सद्गुणों पर लक्ष्मी का आना व दुर्गुणों पर त्यागकर जाने का वर्णन

महाभारत शान्ति पर्व में मोक्षधर्म पर्व के अंतर्गत 228वें अध्याय में सद्गुणों पर लक्ष्मी का आना व दुर्गुणों पर त्यागकर जाने का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]

सद्गुणों व दुर्गुणों पर लक्ष्मी के त्यागकर जाने का वर्णन

इंद्र ने कहा- सुमुखि! दैत्यों का आचरण पहले कैसा था? जिससे तुम उनके पास रहती थी और अब क्या देखा है, जो उन दैत्यों और दानवों को छोड़कर यहाँ चली आयी हो?

लक्ष्‍मी ने कहा- इन्‍द्र! जो अपने धर्म का पालन करते, धैर्य से कभी विचलित नहीं होते और स्‍वर्ग प्राप्ति के साधनों में सानन्‍द लगे रहते हैं, उन प्राणियों के भीतर मैं सदा निवास करती हूँ। पहले दैत्‍य लोग दान, अध्‍ययन और यज्ञ-याग में संलग्‍न रहते थे। देवता, गुरु, पितर और अतिथियों की पूजा करते थे। उनके यहाँ सत्‍य का भी पालन होता था। वे अपना घर द्वार झाड़ बुहारकर साफ रखते थे। अपनी स्त्री के मन को प्‍यार से जीत लेते थे। प्रतिदिन अग्निहोत्र करते थे। वे गुरुसेवी, जितेन्द्रिय, ब्राह्मण भक्‍त तथा सत्‍यवादी थे। उनमें श्रद्धा थी। वे क्रोध को जीत चुके थे। वे दानी थे। दूसरों के गुणों में दोषदृष्टि नहीं रखते थे और ईर्ष्‍यारहित थे। वे स्त्री, पुत्र और मन्‍त्री आदि का भरण पोषण करते थे। अमर्षवश कभी एक दूसरे के प्रति लाग-डॉट नहीं रखते थे। सभी धीर स्‍वभाव के थे। दूसरों की समृद्धियों से उनके मन में कभी संताप नहीं होता था। वे दान देते, कर आदि के द्वारा धन संग्रह करते तथा आर्य जनोचित आचार विचार से रहते थे। वे दया करना जानते थे। वे दूसरों पर महान अनुग्रह करने वाले थे। वे सभी सरल स्‍वभाव के दृढ़तापूर्वक भक्ति रखने वाले थे। उन सबने अपनी इन्द्रियों पर विजय पायी थी। वे अपने भृत्‍यों और मन्त्रियों को संतुष्ट रखते थे। कृतज्ञ और मधुरभाषी थे। सबका समुचित रूप से सम्‍मान करते, सबको धन देते, लज्‍जा का सेवन करते और व्रत एवं नियमों का पालन करते थे। सदा ही पर्वोपर विशेष स्‍नान करते, अपने अंगों में चन्‍दन लगाते और सुन्‍दर अलंकार धारण करते थे। स्‍वभाव से ही उपवास और तप में लगे रहते थे। सबके विश्‍वासपात्र थे और वेदों का स्‍वाध्‍याय किया करते थे।

दैत्‍य कभी प्रात:काल सोये नहीं रहते थे। उनके सोते समय सूर्य नहीं उगते थे; अर्थात वे सूर्योदय से पहले ही जाग उठते थे। वे रात में कभी दही और सत्‍तू नहीं खाते थे। वे मन और इन्द्रियों में संयम रखते, सबेरे उठकर घी का दर्शन करते, वेदों का पाठ करते, अन्‍य मागंलिक वस्‍तुओं को देखते और ब्राह्मणों की पूजा करते थे।[1] सदा धर्म की ही चर्चा में लगे रहते और प्रतिग्रह से दूर रहते थे। रात के आधे भाग में ही सोते थे और दिन में नहीं सोते थे। कृपण, अनाथ, वृद्ध, दुर्बल, रोगी और स्त्रियों पर दया करते तथा उनके लिये अन्‍न और वस्‍त्र बाँटते थे। इस कार्य का वे सदा अनुमोदन किया करते थे। त्रस्‍त, विषादग्रस्‍त, उद्विग्‍न, भयभीत, व्‍याघिग्रस्‍त, दुर्बल और पीड़ित को तथा जिसका सर्वस्‍व लुट गया हो, उस मनुष्‍य को वे सदा ढाढ़स बँधाया करते थे। वे धर्म का ही आचरण करते थे। एक-दूसरे की हिंसा नहीं करते थे। सब कार्यों में परस्‍पर अनुकूल रहते और गुरुजनों तथा बडे़-बूढ़ों की सेवा में दतचित्‍त थे। पितरों, देवताओं और अतिथियों की विधिवत पूजा करते थे तथा उन्‍हें अर्पण करने के पश्‍चात् बचे हुए अन्‍न को ही प्रसादरूप में पाते थे। वे सभी सत्‍यवादी और तपस्‍वी थे। वे अकेले बढिया भोजन नहीं करते थे। पहले दूसरों को देकर पीछे अपने उपभोग में लाते थे। परायी स्त्री से कभी संसर्ग नहीं रखते थे। सब प्राणियों को अपने ही समान समझकर उन पर दया रखते थे। वे आकाश में, पशुओं में, विपरीत योनि में तथा पर्व के अवसरों पर वीर्यत्‍याग करना कदापि अच्‍छा नहीं मानते थे। प्रभो! नित्‍य दान, चतुरता, सरलता, उत्‍साह, अहंकारशून्‍यता, परम सौहार्द, क्षमा, सत्‍य, दान, तप, शौच, करुणा, कोमल वचन, मित्रों से द्रोह न करने का भाव ये सभी सद्गुण उनमें सदा मौजूद रहते थे। निद्रा, तन्‍द्रा (आलस्‍य), अप्रसन्‍नता, दोषदृष्टि, अविवेक, अप्रीति, विषाद और कामना आदि दोष उनके भीतर प्रवेश नहीं कर पाते थे। इस प्रकार उत्‍तम गुणोंवाले दानवों के पास सृष्टिकाल से लेकर अब तक मैं उनके युगों से रहती आयी हूँ।[2]

