- महाभारत शान्ति पर्व में मोक्षधर्म पर्व के अंतर्गत 199वें अध्याय में सत्य की महिमा तथा जापक की गति का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]
विषय सूची
सत्य की महिमा
ब्राह्मण कहता हैं- राजन! आपने स्वयं यहाँ आकर मुझसे जप के फल की याचना की है और मैंने उसे आपके लिये दे दिया है अत: आप उसे ग्रहण करें और सत्य पर डटे रहें। जो झूठ बोलने वाला हैं, उस मनुष्य को न इस लोक में सुख मिलता है और न परलोक में ही। वह अपने पूर्वजों को भी नहीं तार सकता; फिर भविष्य में होने वाली संतति का उद्धार तो कर ही कैसे सकता है? पुरुषश्रेष्ठ! परलोक में सत्य जिस प्रकार जीवों का उद्धार करता है, उस प्रकार यज्ञ, वेदाध्ययन, दान और नियम भी नहीं तार सकते हैं। लोगों ने अब तक जितनी तपस्याएँ की हैं और भविष्य में भी जितनी करेंगे, उन सबको सौगुना या लाखगुना करके एकत्र किया जाए जो भी उनका महत्व सत्य से बढ़कर नही सिद्ध होगा। सत्य ही एकमात्र अविनाशी ब्रह्म है। सत्य ही एकमात्र अक्षय तप है, सत्य ही एकमात्र अविनाशी यज्ञ है, सत्य ही एकमात्र नाशरहित सनातन वेद है। वेदों में सत्य ही जागता हैं- उसी की महिमा बतायी गयी है। सत्य का ही सबसे श्रेष्ठ फल माना गया है। धर्म और इन्द्रिय-संयम की सिद्धि भी सत्य से ही होती है। सत्य के ही आधार पर सब कुछ टिका हुआ है। सत्य ही वेद और वेदांग है। सत्य ही विद्या तथा विधि है। सत्य ही व्रतचर्या तथा सत्य ही ओंकार है। सत्य प्राणियों को जन्म देनेवाल (पिता) है, सत्य ही संतति है, सत्य से ही वायु चलती है और सत्य से ही सूर्य तपता है।[1] सत्य से ही आग जलती है तथा सत्य पर ही स्वर्गलोक प्रतिष्ठित हैं। यज्ञ, तप, वेद, स्तोभ, मन्त्र और सरस्वती सब सत्य के ही स्वरूप हैं। मैंने सुना है कि किसी समय धर्म और सत्य को तराजू पर, जिसके दोनो पलड़े बराबर थे, रखा और तौला गया; उस समय जिस और सत्य था, उधर का ही पलड़ा भारी हुआ। जहाँ धर्म है वहाँ सत्य है। सत्य से ही सबकी वृद्धि होती है।[2]
राजा और ब्राह्मण में संवाद
राजन! आप क्यों असत्यपूर्ण बर्ताव करना चाहते हैं? महाराज! आप सत्य में ही मन को स्थिर कीजिये। मिथ्यापूर्ण बर्ताव न कीजिये। यदि लेना ही नहीं था तो आपने 'दीजिये' यह झूठा और अशुभ वचन क्यों मुँह से निकाला था। नरेश्वर! यदि आप मेरे दिये हुए इस जप के फल को नहीं स्वीकार करेंगे तो धर्मभ्रष्ट होकर सम्पूर्ण लोकों में भटकते फिरेंगे। जो पहले देने की प्रतिज्ञा करके फिर देना नहीं चाहता तथा जो याचना तो करता है, किंतु मिलने पर उसे लेना नहीं चाहता, वे दोनों ही मिथ्यावादी होते हैं; अत: आप अपनी और मेरी भी बात मिथ्या न कीजिये। राजा ने कहा- ब्राह्मन! क्षत्रिय का धर्म तो प्रजा की रक्षा और युद्ध करना है। क्षत्रियों को दाता कहा गया है; फिर मैं उलटे ही आपसे दान कैसे ले सकता हूँ? ब्राह्मण ने कहा- राजन! दान लेने के लिये मैने आपसे अनुरोध या आग्रह नहीं किया था और न मैं देने के लिये आपके घर ही गया था। आपने स्वयं यहाँ आकर याचना की है; फिर लेने से कैसे इनकार करते है?
