विरह-पदावली -सूरदास
(138) (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है- सखी!) हमारे नेत्र रात-दिन वर्षा करते हैं; (क्योंकि) जब से श्यामसुन्दर यहाँ से चले गये हैं, तब से हमारे निकट सदा वर्षा-ऋतु ही रहती है। आँखों में (लगाया गया) अंजन रात या दिन में कभी टिक नहीं पाता, अतः हथेलियाँ और कपोल काले हो गये हैं और न कंचुकी (चोली) का वस्त्र कभी सूखने पाता है; क्योंकि वक्षःस्थल के बीच से (अश्रु की) धारा बहती रहती है। पूरा शरीर ही आँसू का जल हो गया है और एक पल को भी (दूर करने का प्रयत्न करने पर भी जिसे) क्रोधपूर्वक हटाया नहीं जा पाता। स्वामी! (हमें) यही दुःख (पश्चाताप) है कि आपने गोकुल को विस्मृत क्यों कर दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (138) इस पद की पाँचवी पंक्ति के सूरसागर की विविध हस्तलिखित और मुद्रित प्रतियों में कई पाठ-भेद मिलते हैं, जिनमें मुख्य हैं-
अँसुवा सलिल भए पग थाके, बहे जात सित तारे।'
यह पाठ सर्वविदित और सूरसागर की एक-दो प्रतियों को छोड़कर प्राय: सभी प्रतियों को मान्य है। अर्थ की दृष्टि से भी पूर्व (चौथी) पंक्ति को देखते हुए ऊपर लिखा पाठ ही उचित प्रतीत होता है, किंतु एक बार 'गीताप्रेस' गोरखपुर में ही कल्याण के सुप्रसिद्ध सम्पादक मान्यवर श्रीपोद्दार जी ने इस टिप्पणी-लेखक के सम्मुख एक दूसरा सुंदर पाठ रखा था, जैसे-
'अँसुवा सलिल बहे पग थाके, भए जात सित तारे।'
यह पाठ भी अर्थ की समृद्धि से भरपूर है, जिसके लिए पोद्दार जी धन्यवाद के विशेष अधिकारी है, परन्तु- 'काशीनागरी प्रचारणी- सभा' से प्रकाशित सूर-सागर के विद्वान सम्पादक ने 'आँसू-सलिल सबै भइ काया, पल न जात रिस टारे।' उपयुक्त पाठ जो व्रजवासी की परम्परा से दूर है, कहाँ (कौन सी प्रति) से और कैसे लिया- यह अज्ञात है। इसी प्रकार पंक्ति का पाठ भी- 'सदा रहित 'वरषा' रितु. कुछ ठीक प्रयुक्त नही है; क्योंकि यहाँ भी सूरसागर की सभी प्रतियों में- सदाँ रहत 'पावस' रितु. ही पाठ है, जो उचित है और शव्द-मैत्री से भी युक्त है। ज. च.।
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