाद | आजगर वृत्ति की प्रशंसा का वर्णन | काश्यप ब्राह्मण और इन्द्र का संवाद | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम कर्ता को भोगने का प्रतिपादन | भरद्वाज और भृगु के संवाद में जगत की उत्पत्ति का वर्णन | आकाश से अन्य चार स्थूल भूतों की उत्पत्ति का वर्णन | पंचमहाभूतों के गुणों का विस्तारपूर्वक वर्णन | शरीर के भीतर जठरानल आदि वायुओं की स्थिति का वर्णन | जीव की सत्ता पर अनेक युक्तियों से शंका उपस्थित करना | जीव की सत्ता तथा नित्यता को युक्तियों से सिद्ध करना | मनुष्यों की और समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन | कर्मो का और सदाचार का वर्णन | वैराग्य से परब्रह्मा की प्राप्ति | सत्य की महिमा, असत्य के दोष व लोक और परलोक के सुख-दु:ख का विवेचन | ब्रह्मचर्य और गार्हस्थ्य आश्रमों के धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास धर्मों का वर्णन | हिमालय के उत्तर में स्थित लोक की विलक्षणता व महत्ता का प्रतिपादन | भृगु और भरद्वाज के संवाद का उपसंहार | शिष्टाचार का फलसहित वर्णन | पाप को छिपाने से हानि और धर्म की प्रशंसा | अध्यात्मज्ञान का निरूपण | ध्यानयोग का वर्णन | जपयज्ञ के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | जप और ध्यान की महिमा और उसका फल | जापक में दोष आने के कारण उसे नरक की प्राप्ति | जापक के लिए देवलोक भी नरक तुल्य इसके प्रतिपादन का वर्णन | जापक को सावित्री का वरदान | धर्म, यम और काल का आगमन | राजा इक्ष्वाकु और ब्राह्मण का संवाद | सत्य की महिमा तथा जापक की गति का वर्णन | ब्राह्मण और इक्ष्वाकु की उत्तम गति का वर्णन | जापक को मिलने वाले फल की उत्कृष्टता | मनु द्वारा कामनाओं के त्याग एवं ज्ञान की प्रशंसा | परमात्मतत्त्व का निरूपण | आत्मतत्त्व और बुद्धि आदि पदार्थों का विवेचन | साक्षात्कार का उपाय | शरीर, इन्द्रिय और मन-बुद्धि से आत्मा की सत्ता का प्रतिपादन | आत्मा व परमात्मा के साक्षात्कार का उपाय तथा महत्त्व | परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | मनु बृहस्पति संवाद की समाप्ति | श्री कृष्ण से सम्पूर्ण भूतों की उत्पत्ति | श्री कृष्ण की महिमा का कथन | ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन | प्रत्येक दिशा में निवास करने वाले महर्षियों का वर्णन | विष्णु का वराहरूप में प्रकट हो देवताओं की रक्षा और दानवों का विनाश | नारद को अनुस्मृतिस्तोत्र का उपदेश | नारद द्वारा भगवान की स्तुति | श्री कृष्ण सम्बन्धी अध्यात्मतत्तव का वर्णन | संसारचक्र और जीवात्मा की स्थिति का वर्णन | निषिद्ध आचरण के त्याग आदि के परिणाम तथा सत्त्वगुण के सेवन का उपदेश | जीवोत्पत्ति के दोष और बंधनों से मुक्त तथा विषय शक्ति के त्याग का उपदेश | ब्रह्मचर्य तथा वैराग्य से मुक्ति | आसक्ति छोड़कर सनातन ब्रह्म की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने के उपदेश | स्वप्न और सुषुप्ति-अवस्था में मन की स्थिति का वर्णन | गुणातीत ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | सच्चिदान्नदघन परमात्मा, दश्यवर्ग प्रकृति और पुरुष उन चारों के ज्ञान से मुक्ति का वर्णन | परमात्मा प्राप्ति के अन्य साधनों का वर्णन | राजा जनक के दरबार में पञ्चशिख का आगमन | नास्तिक मतों के निराकरणपूर्वक शरीर से भिन्न आत्मा की नित्य सत्ता का प्रतिपादन | पञ्चशिख के द्वारा मोक्षतत्त्व के विवेचन का वर्णन | विष्णु द्वारा मिथिलानरेश जनकवंशी जनदेव की परीक्षा और उनके के लिए वर प्रदान | श्वेतकेतु और सुवर्चला का विवाह | पति-पत्नी का अध्यात्मविषयक संवाद | दम की महिमा का वर्णन | व्रत, तप, उपवास, ब्रह्मचर्य तथा अतिथि सेवा का विवेचन | सनत्कुमार का ऋषियों को भगवत्स्वरूप का उपदेश | इंद्र और प्रह्लाद का संवाद | इन्द्र