धर्म बोले- आप दोनों में विवाद न हो। आपको विदित होना चाहिये कि मैं साक्षात धर्म यहाँ आया हूँ। ब्राह्मण देवता दान के फल से युक्त हो जायँ और राजा भी सत्य के फल से सम्पन्न हों। स्वर्ग बोला- राजेन्द्र! आपको विदित हो कि मैं स्वर्ग हूँ और स्वयं ही शरीर धारण करके यहाँ आया हूँ। आप दोनों में विवाद न हो। आप दोनों समान फल के भागी हों।
राजा ने कहा- मुझे स्वर्ग की कोई आवश्यकता नहीं है। स्वर्ग! तुम जैसे आये थे, वैसे ही लौट जाओ। यदि ये ब्राह्मण देवता स्वर्ग में जाना चाहते हों तो मेरे किये हुए पुण्यफल को ग्रहण करें। ब्राह्मण ने कहा- यदि बाल्यावस्था में अज्ञानवश मैंने कभी किसी के सामने हाथ फैलाया हो तो उसका मुझे स्मरण नहीं है; परंतु अब तो संहिता गायत्री मन्त्र का जप करता हुआ निवृत्ति धर्म की उपासना करता हूँ। राजन! मैं निवृत्ति मार्ग का पथिक हूँ, आप बहुत देर से मुझे लुभाने का प्रयत्न क्यों करते हैं? नरेश्वर! मैं स्वयं ही अपना कर्तव्य करूँगा, आपसे कोई फल नहीं लेना चाहता। मैं प्रतिग्रह से निवृत्त होकर तप और स्वाध्याय में लगा हुआ हूँ। राजा ने कहा- विप्रवर! यदि आपने अपने जप को उत्तम फल दे ही दिया है तो ऐसा कीजिये कि हम दोनों के जो भी पुण्यफल हों, उन्हें एकत्र करके हम दोनों साथ ही भोगें। हम दोनों का उन पर समान अधिकार रहे। ब्राह्मणों को दान लेने का अधिकार है और क्षत्रिय केवल दान देते हैं, लेते नहीं; यह धर्म आपने भी सुना होगा; अत: विप्रवर! हम दोनों के कार्य का फल साथ ही हम दोनों के उपयोग में आवे।[2] अथवा यदि आपकी इच्छा न हो तो हमें साथ रहकर कर्म फल भोगने की आवश्यकता नहीं है। उस अवस्था में मैं यही प्रार्थना करूँगा कि यदि आपका मुझ पर अनुग्रह हो तो आप ही मेरे शुभकर्मो का पूरा-पूरा फल ग्रहण कर लें। मैंने जो कुछ भी धर्म किया है, वह सब आप स्वीकार कर लें।[3]
विकृत और विरूप का संवाद
भीष्म्ा जी कहते हैं- राजन! इसी समय वहाँ विकराल वेषधारी दो पुरुष उपस्थित हुए। दोनों एक दूसरे को पकड़कर अपने हाथों से आवेष्टित कर रखा था। दोनों के शरीर पर मैले वस्त्र थे (उनमें से एक का नाम विकृत था और दूसरे का नाम विरूप) वे दोनों बारंबार इस प्रकार कह रहे थे। एक ने कहा- भाई! तुम्हारे ऊपर मेरा कोई ऋण नहीं है। दूसरा कहता- नहीं, मैं तुम्हारा ऋणी हूँ। पहले ने कहा- यहाँ जो हम दोनों का विवाद है, इसका निर्णय ये सबका शासन करने वाले राजा करेंगे। दूसरा बोला- मैं सच कहता हूँ कि तुम पर मेरा कोई ऋण नहीं है। पहले ने कहा- तूम झूठ बोलते हो। मुझ पर तुम्हारा ऋण है। तब वे दोनों अत्यन्त संतप्त होकर राजा से इस प्रकार बोले- आप हमारे मामले की जाँच-पड़ताल करके फैसला कर दें, जिससे हम दोनों यहाँ दोष के भागी और निन्दा के पात्र न हों। विरूप बोला- पुरुषसिंह! मैं विकृत के एक गोदान का फल ऋण के तौर पर अपने यहाँ रखता हूँ। पृथ्वीनाथ! उस ऋण को आज मैं दे रहा हूँ; परंतु यह विकृत ले नहीं रहा है। विकृत ने कहा- नरेश्वर! इस विरूप पर मेरा कोई ऋण नहीं हैं। यह आपसे झूठ बोलता है। इसकी बात में सत्य का आभासमात्र है।
राजा का विकृत और विरूप से संवाद