किंतु समय के उलट फेर से गुणों में विपरीतता आ गयी। मैंने देखा, दैत्‍यों में धर्म नहीं रह गया है। वे काम और क्रोध के वशीभूत हो गये हैं। जब बड़े बूढे़ लोग उस सभा में बैठकर कोई बात कहते हैं, तब गुणहीन दैत्‍य उनमें दोष निकालते हुए उन सब वृद्ध पुरुषों की हँसी उड़ाया करते हैं। ऊँचे आसनों पर बैठे हुए नवयुवक दैत्‍य बड़े बूढ़ों के आ जाने पर भी पहले की भाँति न तो उठकर खडे़ होते हैं और न प्रणाम करके ही उनका आदर सत्‍कार करते हैं। बाप के रहते ही बेटा मालिक बन बैठता है। वे शत्रुओं के सेवक बनकर अपने उस कर्म को निर्लज्‍जातापूर्वक दूसरों के सामने कहते हैं। धर्म के विपरीत निन्दित कर्म द्वारा जिन्‍हें महान धन प्राप्‍त हो गया हैं, उनकी उसी प्रकार धनोपार्जन करने की अभिलाषा बढ़ गयी है। दैत्‍य रात में जोर-जोर से हल्‍ला मचाते है और उनके यहाँ अग्निहोत्र की आग मन्‍दगति से जलने लगी है। पुत्रों ने पिताओं और स्त्रियों ने पतियों पर अत्‍याचार आरम्‍भ कर दिया। दैत्‍य और दानव गुरुत्‍व होते हुए भी माता-पिता, वृद्ध पुरुष, आचार्य, अतिथि और गुरुजनों का अभिनन्‍दन नहीं करते हैं। संतानों के लालन-पालन पर भी ध्‍यान नहीं देते हैं। देवताओं , पितरों, गुरुजनों तथा अतिथियों का यजन-पूजन और उन्‍हें अन्‍नदान किये बिना, भिक्षादान और बलि वैश्‍वदेव कर्म का सम्‍पादन किये बिना ही दैत्‍यलोग स्‍वयं भोजन कर लेते हैं। दैत्‍य तथा उनके रसोइये मन, वाणी और क्रिया द्वारा शौचाचार का पालन नहीं करते हैं। उनका भोजन बिना ढके ही छोड़ दिया जाता है।[2] उनके घरों में अनाज के दाने बिखरे रहते हैं और उन्‍हें कौए तथा चूहे खाते हैं। वे दूध को बिना ढके छोड़ देते हैं और घी को जूठे हाथों से छू देते हैं। दैत्‍यों की गृहस्‍वामिनियाँ घर में इधर-उधर बिखरे हुए कुदाल, दराँती (या हँसुआ) पिटारी, काँसे के बर्तन तथा अन्‍य सब द्रव्‍यों और सामनों की देख-भाल नहीं करती हैं। उनके गाँवों और नगरों की चहारदिवारी तथा घर गिर जाते हैं; परंतु वे उसकी मरम्‍मत नहीं कराते हैं। दैत्‍यलोग पशुओं को घर में बाँध देते हैं, किंतु चारा और पानी देकर उनकी सेवा नहीं करते हैं।

छोटे बच्‍चे आशा लगाये देखते रहते हैं और दानव लोग खाने की चीजें स्‍वयं खा लेते हैं। सेवकों तथा अन्‍य सब कुटुम्‍बीजनों को भूखे छोड़कर अपने खा लेते हैं। खीर, खिचड़ी, मांस, पुआ और पूरी आदि भोजन वे सिर्फ अपने खाने के लिये बनवाते हैं तथा वे व्‍यर्थ ही मांस खाया करते हैं। अब वे सूर्योदय होने तक सोने लगे हैं। प्रात:काल को भी रात ही समझते हैं। उनके घर-घर में दिन रात कलह मचा रहता है। दानवों के यहाँ अनार्य वहाँ बैठे हुए आर्य पुरुष की सेवा में उपस्थित नहीं होते हैं। अधर्म परायण दैत्‍य आश्रमवासी महात्‍माओं से तथा आपस में भी द्वेष रखते हैं। अब उनके यहाँ वर्णसंकर संताने होने लगी हैं। किसी में पवित्रता नहीं रह गयी है। जो स्‍पष्ट ही वेद की एक ऋचा भी नहीं जानते हैं, उन दोनों में वे दैत्‍यलोग कोई अन्‍तर या विशेषता नहीं समझते हैं और न उनका मान या अपमान करने में ही कोई अन्‍तर रखते हैं। वहाँ की दासियाँ सुन्‍दर हार एवं अन्‍य आभूषण पहनकर मनोहर वेष धारण करतीं और दुराचारिणी स्त्रियों की भाँति चलती-फिरती, खड़ी होती और कटाक्ष करती हैं। साथ ही वे उस कुकृत्‍य को अपनाती हैं, जिसका आचरण दुराचारीजन करते हैं। क्रीडा, रति और विहार के अवसरों पर वहाँ की स्त्रियाँ पुरुष वेष धारण करके और पुरुष स्त्रियों का वेष बनाकर एक-दूसरे से मिलते और बड़े आनन्‍द का अनुभव करते हैं। कितने ही दानव पूर्वकाल में अपने पूर्वजों द्वारा सुयोग्‍य ब्राह्मणों को दान के रूप में दी हुई जागीरें नास्तिकता के कारण उनके पास रहने नहीं देते हैं यद्यपि वे अन्‍य सम्‍भव उपायों से जीवन निर्वाह कर सकते हैं तथापि उस दिये हुए दान को छीन लेते लेते हैं।[3]