के आक्षेप युक्त वचनों का बलि के द्वारा कठोर प्रत्युत्तर | बलि और इन्द्र का संवाद | बलि द्वारा इन्द्र को फटकारना | इन्द्र और लक्ष्मी का संवाद | बलि को त्यागकर आयी हुई लक्ष्मी की इन्द्र के द्वारा प्रतिष्ठा | इन्द्र और नमुचि का संवाद | काल और प्रारब्ध की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी का दैत्यों को त्यागकर इन्द्र के पास आना | सद्गुणों पर लक्ष्मी का आना व दुर्गुणों पर त्यागकर जाने का वर्णन | जैगीषव्य का असित-देवल को समत्वबुद्धि का उपदेश | श्रीकृष्ण और उग्रसेन का संवाद | शुकदेव के प्रश्नों के उत्तर में व्यास जी द्वारा काल का स्वरूप बताना | व्यास जी का शुकदेव को सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम तथा युगधर्मों का उपदेश | ब्राह्मप्रलय एंव महाप्रलय का वर्णन | ब्राह्मणों का कर्तव्य और उन्हें दान देने की महिमा का वर्णन | ब्राह्मण के कर्तव्य का प्रतिपादन करते हुए कालरूप नद को पार करने का उपाय | ध्यान के सहायक योग | फल और सात प्रकार की धारणाओं का वर्णन | मोक्ष की प्राप्ति | सृष्टि के समस्त कार्यों में बुद्धि की प्रधानता | प्राणियों की श्रेष्ठता के तारतम्य का वर्णन | नाना प्रकार के भूतों की समीक्षापूर्वक कर्मतत्त्व का विवेचन | युगधर्म का वर्णन एवं काल का महत्त्व | ज्ञान का साधन और उसकी महिमा | योग से परमात्मा की प्राप्ति का वर्णन | कर्म और ज्ञान का अन्तर | ब्रह्मप्राप्ति के उपाय का वर्णन | ब्रह्मचर्य-आश्रम का वर्णन | गार्हस्थ्य-धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रम के धर्म और महिमा का वर्णन | संन्यासी के आचरण | ज्ञानवान संन्यासी का प्रशंसा | परमात्मा की श्रेष्ठता व दर्शन का उपाय | ज्ञानमय उपदेश के पात्र का निर्णय | महाभूतादि तत्त्वों का विवेचन | बुद्धि की श्रेष्ठता और प्रकृति-पुरुष-विवेक | ज्ञान के साधन व ज्ञानी के लक्षण और महिमा | परमात्मा की प्राप्ति का साधन | ज्ञान से ब्रह्म की प्राप्ति | ब्रह्मवेत्ता के लक्षण व परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | शरीर में पंचभूतों के कार्य व गुणों की पहचान | जीवात्मा और परमात्मा का योग द्वारा साक्षात्कार | कामरूपी अद्भुत वृक्ष व शरीर रूपी नगर का वर्णन | मन और बुद्धि के गुणों का विस्तृत वर्णन | युधिष्ठिर का मृत्युविषयक प्रश्न व ब्रह्मा की रोषाग्नि से प्रजा के दग्ध होने का वर्णन | ब्रह्मा के द्वारा रोषाग्नि का उपसंहार व मृत्यु की उत्पत्ति | मृत्यु की तपस्या व प्रजापति की आज्ञा से मृत्यु का प्राणियों के संहार का कार्य स्वीकार करना | धर्माधर्म के स्वरूप का निर्णय | युधिष्ठिर का धर्म की प्रमाणिकता पर संदेह उपस्थित करना | जाजलि की घोर तपस्या व जटाओं में पक्षियों का घोंसला बनाने से उनका अभिमान | आकाशवाणी की प्रेरणा से जाजलि का तुलाधार वैश्य के पास जाना | जाजलि और तुलाधार का धर्म के विषय में संवाद | जाजलि को तुलाधार का आत्मयज्ञविषयक धर्म का उपदेश | जाजलि को पक्षियों का उपदेश | राजा विचख्नु के द्बारा अहिंसा-धर्म की प्रशंसा | महर्षि गौतम और चिरकारी का उपाख्यान | दीर्घकाल तक सोच-विचारकर कार्य करने की प्रशंसा | द्युमत्सेन और सत्यवान का संवाद | अहिंसापूर्वक राज्यशासन की श्रेष्ठता का कथन | स्यूमरश्मि और कपिल का संवाद | प्रवृत्ति एवं निवृत्तिमार्ग के विषय में स्यूमरश्मि व कपिल संवाद | चारों आश्रमों में उत्तम साधनों के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति का कथन | ब्रह्मण और कुण्डधार मेघ की कथा | यज्ञ में हिंसा की निंदा और अहिंसा की प्रशंसा | धर्म, अधर्म, वैराग्य और मोक्ष के विषय में युधिष्ठिर के प्रश्न | मोक्ष के साधन का वर्णन | नारद और असितदेवल का संवाद | तृष्णा के परित्याग के विषय में माण्डव्य मुनि और जनक का