राजा बोले- विरूप! तुम्हारे ऊपर विकृत का कौन सा ऋण है। बताओ, मैं उसे सुनकर कोई निर्णय करूँगा। मेरे मन का ऐसा ही निश्चय हैं।
विरूप बोला- राजन! नरेश्वर! आप सावधान होकर सुने, राजर्षे! इस विकृत का ऋण जिस प्रकार मैं धारण करता हूँ, वह सब पूर्णरूप से बता रहा हूँ। निष्पाप राजर्षे! इसने धर्म की प्राप्ति के लिये एक तपस्वी और स्वाध्यायशील ब्राह्मण को एक दूध देनेवाली उत्तम गाय दी थी। राजन! मैंने इसके घर जाकर इससे उसी गोंदान का फल माँगा था और विकृत ने शुद्ध हृदय से मुझे वह दे दिया था। तदनन्तर मैने भी अपनी शुद्धि के लिये पुण्यकर्म किया। राजन! दो अधिक दूध देनेवाली कपिला गौएँ, जिनके साथ उनके बछड़े भी थे, खरीदकर उन्हें मैंने एक उच्छ वृत्ति वाले ब्राह्मण को विधि और श्रद्धापूर्वक दे दिया। प्रभो! उसी गोदान का फल मैं पुन: इसे वापस करना चाहता हूँ। पुरुषसिंह! इससे एक गोदान का फल लेकर आज मैं इसे दूना फल लौटा रहा हूँ। ऐसी परिस्थिति में आप स्वयं निर्णय कीजिये कि हम दोनों में से कौन शुद्ध है और कौन दोषी? नरेश्वर! इस प्रकार आप में विवाद करते हुए हम दोनों यहाँ आपके समीप आये हैं। आप निर्णय कीजिये। अब आप चाहे न्याय करें या अन्याय। इस झगड़े का निपटारा कर दें। हम दोनों को विशिष्ट न्याय के मार्ग पर लगा दें। इसने जिस तरह मुझे दान दिया है, उसी तरह यदि स्वयं भी मुझसे लेना नहीं चाहता है तो आप स्वयं सुस्थिर होकर हम दोनों को धर्म के मार्ग पर स्थापित कर दें।[3]
राजा ने कहा- विकृत! जब विरूप तुम्हें तुम्हारा दिया हुआ ऋण लौटा रहा है, तब तुम उसे आज ग्रहण क्यो नहीं करते? जैसे इसने तुम्हारी दी हुई वस्तु स्वीकार कर ली थी, उसी प्रकार तुम भी इसकी दी हुई वस्तु को ले लो। विलम्ब न करो। विकृत बोला- राजन! विरूप ने अभी आपसे कहा हैं कि मैं ऋण धारण करता हूँ; परंतु मैंने उस समय 'दान' कह करके वह वस्तु इसे दी थी; इसलिये इसके ऊपर मेरा कोई ऋण नहीं है। अब यह जहाँ जाना चाहे, जा सकता है। राजा ने कहा- विकृत! यह तुम्हें तुम्हारी वस्तु दे रहा है और तुम लेते नहीं हो। यह मुझे अनुचित जान पड़ता है; अत: मेरे मत में तुम दण्डनीय हो; इसमें कोई संशय नहीं है। विकृत बोला- राजर्षे! मैंने इसे दान दिया था; फिर वह दान इससे वापस कैसे ले लूँ। भले, इसमें मेरा अपराध समझा जाय; परंतु मैं दिया हुआ दान वापस नहीं ले सकता। प्रभो! मुझे दण्ड भोगने की आज्ञा प्रदान करें। विरूप ने कहा- विकृत! यदि तुम मेरी दी हुई वस्तु स्वीकार नहीं करोगे तो ये धर्मपूर्ण शासन करने वाले नरेश तुम्हें कैंद कर लेंगे। विकृत बोला- तुम्हारे माँगने पर मैंने अपना धन दान के रूप में दिया था; फिर आज उसे वापस कैसे ले सकता हूँ? तुम्हारे ऊपर मेरा कुछ भी पावना नहीं है। मैं तुम्हें जाने के लिये आज्ञा देता हूँ, तुम जाओ।[4]
राजा और ब्राह्मण में पुन: संवाद और विरूप का उन्हें समझाना