कहीं धन के विषय में संशय उपस्थित होने पर अर्थात यह धन न्‍यायत: मेरा है या दूसरे का, यह प्रश्‍न खड़ा होने पर यदि उस धन का अधिकारी व्‍यक्ति अपने किसी मित्र से प्रार्थना करता है कि वह पंचायत द्वारा इस मामले को निपटा दे तो वह मित्र अपने बाल की नोक के बराबर स्‍वार्थ के लिये भी उस सम्‍पत्ति को चौपट कर देता है। दानवों के यहाँ जो व्‍यापारी हैं, वे सदा दूसरों का धन ठग लेते है तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्‍यों में शूद्र भी मिलकर तपोधन बन बैठे हैं। कुछ लोग बह्मचर्य व्रत का पालन किये बिना ही वेदों का स्‍वाध्‍याय करते हैं, कुछ लोग व्‍यर्थ (अवैदिक) व्रत का आचरण करते हैं। शिष्‍य गुरु की सेवा करना नहीं चाहता। कोई-कोई गुरु भी ऐसा है जो शिष्‍यों को दोस्‍त बनाकर रखता है। जब पिता और माता उत्‍सव शून्‍य की भाँति थक जाते हैं, तब घर में उनकी कोई प्रभुता नहीं रह जाती। वे दोनों बूढे़ दम्‍पति बेटों से अन्‍न की भीख माँगते हैं।[3] वहाँ जो वेदवेत्‍ता ज्ञानी तथा गम्‍भीरता में समुद्र के समान पुरुष हैं, वे तो खेती आदि कार्यों में संलग्‍न हो गये हैं और मूर्खलोग श्राद्धान्‍न खाते फिरते हैं। गुरुलोग प्रात:काल जाकर शिष्‍यों से पूछते हैं कि आपकी रात सुख से बीती है न ? इसके सिवा वे उन शिष्‍यों के वस्‍त्र आदि ठीक से पहनाते औरउनकी वेशभूषा सवारते हैं तथा उनकी ओर से कोई प्रेरणा न होने पर भी स्‍वयं ही उनके संदेशवाहक दूत आदि का कार्य करते हैं। सास-ससुर के सामने ही बहू सेवकों पर शासन करने लगी है। वह पति को भी आदेश देती है और सबके सामने पति को बुलाकर उससे बात करती है। पिता विशेष प्रयत्‍नपूर्वक पुत्र का मन रखते हैं। वे उनके क्रोध से डरकर सारा धन पुत्रों को बाँट देते हैं और स्‍वयं बड़े कष्ट से जीवन बिताते हैं। जिन्‍हें हितैषी और मित्र समझा जाता था, वे ही लोग जब अपने सम्‍बन्‍धी के धन को आग लगने, चोरी हो जाने अथवा राजा के द्वारा छिन जाने से नष्ट हुआ देखते हैं, तब द्वेषवश उसकी हँसी उड़ाते हैं। दैत्‍यगण, कृतघ्‍न, नास्तिक, पापाचारी तथा गुरुपत्‍नीगामी हो गये हैं। जो चीज नहीं खानी चाहिये, वे भी खाते और धर्म की मर्यादा तोड़कर मनमाने आचरण करते हैं। इसीलिये वे कान्तिहीन हो गये हैं। देवेन्‍द्र! जब से इन दैत्‍यों ने ये धर्म के विपरीत आचरण अपनाये हैं, तब से मैने यह निश्‍चय कर लिया है कि अब इन दानवों के घर में नही रहूँगी।[4]

लक्ष्मी का इंद्रसहित स्वर्गलोक जाना

शचीपते! देवेश्‍वर! इसीलिये मैं स्‍वयं तुम्‍हारे यहाँ आयी हूँ। तुम मेरा अभिनन्‍दन करो। तुमसे पूजित होने पर मुझे अन्‍य देवता भी अपने सम्‍मुख स्‍थापित (एवं सम्‍मानित) करेंगे। जहाँ मैं रहूँगी, वहाँ सात देवियाँ और निवास करेंगी, उन सबके आगे आठवीं जया देवी भी रहेंगी। ये आठो देवियाँ मुझे बहुत प्रिय हैं, मुझसे भी श्रेष्ठ हैं और मुझे आत्‍मसमर्पण कर चुकी हैं। पाकशासन! उन देवियों के नाम इस प्रकार हैं- आशा, श्रद्धा, धृति, शान्ति, विजिति, संनति, क्षमा और आठवी वृत्ति (जया)। ये आठवी देवी उन सातों की अग्रगामिनी हैं। वे देवियाँ और मैं सब के सब उन असुरों को त्‍यागकर तुम्‍हारे राज्‍य में आयी हैं। देवताओं की अन्‍तरात्‍मा धर्म में निष्ठा रखने वाली है; इसीलिये अब हमलोग इ‍न्‍हीं के यहाँ निवास करेंगी।

(भीष्‍म जी कहते हैं)- लक्ष्‍मीदेवी के इस प्रकार कहने पर देवर्षि नारद तथा वृत्रहन्‍ता इन्‍द्र ने उनकी प्रसन्‍नता के लिये उनका अभिनन्‍दन किया। उस समय देवमार्गों पर मनोरम गन्‍ध और सुखद स्‍पर्श से युक्‍त तथा सम्‍पूर्ण इन्द्रियों को आनन्‍द प्रदान करने वाले वायुदेव ,जो अग्निदेवता के मित्र हैं, मन्‍दगति से बहने लगे। उस परम पवित्र एवं मनोवांछित प्रदेश में राजलक्ष्‍मी सहित इन्‍द्रदेव का दर्शन करने के लिये प्राय: सभी देवता उपस्थित हो गये। तत्‍पश्‍चात्सहस्र नेत्रधारी सुरश्रेष्ठ इन्‍द्र लक्ष्‍मीदेवी तथा अपने सुहृद् महर्षि नारद के साथ हरे रंग के घोड़ों से जुते हुए रथ पर बैठकर स्‍वर्गलोक की राजधानी अमरावती में आये और देवताओं से सत्‍कृत हो उनकी सभा में गये। उस समय अमरों के पौरूष को प्रत्‍यक्ष देखने वाले देवर्षि नारद जी ने अन्‍य महर्षियों के साथ मिलकर वज्रधारी इन्‍द्र और लक्ष्‍मीदेवी के संकेत पर मन-ही-मन विचार करके वहाँ लक्ष्‍मीजी के शुभागमन की प्रशंसा की और उनका पदार्पण सम्‍पूर्ण लोकों के लिये मंगलकारी बताया।[4]