संवाद | पिता और पुत्र का संवाद | हारित मुनि के द्वारा आचरण व धर्मों का वर्णन | ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | ब्रह्म की प्राप्ति के विषय में वृत्र और शुक्र का संवाद | वृत्रासुर को सनत्कुमार का आध्यात्मविषयक उपदेश | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर की शंका निवारण | इन्द्र और वृत्रासुर के युद्ध का वर्णन | वृत्रासुर के वध से प्रकट हुई ब्रह्महत्या का ब्रह्मा जी के द्वारा चार स्थानों में विभाजन | शिवजी के द्वारा दक्ष के यज्ञ का भंग | शिवजी के क्रोध से ज्वर की उत्पत्ति व उसके विविध रूप | पार्वती के रोष के निवारण के लिए शिव द्वारा दक्ष-यज्ञ का विध्वंस | महादेव जी का दक्ष को वरदान | स्तोत्र की महिमा | अध्यात्म ज्ञान और उसके फल का वर्णन | समंग द्वारा नारद जी से अपनी शोकहीन स्थिति का वर्णन | नारद जी द्वारा गालव मुनि को श्रेय का उपदेश | अरिष्टनेमि का राजा सगर को मोक्षविषयक उपदेश | उशना का चरित्र | उशना को शुक्र नाम की प्राप्ति | पराशर मुनि का राजा जनक को कल्याण की प्राप्ति के साधन का उपदेश | कर्मफल की अनिवार्यता | कर्मफल से लाभ | धर्मोपार्जित धन की श्रेष्ठता, व अतिथि-सत्कार का महत्त्व | गुरुजनों की सेवा से लाभ | सत्संग की महिमा व धर्मपालन का महत्त्व | ब्राह्मण और शूद्र की जीविका | मनुष्यों में आसुरभाव की उत्पत्ति व शिव के द्वारा उसका निवारण | विषयासक्त मनुष्य का पतन | तपोबल की श्रेष्ठता व दृढ़तापूर्वक स्वधर्मपालन का आदेश | वर्ण विशेष की उत्पत्ति का रहस्य | हिंसारहित धर्म का वर्णन | धर्म व कर्तव्यों का उपदेश | राजा जनक के विविध प्रश्नों का उत्तर | ब्रह्मा को साध्यगणों को उपदेश | योगमार्ग के स्वरूप, साधन, फल और प्रभाव का वर्णन | सांख्ययोग के अनुसार साधन का वर्णन | सांख्ययोग के फल का वर्णन | वसिष्ठ और करालजनक का संवाद | प्रकृति-संसर्ग के कारण जीव का बारंबार जन्म ग्रहण करना | प्रकृति के संसर्ग दोष से जीव का पतन | क्षर-अक्षर एवं प्रकृति-पुरुष के विषय में राजा जनक की शंका | योग और सांख्य के स्वरूप का वर्णन तथा आत्मज्ञान से मुक्ति | विद्या-अविद्या व पुरुष के स्वरूप के उद्गार का वर्णन | वसिष्ठ व जनक संवाद का उपसंहार | जनकवंशी वसुमान को मुनि का धर्मविषयक उपदेश | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश | इन्द्रियों में मन की प्रधानता का प्रतिदान | संहार क्रम का वर्णन | अध्यात्म व अधिभूत वर्णन तथा राजस और तामस के भावों के लक्षण | राजा जनक के प्रश्न | प्रकृति पुरुष का विवेक और उसका फल | योग का वर्णन व उससे परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति | मृत्यु सूचक लक्षण व मृत्यु को जीतने का उपाय | याज्ञयवल्क्य द्वारा सूर्य से वेदज्ञान की प्राप्ति का प्रसंग सुनाना | विश्वावसु को जीवात्मा और परमात्मा की एकता के ज्ञान का उपदेश देना | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश देकर विदा होना | पञ्चशिख और जनक का संवाद | सुलभा का राजा जनक के शरीर में प्रवेश करना | राजा जनक का सुलभा पर दोषारोपण करना | सुलभा का राजा जनक को अज्ञानी बताना | व्यास जी का शुकदेव को धर्मपूर्ण उपदेश देते हुए सावधान करना | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम का वर्णन | शंकर द्वारा व्यास को पुत्रप्राप्ति के लिये वरदान देना | शुकदेव की उत्पति तथा संस्कार का वृतान्त | पिता की आज्ञा से शुकदेव का मिथिला में जाना | शुकदेव का ध्यान में स्थित होना | राजा जनक द्वारा शुकदेव जी का पूजन तथा उनके प्रश्न का समाधान | जनक द्वारा बह्मचर्याश्रम में परमात्मा की प्राप्ति | शुकदेव द्वारा मुक्त पुरुष के लक्षणों का वर्णन | शुकदेव का पिता के पास लौट आना


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