इसी बीच में जापक ब्राह्मण बोल उठा- राजन! आपने इन दोनों की बातें सुन ली। मैंने आपको देने के लिये जो प्रतिज्ञा की है, उसके अनुसार आप मेरा दान बिना विचारे ग्रहण करें। राजा ने मन-ही-मन कहा- इन दोनों का बड़ा भारी और गहन कार्य सामने आ गया है। इधर जापक ब्राह्मण का सुदृढ़ आग्रह ज्यों-का-त्यों बना हुआ है। इससे निपटारा कैसे होगा। यदि मैं आज ब्राह्मण की दी हुई वस्तु ग्रहण न करूँ तो किस प्रकार महान पाप से निर्लिप्त रह सकूँगा। इसके बाद राजर्षि इक्ष्वाकु ने उन दोनों से कहा- ‘तुम दोनों अपने विवाद का निपटारा हो जाने पर ही यहाँ से जाना। इस समय मेरे पास आकर अपना कार्य पूर्ण हुए बिना न जाना। मुझे भय है कि राजधर्म मिथ्या अथवा कलंकित न हो जाय। राजाओं को अपने धर्म का पालन करना चाहिये, यही शास्त्र का सिद्धान्त है। इधर मुझ अजितात्मा के भीतर गहन ब्राह्मणधर्म ने प्रवेश किया है। ब्राह्मण ने कहा- राजन! आपने जो वस्तु माँगी थी और जिसे देने की मैंने प्रतिज्ञा कर ली थी, उसे मैं आपकी धरोहर के रूप में अपने पास रखता हूँ; अत: शीघ्र उसे ले लें। यदि नहीं लेंगे तो निस्संदेह मैं आपको शाप दे दूँगा। राजा ने कहा- धिक्कार है राजधर्म को, जिसके कार्य का यहाँ यह परिणाम निकला। ब्राह्मण को और मुझको समान फल की प्राप्ति कैसे हो, इसी उदेश्य से मुझे यह दान ग्रहण करना है। ब्रह्मन! यह मेरा हाथ जो आज से पहले किसी के सामने नहीं फैलाया गया था, आज आपसे धरोहर लेने के लिये आपके सामने फैला है। आप मेरा जो कुछ भी धरोहर धारण करते हैं, उसे इस समय मुझे दे दीजिये।[4] ब्राह्मण ने कहा- राजन! मैंने संहिता का जप करते हुए कहीं से जितना भी पुण्य अथवा सद्गुण संग्रह किया है, वह सब आप ले लें। इसके सिवा भी मेरे पास जो कुछ पुण्य हो, उसे ग्रहण करें। राजा ने कहा- द्विजश्रेष्ठ! मेरे हाथ पर यह संकल्प का जल पड़ा हुआ है। मेरा और आपका सारा पुण्य हम दोनों के लिये समान हो और हम साथ-साथ उसका उपभोग करे; इस उदेश्य से आप मेरा दिया हुआ दान भी ग्रहण करें।[5]
विरूप ने कहा- राजन! आपको विदित हो कि हम दोनों काम और क्रोध हैं। हमने ही आपको इस कार्य में लगाया है। आपने जो साथ-साथ फल भोगने की बात कही है, इससे आपको और इस ब्राह्मण को एक समान लोक प्राप्त होगें। यह मेरा साथी कुछ भी धारण नहीं करता अथवा मुझ पर भी इसका कोई ऋण नहीं है। यह सब खेल तो हम लोगों ने आपकी परीक्षा लेने के लिये किया था। काल, धर्म, मृत्यु, काम, क्रोध और आप दोनों ये सब-के-सब एक-दूसरे की कसौटी पर आपके देखते-देखते कसे गये हैं। अब जहाँ आपकी इच्छा हो, अपने कर्म से जीते हुए उन लोकों में जाइये।
भीष्म द्वारा जापक की गति का वर्णन करना
भीष्म जी कहते हैं- राजन! जापकों को किस प्रकार फल की प्राप्ति होती है? इस बात का दिग्दर्शन मैंने तुम्हें करा दिया। जापक ब्राह्मण ने कौन सी गति प्राप्त की? किस स्थान पर अधिकार किया? कौन-कौन-से लोक उसके लिये सुलभ हुए? और यह सब किस प्रकार सम्भव हुआ? ये बातें आगे बतायी जायँगी।