तदनन्‍तर निर्मल एवं प्रकाशपूर्ण आकाशमण्‍डल स्‍वयम्‍भू ब्रह्मा जी के भवन में अमृत की वर्षा करने लगा। देवताओं की दुन्‍दुभियाँ बिना बजाये ही बज उठीं तथा सम्‍पूर्ण दिशाएं स्‍वच्‍छ एवं प्रकाशित दिखायी देने लगीं। लक्ष्‍मी जी के स्‍वर्ग में पधारने पर इन्‍द्रदेव ऋतु के अनुसार संसार में लगी हुई खेती को सींचने के लिये समय पर वर्षा करने लगे। कोई भी धर्म के मार्ग से विचलित नहीं होता था तथा अनेक समुद्रों से विभूषित हुई पृथ्‍वी उन समुद्रों की गर्जना के रूप में त्रिभुवन वासियों की विजय के लिये मानो सुन्‍दर जयघोष करने लगी। उस समय मनस्‍वी मानव पुण्‍यवानों के मंगलमय पथ पर स्थित हो सत्‍कर्मों से परम सुन्‍दर शोभा पाने लगे तथा देवता, किन्‍नर, यक्ष, राक्षस और मनुष्‍य समृद्धिशाली एवं उदारचेता हो गये। उन दिनों अकाल मृत्‍यु की तो बात ही क्‍या है, प्रचण्‍ड पवन के वेगपूर्वक हिलाने से भी किसी वृक्ष से असमय में फूल तक नहीं गिरता था; फिर फल कहाँ से गिरेगा? सभी धेनुएं दुग्‍ध आदि रस देती थीं। वे इच्‍छानुसार दुग्‍ध दिया करती थीं। किसी के मुख से कभी कोई कठोर वचन नहीं निकलता था। सम्‍पूर्ण कामनाओं को देनेवाले इन्‍द्र आदि देवताओं द्वारा की हुई लक्ष्‍मीजी की इस पूजा अर्चना के प्रसंग को जो लोग ब्राह्मणों की सभा में आकर पढ़ते है, उनकी सारी कामनाएँ सम्‍पन्‍न होती हैं और वे लक्ष्‍मी भी प्राप्‍त कर लेते हैं। सम्‍पूर्ण कामनाओं को देनेवाले इन्‍द्र आदि देवताओं द्वारा की हुई लक्ष्‍मी जी की इस पूजा अर्चना के प्रसंग को जो लोग ब्राह्मणों की सभा में आकर पढ़ते हैं, उनकी सारी काँमनाएं सम्‍पन्‍न होती हैं और वे लक्ष्‍मी भी प्राप्‍त कर लेते है। कुरुश्रेष्ठ युधिष्ठिर! तुमने जो अभ्‍युदय पराभव का लक्षण पूछा था, वह सब मैंने आज यह उत्‍तम दृष्टान्‍त देकर बता दिया। तुम्‍हें स्‍वयं सोच विचार कर उसकी यथार्थता निश्‍चय करना चाहिये।[5]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 228 श्लोक 20-38
  2. 2.0 2.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 228 श्लोक 39-58
  3. 3.0 3.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 228 श्लोक 59-73
  4. 4.0 4.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 228 श्लोक 74-90
  5. महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 228 श्लोक 91-96

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राजधर्मानुशासन पर्व
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उत्तम-अधम ब्राह्मणों के साथ राजा का बर्ताव | केकयराजा तथा राक्षस का उपख्यान | केकयराजा की श्रेष्ठता का विस्तृत वर्णन | आपत्तिकाल में ब्राह्मण के लिए वैश्यवृत्ति से निर्वाह करने की छूट | लुटेरों से रक्षा के लिए शस्त्र धारण करने का अधिकार | रक्षक को सम्मान का पात्र स्वीकार करना | ऋत्विजों के लक्षण | यज्ञ और दक्षिणा का महत्व | तप की श्रेष्ठता | राजा के लिए मित्र और अमित्र की पहचान और उनके साथ नीतिपूर्ण बर्ताव | मन्त्री के लक्षणों का वर्णन | कुटुम्बीजनों में दलबंदी होने पर कुल के प्रधान पुरुष के कार्य | श्री कृष्ण और नारद जी का संवाद | मंत्रियों की परीक्षा तथा राजा और राजकीय मनुष्यों से सतर्कता | कालकवृक्षीय मुनि का उपख्यान | सभासद आदि के लक्षण | गुप्त सलाह सुनने के अधिकारी और अनधिकारी तथा गुप्त-मन्त्रणा की विधि एवं निर्देश | इन्द्र और वृहस्पति के संवाद में मधुर वचन बोलने का महत्व | राजा की व्यावहारिक नीति व मंत्रीमण्डल का संघटन | दण्ड का औचित्य तथा दूत व सेनापति के गुण | राजा के निवासयोग्य नगर एवं दुर्ग का वर्णन | प्रजापालन व्यवहार तथा तपस्वीजनों के समादर का निर्देश | राष्ट्र की रक्षा तथा वृद्धि के उपाय | प्रजा से कर लेने तथा कोश संग्रह करने का प्रकार | राजा के कर्तव्य का वर्णन | उतथ्य का मान्धाता को उपदेश | राजा के लिए धर्मपालन की आवश्यकता | उतथ्य के उपदेश में धर्माचरण का महत्व | राजा के धर्म का वर्णन | राजा के धर्मपूर्वक आचार के विषय में वामदेवजी का वसुमना को उपदेश | वामदेव जी के द्वारा राजोचित बर्ताव का वर्णन | वामदेव के उपदेश में राजा और राज्य के लिए हितकर वर्ताव | विजयाभिलाषी राजा के धर्मानुकूल बर्ताव तथा युद्धनीति का वर्णन | राजा के छलरहित धर्मयुक्त बर्ताव की प्रशंसा | शूरवीर क्षत्रियों के कर्तव्य तथा सद्नति का वर्णन | इन्द्र और अम्बरीष के संवाद में नदी और यज्ञ के रूपों का वर्णन | समरभूमि में जुझते हुए मारे जाने वाले शूरवीरों को उत्तम लोकों की प्राप्ति का कथन | शूरवीरों को स्वर्ग और कायरों को नरक की प्राप्ति | सैन्यसंचालन की रीति-नीति का वर्णन | भिन्न-भिन्न देश के योद्धाओं का स्वभाव व आचरण के लक्षण | विजयसूचक शुभाशुभ लक्षणों व बलवान सैनिकों का वर्णन | शत्रु को वश में करने के लिये राजा का नीति से काम लेना | दुष्टों को पहचानने के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | राज्य, खजाना और सेना से वंचित क्षेमदर्शी राजा को कालकवृक्षीय मुनि का उपदेश | कालकवृक्षीय मुनि के द्वारा गये हुए राज्य की प्राप्ति के लिए विभिन्न उपायों का वर्णन | कालकवृक्षीय मुनि का विदेहराज तथा कोसलराजकुमारों का मेल कराना | विदेहराज का कोसलराज को अपना जामाता बनाना | गणतन्त्र राज्य का वर्णन और उसकी नीति | माता-पिता तथा गुरु की सेवा का महत्त्व | सत्य-असत्य का विवेचन | धर्म के लक्षण व व्यावहारिक नीति का वर्णन | सदाचार और ईश्वरभक्ति को दु:खों से छुटने का उपाय | मनुष्य के स्वभाव की पहचान बताने वाली बाघ और सियार की कथा | तपस्वी ऊँट के आलस्य का कुपरिणाम और राजा का कर्तव्य | सरिताओं और समुद्र का संवाद | दुष्ट मनुष्य द्वारा की हुई निन्दा को सह लेने से लाभ | राजा तथा राजसेवकों के आवश्यक गुण | सज्जनों के चरित्र के विषय में महर्षि और कुत्ते की कथा | कुत्ते का शरभ की योनि से महर्षि के शाप से पुन: कुत्ता हो जाना | राजा के सेवक, सचिव आदि और राजा के गुणों व उनसे लाभ का वर्णन | सेवकों को उनके योग्य स्थान पर नियुक्त करने का वर्णन | सत्पुरुषों का संग्रह व कोष की देखभाल के लिए राजा को प्रेरणा देना | राजधर्म का साररूप में वर्णन | दण्ड के स्वरूप, नाम, लक्षण और प्रयोग का वर्णन | दण्ड की उत्पत्ति का वर्णन | दण्ड का क्षत्रियों कें हाथ में आने की परम्परा का वर्णन | त्रिवर्ग के विचार का वर्णन | पाप के कारण राजा के पुनरुत्थान के विषय में आंगरिष्ठ और कामन्दक का संवाद | इन्द्र और प्रह्लाद की कथा | शील का प्रभाव, अभाव में धर्म, सत्य, सदाचार और लक्ष्मी के न रहने का वर्णन | सुमित्र और ऋषभ ऋषि की कथा | राजा सुमित्र का मृग की खोज में तपस्वी मुनियों के आश्रम पर पहुँचना | सुमित्र का मुनियों से आशा के विषय में प्रश्न करना | ऋषभ का सुमित्र को वीरद्युम्न व तनु मुनि का वृतान्त सुनाना | तनु मुनि का वीरद्युम्न को आशा के स्वरूप का परिचय देना | ऋषभ के उपदेश से सुमित्र का आशा को त्याग देना | यम और गौतम का संवाद | आपत्ति के समय राजा का धर्म