संहिता का स्वाध्याय करने वाला द्विज परमेष्ठी ब्रह्मा को प्राप्त होता है अथवा अग्नि में समा जाता है अथवा सूर्य में प्रवेश कर जाता है। यदि वह जापक तैजस शरीर से उन लोकों में रमण करता है तो रोग से मोहित होकर उनके गुणों को अपने भीतर धारण कर लेता है। इसी प्रकार संहिता का जप करने वाला पुरुष रागयुक्त होने पर चन्द्रलोक, वायुलोक, भूमिलोक तथा अन्तरिक्षलोक के योग्य शरीर धारण करके वहाँ निवास करता हैं और उन लोकों में रहने वाले पुरुषों के गुणों का आचरण करता रहता है। यदि उन लोकों की उत्कृष्टता में संदेह हो जाय और इस कारण वह जापक वहाँ से विरक्त हो जाय तो वह उत्कृष्ट एवं अविनाशी मोक्ष की इच्छा रखता हुआ फिर उसी परमेष्ठी ब्रह्म में प्रवेश कर जाता है। अन्य लोकों की अपेक्षा परमेष्ठि भाव की प्राप्ति अमृतरूप है। उससे भी उत्कृष्ट कैवल्यरूपी अमृत को प्राप्त होकर वह शान्त (निष्काम), अंहकारशून्य, निर्द्वन्द्व, सुखी, शान्तिपरायण तथा रोग-शोक से रहित ब्रह्मस्वरूप हो जाता है। ब्रह्मपद पुनरावृत्ति-रहित, एक, अविनाशी, संज्ञारहित, दु:ख-शून्य, अजर और शान्त आश्रय है, उसे ही वह जापक प्राप्त होता है। जापक पूर्वोक्त परमेष्ठी पुरुष (सगुण ब्रह्म) से भी ऊपर उठकर आकाशस्वरूप निर्गुण ब्रह्म को प्राप्त होता है। वहाँ प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द इन चारों प्रमाणों और लक्षणों की पहुँच नहीं है। क्षुधा, पिपासा, शोक, मोह तथा जरा और मृत्यु- ये छ: तरंगें वहाँ नहीं हैं। पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँचों कर्मेन्द्रयाँ, पाँचों प्राण तथा मन इन सोलह उपकरणों से भी वह रहित है। यदि उसके मन में भोगों के प्रति राग है और वह निर्गुण ब्रह्म को प्राप्त होना नहीं चाहता है तो वह सभी पुण्यलोकों का अधिष्ठाता बन जाता है और मन से जिस वस्तु को पाना चाहता है, उसे तुरंत प्राप्त कर लेता है। अथवा वह सम्पूर्ण उत्तम लोकों को भी नरक के तुल्य देखता है और सब ओर से नि:स्पृह एवं मुक्त होकर उसी निर्गुण ब्रह्म में सुखपूर्वक रमण करता है। महाराज! इस प्रकार यह जापक की गति बतायी गयी है। यह सारा प्रसंग मैंने कह सुनाया। अब तुम और क्या सुनना चाहते हो?[5]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 199 श्लोक 52-67
- ↑ 2.0 2.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 199 श्लोक 68-82
- ↑ 3.0 3.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 199 श्लोक 83-98
- ↑ 4.0 4.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 199 श्लोक 99-112
- ↑ 5.0 5.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 199 श्लोक 113-128
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| त्रिवर्ग के विचार का वर्णन
| पाप के कारण राजा के पुनरुत्थान के विषय में आंगरिष्ठ और कामन्दक का संवाद
| इन्द्र और प्रह्लाद की कथा
| शील का प्रभाव, अभाव में धर्म, सत्य, सदाचार और लक्ष्मी के न रहने का वर्णन
| सुमित्र और ऋषभ ऋषि की कथा
| राजा सुमित्र का मृग की खोज में तपस्वी मुनियों के आश्रम पर पहुँचना
| सुमित्र का मुनियों से आशा के विषय में प्रश्न करना
| ऋषभ का सुमित्र को वीरद्युम्न व तनु मुनि का वृतान्त सुनाना
| तनु मुनि का वीरद्युम्न को आशा के स्वरूप का परिचय देना
| ऋषभ के उपदेश से सुमित्र का आशा को त्याग देना
| यम और गौतम का संवाद
| आपत्ति के समय राजा का धर्म
- आपद्धर्म पर्व