आपद्धर्म पर्व

आपत्तिग्रस्त राजा के कर्त्तव्य का वर्णन | ब्राह्मणों और श्रेष्ठ राजाओं के धर्म का वर्णन | धर्म की गति को सूक्ष्म बताना | राजा के लिए कोश संग्रह की आवश्यकता | मर्यादा की स्थापना और अमर्यादित दस्युवृत्ति की निन्दा | बल की महत्ता और पाप से छूटने का प्रायश्रित्त | मर्यादा का पालन करने वाले कायव्य दस्यु की सद्गति का वर्णन | राजा के द्वारा किसका धन लेने व न लेने तथा कैसे बर्ताव करे इसके विचार का वर्णन | शत्रुओं से घिरे राजा के कृर्त्तव्य का वर्णन | राजा के कृर्त्तव्य के विषय में बिडाल व चूहे का आख्यान | शत्रु से सावधान रहने के विषय में राजा ब्रह्मदत्त और पूजनी चिड़िया का संवाद | भारद्वाज कणिक का सौराष्ट्रदेश के राजा को कूटनीति का उपदेश | विश्वामित्र और चाण्डाल का संवाद | आपत्काल में धर्म का निश्चय | उत्तम ब्राह्मणों के सेवन का आदेश | बहेलिये और कपोत-कपोती का प्रसंग | कबूतर द्वारा अपनी भार्या का गुणगान व पतिव्रता स्त्री की प्रशंसा | कबूतरी का कबूतर से शरणागत व्याध की सेवा के लिए प्रार्थना | कबूतर द्वारा अतिथि-सत्कार और अपने शरीर का बहेलिये के लिए परित्याग | बहेलिये का वैराग्य | कबूतरी का विलाप और अग्नि में प्रवेश कर उन दोनों को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | बहेलिये को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | इन्द्रोत मुनि का जनमेजय को फटकारना | जनमेजय का इन्द्रोत मुनि की शरण में जाना | इन्द्रोत का जनमेजय को शरण देना | इन्द्रोत का जनमेजय को धर्मोपदेश देना | ब्राह्मण बालक के जीवित होने की कथा | नारद जी का सेमल वृक्ष से प्रश्न | नारद जी का सेमल को उसका अहंकार देखकर फटकारना | वायु का सेमल को धमकाना और सेमल का विचारमग्न होना | सेमल का हार स्वीकार कर बलवान के साथ वैर न करने का उपदेश | समस्त अनर्थो का कारण लोभ को बताकर उसने होने वाले पापों का वर्णन | श्रेष्ठ महापुरुषों के लक्षण | अज्ञान और लोभ को ही समस्त दोषों का कारण सिद्ध करना | मन और इंद्रियों के संयम रूप दम का माहात्म्य | तप की महिमा | सत्य के लक्षण, स्वरूप और महिमा का वर्णन | काम, क्रोध आदि दोषों का निरूपण व नाश का उपाय | नृशंस अर्थात अत्यन्त नीच पुरुष के लक्षण | नाना प्रकार के पापों और प्रायश्रितों का वर्णन | खड्ग की उत्पत्ति और प्राप्ति व महिमा का वर्णन | धर्म, अर्थ और काम के विषय में विदुर व पाण्डवों के पृथक-पृथक विचार | अन्त में युधिष्ठिर का निर्णय | मित्र बनाने व न बनाने योग्य पुरुषों के लक्षण | कृतघ्न गौतम की कथा का आरम्भ | गौतम का समुद्र की ओर प्रस्थान व बकपक्षी के घर पर अतिथि होना | गौतम का आतिथ्यसत्कार व विरूपाक्ष के भवन में प्रवेश | गौतम का राक्षसराज के यहाँ से सुर्वणराशि लेकर लौटना | गौतम का अपने मित्र बक के वध का विचार मन में लाना | कृतघ्न गौतम द्वारा राजधर्मा का वध | राक्षसों द्वार कृतघ्न की हत्या व उसके माँस को अभक्ष्य बताना | राजधर्मा और गौतम का पुन: जीवित होना

मोक्षधर्म पर्व

शोकाकुल चित्त की शांति के लिए सेनजित और ब्राह्मण संवाद | पिता के प्रति पुत्रद्वारा ज्ञान का उपदेश | त्याग की महिमा के विषय में शम्पाक का उपदेश | धन की तृष्णा से दु:ख का वर्णन | धन के त्याग से परम सुख की प्राप्ति | जनक की उक्ति तथा राजा नहुष के प्रश्नों के उत्तर मे बोध्यगीता | प्रह्लाद और अवधूत का संवाद | आजगर वृत्ति की प्रशंसा का वर्णन | काश्यप ब्राह्मण और इन्द्र का संवाद | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम कर्ता को भोगने का प्रतिपादन | भरद्वाज और भृगु के संवाद में जगत की उत्पत्ति का वर्णन | आकाश से अन्य चार स्थूल भूतों की उत्पत्ति का वर्णन | पंचमहाभूतों के गुणों का विस्तारपूर्वक वर्णन | शरीर के भीतर जठरानल आदि वायुओं की स्थिति का वर्णन | जीव की सत्ता पर अनेक युक्तियों से शंका उपस्थित करना | जीव की सत्ता तथा नित्यता को युक्तियों से सिद्ध करना | मनुष्यों की और समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन | कर्मो का और सदाचार का वर्णन | वैराग्य से परब्रह्मा की प्राप्ति | सत्य की महिमा, असत्य के दोष व लोक और परलोक के सुख-दु:ख का विवेचन | ब्रह्मचर्य और गार्हस्थ्य आश्रमों के धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास धर्मों का वर्णन | हिमालय के उत्तर में स्थित लोक की विलक्षणता व महत्ता का प्रतिपादन | भृगु और भरद्वाज के संवाद का उपसंहार | शिष्टाचार का फलसहित वर्णन | पाप को छिपाने से हानि और धर्म की प्रशंसा | अध्यात्मज्ञान का निरूपण | ध्यानयोग का वर्णन | जपयज्ञ के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | जप और ध्यान की महिमा और उसका फल | जापक में दोष आने के कारण उसे नरक की प्राप्ति | जापक के लिए देवलोक भी नरक तुल्य इसके प्रतिपादन का वर्णन | जापक को सावित्री का वरदान | धर्म, यम और काल का आगमन | राजा इक्ष्वाकु और ब्राह्मण का संवाद | सत्य की महिमा तथा जापक की गति का वर्णन | ब्राह्मण और इक्ष्वाकु की उत्तम गति का वर्णन | जापक को मिलने वाले फल की उत्कृष्टता | मनु द्वारा कामनाओं के त्याग एवं ज्ञान की प्रशंसा | परमात्मतत्त्व का निरूपण | आत्मतत्त्व और बुद्धि आदि पदार्थों का विवेचन | साक्षात्कार का उपाय | शरीर, इन्द्रिय और मन-बुद्धि से आत्मा की सत्ता का प्रतिपादन | आत्मा व परमात्मा के साक्षात्कार का उपाय तथा महत्त्व | परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | मनु बृहस्पति संवाद की समाप्ति | श्री कृष्ण से सम्पूर्ण भूतों की उत्पत्ति | श्री कृष्ण की महिमा का कथन | ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन | प्रत्येक दिशा में निवास करने वाले महर्षियों का वर्णन | विष्णु का वराहरूप में प्रकट हो देवताओं की रक्षा और दानवों का विनाश | नारद को अनुस्मृतिस्तोत्र का उपदेश | नारद द्वारा भगवान की स्तुति | श्री कृष्ण सम्बन्धी अध्यात्मतत्तव का वर्णन | संसारचक्र और जीवात्मा की स्थिति का वर्णन | निषिद्ध आचरण के त्याग आदि के परिणाम तथा सत्त्वगुण के सेवन का उपदेश | जीवोत्पत्ति के दोष और बंधनों से मुक्त तथा विषय शक्ति के त्याग का उपदेश | ब्रह्मचर्य तथा वैराग्य से मुक्ति | आसक्ति छोड़कर सनातन ब्रह्म की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने के उपदेश | स्वप्न और सुषुप्ति-अवस्था में मन की स्थिति का वर्णन | गुणातीत ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | सच्चिदान्नदघन परमात्मा, दश्यवर्ग प्रकृति और पुरुष उन चारों के ज्ञान से मुक्ति का वर्णन | परमात्मा प्राप्ति के अन्य साधनों का वर्णन | राजा जनक के दरबार में पञ्चशिख का आगमन | नास्तिक मतों के निराकरणपूर्वक शरीर से भिन्न आत्मा की नित्य सत्ता का प्रतिपादन | पञ्चशिख के द्वारा मोक्षतत्त्व के विवेचन का वर्णन | विष्णु द्वारा मिथिलानरेश जनकवंशी जनदेव की परीक्षा और उनके के लिए वर प्रदान | श्वेतकेतु और सुवर्चला का विवाह | पति-पत्नी का अध्यात्मविषयक संवाद | दम की महिमा का वर्णन | व्रत, तप, उपवास, ब्रह्मचर्य तथा अतिथि सेवा का विवेचन | सनत्कुमार का ऋषियों को भगवत्स्वरूप का उपदेश | इंद्र और प्रह्लाद का संवाद | इन्द्र के आक्षेप युक्त वचनों का बलि के द्वारा कठोर प्रत्युत्तर | बलि और इन्द्र का संवाद | बलि द्वारा इन्द्र को फटकारना | इन्द्र और लक्ष्मी का संवाद | बलि को त्यागकर आयी हुई लक्ष्मी की इन्द्र के द्वारा प्रतिष्ठा | इन्द्र और नमुचि का संवाद | काल और प्रारब्ध की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी का दैत्यों को त्यागकर इन्द्र के पास आना | सद्गुणों पर लक्ष्मी का आना व दुर्गुणों पर त्यागकर जाने का वर्णन | जैगीषव्य का असित-देवल को समत्वबुद्धि का उपदेश | श्रीकृष्ण और उग्रसेन का संवाद | शुकदेव के प्रश्नों के उत्तर में व्यास जी द्वारा काल का स्वरूप बताना | व्यास जी का शुकदेव को सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम तथा युगधर्मों का उपदेश | ब्राह्मप्रलय एंव महाप्रलय का वर्णन | ब्राह्मणों का कर्तव्य और उन्हें दान देने की महिमा का वर्णन | ब्राह्मण के कर्तव्य का प्रतिपादन करते हुए कालरूप नद को पार करने का उपाय | ध्यान के सहायक योग | फल और सात प्रकार की धारणाओं का वर्णन | मोक्ष की प्राप्ति | सृष्टि के समस्त कार्यों में बुद्धि की प्रधानता | प्राणियों की श्रेष्ठता के तारतम्य का वर्णन | नाना प्रकार के भूतों की समीक्षापूर्वक कर्मतत्त्व का विवेचन | युगधर्म का वर्णन एवं काल का महत्त्व | ज्ञान का साधन और उसकी महिमा | योग से परमात्मा की प्राप्ति का वर्णन | कर्म और ज्ञान का अन्तर | ब्रह्मप्राप्ति के उपाय का वर्णन | ब्रह्मचर्य-आश्रम का वर्णन | गार्हस्थ्य-धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रम के धर्म और महिमा का वर्णन | संन्यासी के आचरण | ज्ञानवान संन्यासी का प्रशंसा | परमात्मा की