आपत्तिग्रस्त राजा के कर्त्तव्य का वर्णन | ब्राह्मणों और श्रेष्ठ राजाओं के धर्म का वर्णन | धर्म की गति को सूक्ष्म बताना | राजा के लिए कोश संग्रह की आवश्यकता | मर्यादा की स्थापना और अमर्यादित दस्युवृत्ति की निन्दा | बल की महत्ता और पाप से छूटने का प्रायश्रित्त | मर्यादा का पालन करने वाले कायव्य दस्यु की सद्गति का वर्णन | राजा के द्वारा किसका धन लेने व न लेने तथा कैसे बर्ताव करे इसके विचार का वर्णन | शत्रुओं से घिरे राजा के कृर्त्तव्य का वर्णन | राजा के कृर्त्तव्य के विषय में बिडाल व चूहे का आख्यान | शत्रु से सावधान रहने के विषय में राजा ब्रह्मदत्त और पूजनी चिड़िया का संवाद | भारद्वाज कणिक का सौराष्ट्रदेश के राजा को कूटनीति का उपदेश | विश्वामित्र और चाण्डाल का संवाद | आपत्काल में धर्म का निश्चय | उत्तम ब्राह्मणों के सेवन का आदेश | बहेलिये और कपोत-कपोती का प्रसंग | कबूतर द्वारा अपनी भार्या का गुणगान व पतिव्रता स्त्री की प्रशंसा | कबूतरी का कबूतर से शरणागत व्याध की सेवा के लिए प्रार्थना | कबूतर द्वारा अतिथि-सत्कार और अपने शरीर का बहेलिये के लिए परित्याग | बहेलिये का वैराग्य | कबूतरी का विलाप और अग्नि में प्रवेश कर उन दोनों को स्वर्गलोक की प्राप्ति | बहेलिये को स्वर्गलोक की प्राप्ति | इन्द्रोत मुनि का जनमेजय को फटकारना | जनमेजय का इन्द्रोत मुनि की शरण में जाना | इन्द्रोत का जनमेजय को शरण देना | इन्द्रोत का जनमेजय को धर्मोपदेश देना | ब्राह्मण बालक के जीवित होने की कथा | नारद जी का सेमल वृक्ष से प्रश्न | नारद जी का सेमल को उसका अहंकार देखकर फटकारना | वायु का सेमल को धमकाना और सेमल का विचारमग्न होना | सेमल का हार स्वीकार कर बलवान के साथ वैर न करने का उपदेश | समस्त अनर्थो का कारण लोभ को बताकर उसने होने वाले पापों का वर्णन | श्रेष्ठ महापुरुषों के लक्षण | अज्ञान और लोभ को ही समस्त दोषों का कारण सिद्ध करना | मन और इंद्रियों के संयम रूप दम का माहात्म्य | तप की महिमा | सत्य के लक्षण, स्वरूप और महिमा का वर्णन | काम, क्रोध आदि दोषों का निरूपण व नाश का उपाय | नृशंस अर्थात अत्यन्त नीच पुरुष के लक्षण | नाना प्रकार के पापों और प्रायश्रितों का वर्णन | खड्ग की उत्पत्ति और प्राप्ति व महिमा का वर्णन | धर्म, अर्थ और काम के विषय में विदुर व पाण्डवों के पृथक-पृथक विचार | अन्त में युधिष्ठिर का निर्णय | मित्र बनाने व न बनाने योग्य पुरुषों के लक्षण | कृतघ्न गौतम की कथा का आरम्भ | गौतम का समुद्र की ओर प्रस्थान व बकपक्षी के घर पर अतिथि होना | गौतम का आतिथ्यसत्कार व विरूपाक्ष के भवन में प्रवेश | गौतम का राक्षसराज के यहाँ से सुर्वणराशि लेकर लौटना | गौतम का अपने मित्र बक के वध का विचार मन में लाना | कृतघ्न गौतम द्वारा राजधर्मा का वध | राक्षसों द्वार कृतघ्न की हत्या व उसके माँस को अभक्ष्य बताना | राजधर्मा और गौतम का पुन: जीवित होना
- मोक्षधर्म पर्व