श्रेष्ठता व दर्शन का उपाय | ज्ञानमय उपदेश के पात्र का निर्णय | महाभूतादि तत्त्वों का विवेचन | बुद्धि की श्रेष्ठता और प्रकृति-पुरुष-विवेक | ज्ञान के साधन व ज्ञानी के लक्षण और महिमा | परमात्मा की प्राप्ति का साधन | ज्ञान से ब्रह्म की प्राप्ति | ब्रह्मवेत्ता के लक्षण व परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | शरीर में पंचभूतों के कार्य व गुणों की पहचान | जीवात्मा और परमात्मा का योग द्वारा साक्षात्कार | कामरूपी अद्भुत वृक्ष व शरीर रूपी नगर का वर्णन | मन और बुद्धि के गुणों का विस्तृत वर्णन | युधिष्ठिर का मृत्युविषयक प्रश्न व ब्रह्मा की रोषाग्नि से प्रजा के दग्ध होने का वर्णन | ब्रह्मा के द्वारा रोषाग्नि का उपसंहार व मृत्यु की उत्पत्ति | मृत्यु की तपस्या व प्रजापति की आज्ञा से मृत्यु का प्राणियों के संहार का कार्य स्वीकार करना | धर्माधर्म के स्वरूप का निर्णय | युधिष्ठिर का धर्म की प्रमाणिकता पर संदेह उपस्थित करना | जाजलि की घोर तपस्या व जटाओं में पक्षियों का घोंसला बनाने से उनका अभिमान | आकाशवाणी की प्रेरणा से जाजलि का तुलाधार वैश्य के पास जाना | जाजलि और तुलाधार का धर्म के विषय में संवाद | जाजलि को तुलाधार का आत्मयज्ञविषयक धर्म का उपदेश | जाजलि को पक्षियों का उपदेश | राजा विचख्नु के द्बारा अहिंसा-धर्म की प्रशंसा | महर्षि गौतम और चिरकारी का उपाख्यान | दीर्घकाल तक सोच-विचारकर कार्य करने की प्रशंसा | द्युमत्सेन और सत्यवान का संवाद | अहिंसापूर्वक राज्यशासन की श्रेष्ठता का कथन | स्यूमरश्मि और कपिल का संवाद | प्रवृत्ति एवं निवृत्तिमार्ग के विषय में स्यूमरश्मि व कपिल संवाद | चारों आश्रमों में उत्तम साधनों के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति का कथन | ब्रह्मण और कुण्डधार मेघ की कथा | यज्ञ में हिंसा की निंदा और अहिंसा की प्रशंसा | धर्म, अधर्म, वैराग्य और मोक्ष के विषय में युधिष्ठिर के प्रश्न | मोक्ष के साधन का वर्णन | नारद और असितदेवल का संवाद | तृष्णा के परित्याग के विषय में माण्डव्य मुनि और जनक का संवाद | पिता और पुत्र का संवाद | हारित मुनि के द्वारा आचरण व धर्मों का वर्णन | ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | ब्रह्म की प्राप्ति के विषय में वृत्र और शुक्र का संवाद | वृत्रासुर को सनत्कुमार का आध्यात्मविषयक उपदेश | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर की शंका निवारण | इन्द्र और वृत्रासुर के युद्ध का वर्णन | वृत्रासुर के वध से प्रकट हुई ब्रह्महत्या का ब्रह्मा जी के द्वारा चार स्थानों में विभाजन | शिवजी के द्वारा दक्ष के यज्ञ का भंग | शिवजी के क्रोध से ज्वर की उत्पत्ति व उसके विविध रूप | पार्वती के रोष के निवारण के लिए शिव द्वारा दक्ष-यज्ञ का विध्वंस | महादेव जी का दक्ष को वरदान | स्तोत्र की महिमा | अध्यात्म ज्ञान और उसके फल का वर्णन | समंग द्वारा नारद जी से अपनी शोकहीन स्थिति का वर्णन | नारद जी द्वारा गालव मुनि को श्रेय का उपदेश | अरिष्टनेमि का राजा सगर को मोक्षविषयक उपदेश | उशना का चरित्र | उशना को शुक्र नाम की प्राप्ति | पराशर मुनि का राजा जनक को कल्याण की प्राप्ति के साधन का उपदेश | कर्मफल की अनिवार्यता | कर्मफल से लाभ | धर्मोपार्जित धन की श्रेष्ठता, व अतिथि-सत्कार का महत्त्व | गुरुजनों की सेवा से लाभ | सत्संग की महिमा व धर्मपालन का महत्त्व | ब्राह्मण और शूद्र की जीविका | मनुष्यों में आसुरभाव की उत्पत्ति व शिव के द्वारा उसका निवारण | विषयासक्त मनुष्य का पतन | तपोबल की श्रेष्ठता व दृढ़तापूर्वक स्वधर्मपालन का आदेश | वर्ण विशेष की उत्पत्ति का रहस्य | हिंसारहित धर्म का वर्णन | धर्म व कर्तव्यों का उपदेश | राजा जनक के विविध प्रश्नों का उत्तर | ब्रह्मा को साध्यगणों को उपदेश | योगमार्ग के स्वरूप, साधन, फल और प्रभाव का वर्णन | सांख्ययोग के अनुसार साधन का वर्णन | सांख्ययोग के फल का वर्णन | वसिष्ठ और करालजनक का संवाद | प्रकृति-संसर्ग के कारण जीव का बारंबार जन्म ग्रहण करना | प्रकृति के संसर्ग दोष से जीव का पतन | क्षर-अक्षर एवं प्रकृति-पुरुष के विषय में राजा जनक की शंका | योग और सांख्य के स्वरूप का वर्णन तथा आत्मज्ञान से मुक्ति | विद्या-अविद्या व पुरुष के स्वरूप के उद्गार का वर्णन | वसिष्ठ व जनक संवाद का उपसंहार | जनकवंशी वसुमान को मुनि का धर्मविषयक उपदेश | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश | इन्द्रियों में मन की प्रधानता का प्रतिदान | संहार क्रम का वर्णन | अध्यात्म व अधिभूत वर्णन तथा राजस और तामस के भावों के लक्षण | राजा जनक के प्रश्न | प्रकृति पुरुष का विवेक और उसका फल | योग का वर्णन व उससे परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति | मृत्यु सूचक लक्षण व मृत्यु को जीतने का उपाय | याज्ञयवल्क्य द्वारा सूर्य से वेदज्ञान की प्राप्ति का प्रसंग सुनाना | विश्वावसु को जीवात्मा और परमात्मा की एकता के ज्ञान का उपदेश देना | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश देकर विदा होना | पञ्चशिख और जनक का संवाद | सुलभा का राजा जनक के शरीर में प्रवेश करना | राजा जनक का सुलभा पर दोषारोपण करना | सुलभा का राजा जनक को अज्ञानी बताना | व्यास जी का शुकदेव को धर्मपूर्ण उपदेश देते हुए सावधान करना | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम का वर्णन | शंकर द्वारा व्यास को पुत्रप्राप्ति के लिये वरदान देना | शुकदेव की उत्पति तथा संस्कार का वृतान्त | पिता की आज्ञा से शुकदेव का मिथिला में जाना | शुकदेव का ध्यान में स्थित होना | राजा जनक द्वारा शुकदेव जी का पूजन तथा उनके प्रश्न का समाधान | जनक द्वारा बह्मचर्याश्रम में परमात्मा की प्राप्ति | शुकदेव द्वारा मुक्त पुरुष के लक्षणों का वर्णन | शुकदेव का पिता के पास लौट आना


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