शोकाकुल चित्त की शांति के लिए सेनजित और ब्राह्मण संवाद | पिता के प्रति पुत्रद्वारा ज्ञान का उपदेश | त्याग की महिमा के विषय में शम्पाक का उपदेश | धन की तृष्णा से दु:ख का वर्णन | धन के त्याग से परम सुख की प्राप्ति | जनक की उक्ति तथा राजा नहुष के प्रश्नों के उत्तर मे बोध्यगीता | प्रह्लाद और अवधूत का संवाद | आजगर वृत्ति की प्रशंसा का वर्णन | काश्यप ब्राह्मण और इन्द्र का संवाद | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम कर्ता को भोगने का प्रतिपादन | भरद्वाज और भृगु के संवाद में जगत की उत्पत्ति का वर्णन | आकाश से अन्य चार स्थूल भूतों की उत्पत्ति का वर्णन | पंचमहाभूतों के गुणों का विस्तारपूर्वक वर्णन | शरीर के भीतर जठरानल आदि वायुओं की स्थिति का वर्णन | जीव की सत्ता पर अनेक युक्तियों से शंका उपस्थित करना | जीव की सत्ता तथा नित्यता को युक्तियों से सिद्ध करना | मनुष्यों की और समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन | कर्मो का और सदाचार का वर्णन | वैराग्य से परब्रह्मा की प्राप्ति | सत्य की महिमा, असत्य के दोष व लोक और परलोक के सुख-दु:ख का विवेचन | ब्रह्मचर्य और गार्हस्थ्य आश्रमों के धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास धर्मों का वर्णन | हिमालय के उत्तर में स्थित लोक की विलक्षणता व महत्ता का प्रतिपादन | भृगु और भरद्वाज के संवाद का उपसंहार | शिष्टाचार का फलसहित वर्णन | पाप को छिपाने से हानि और धर्म की प्रशंसा | अध्यात्मज्ञान का निरूपण | ध्यानयोग का वर्णन | जपयज्ञ के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | जप और ध्यान की महिमा और उसका फल | जापक में दोष आने के कारण उसे नरक की प्राप्ति | जापक के लिए देवलोक भी नरक तुल्य इसके प्रतिपादन का वर्णन | जापक को सावित्री का वरदान | धर्म, यम और काल का आगमन | राजा इक्ष्वाकु और ब्राह्मण का संवाद | सत्य की महिमा तथा जापक की गति का वर्णन | ब्राह्मण और इक्ष्वाकु की उत्तम गति का वर्णन | जापक को मिलने वाले फल की उत्कृष्टता | मनु द्वारा कामनाओं के त्याग एवं ज्ञान की प्रशंसा | परमात्मतत्त्व का निरूपण | आत्मतत्त्व और बुद्धि आदि पदार्थों का विवेचन | साक्षात्कार का उपाय | शरीर, इन्द्रिय और मन-बुद्धि से आत्मा की सत्ता का प्रतिपादन | आत्मा व परमात्मा के साक्षात्कार का उपाय तथा महत्त्व | परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | मनु बृहस्पति संवाद की समाप्ति | श्री कृष्ण से सम्पूर्ण भूतों की उत्पत्ति | श्री कृष्ण की महिमा का कथन | ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन | प्रत्येक दिशा में निवास करने वाले महर्षियों का वर्णन | विष्णु का वराहरूप में प्रकट हो देवताओं की रक्षा और दानवों का विनाश | नारद को अनुस्मृतिस्तोत्र का उपदेश | नारद द्वारा भगवान की स्तुति | श्री कृष्ण सम्बन्धी अध्यात्मतत्तव का वर्णन | संसारचक्र और जीवात्मा की स्थिति का वर्णन | निषिद्ध आचरण के त्याग आदि के परिणाम तथा सत्त्वगुण के सेवन का उपदेश | जीवोत्पत्ति के दोष और बंधनों से मुक्त तथा विषय शक्ति के त्याग का उपदेश | ब्रह्मचर्य तथा वैराग्य से मुक्ति | आसक्ति छोड़कर सनातन ब्रह्म की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने के उपदेश | स्वप्न और सुषुप्ति-अवस्था में मन की स्थिति का वर्णन | गुणातीत ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | सच्चिदान्नदघन परमात्मा, दश्यवर्ग प्रकृति और पुरुष उन चारों के ज्ञान से मुक्ति का वर्णन | परमात्मा प्राप्ति के अन्य साधनों का वर्णन | राजा जनक के दरबार में पञ्चशिख का आगमन | नास्तिक मतों के निराकरणपूर्वक शरीर से भिन्न आत्मा की नित्य सत्ता का प्रतिपादन | पञ्चशिख के द्वारा मोक्षतत्त्व के विवेचन का वर्णन | विष्णु द्वारा मिथिलानरेश जनकवंशी जनदेव की परीक्षा और उनके के लिए वर प्रदान | श्वेतकेतु और सुवर्चला का विवाह | पति-पत्नी का अध्यात्मविषयक संवाद | दम की महिमा का वर्णन | व्रत, तप, उपवास, ब्रह्मचर्य तथा अतिथि सेवा का विवेचन | सनत्कुमार का ऋषियों को भगवत्स्वरूप का उपदेश | इंद्र और प्रह्लाद का संवाद | इन्द्र के आक्षेप युक्त वचनों का बलि के द्वारा कठोर प्रत्युत्तर | बलि और इन्द्र का संवाद | बलि द्वारा इन्द्र को फटकारना | इन्द्र और लक्ष्मी का संवाद | बलि को त्यागकर आयी हुई लक्ष्मी की इन्द्र के द्वारा प्रतिष्ठा | इन्द्र और नमुचि का संवाद | काल और प्रारब्ध की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी का दैत्यों को त्यागकर इन्द्र के पास आना | सद्गुणों पर लक्ष्मी का आना व दुर्गुणों पर त्यागकर जाने का वर्णन | जैगीषव्य का असित-देवल को समत्वबुद्धि का उपदेश | श्रीकृष्ण और उग्रसेन का संवाद | शुकदेव के प्रश्नों के उत्तर में व्यास जी द्वारा काल का स्वरूप बताना | व्यास जी का शुकदेव को सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम तथा युगधर्मों का उपदेश | ब्राह्मप्रलय एंव महाप्रलय का वर्णन | ब्राह्मणों का कर्तव्य और उन्हें दान देने की महिमा का वर्णन | ब्राह्मण के कर्तव्य का प्रतिपादन करते हुए कालरूप नद को पार करने का उपाय | ध्यान के सहायक योग | फल और सात प्रकार की धारणाओं का वर्णन | मोक्ष की प्राप्ति | सृष्टि के समस्त कार्यों में बुद्धि की प्रधानता | प्राणियों की श्रेष्ठता के तारतम्य का वर्णन | नाना प्रकार के भूतों की समीक्षापूर्वक कर्मतत्त्व का विवेचन | युगधर्म का वर्णन एवं काल का महत्त्व | ज्ञान का साधन और उसकी महिमा | योग से परमात्मा की प्राप्ति का वर्णन | कर्म और ज्ञान का अन्तर | ब्रह्मप्राप्ति के उपाय का वर्णन | ब्रह्मचर्य-आश्रम का वर्णन | गार्हस्थ्य-धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रम के धर्म और महिमा का वर्णन | संन्यासी के आचरण | ज्ञानवान संन्यासी का प्रशंसा | परमात्मा की श्रेष्ठता व दर्शन का उपाय | ज्ञानमय उपदेश के पात्र का निर्णय | महाभूतादि तत्त्वों का विवेचन | बुद्धि की श्रेष्ठता और प्रकृति-पुरुष-विवेक | ज्ञान के साधन व ज्ञानी के लक्षण और महिमा | परमात्मा की प्राप्ति का साधन | ज्ञान से ब्रह्म की प्राप्ति | ब्रह्मवेत्ता के लक्षण व परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | शरीर में पंचभूतों के कार्य व गुणों की पहचान | जीवात्मा और परमात्मा का योग द्वारा साक्षात्कार | कामरूपी अद्भुत वृक्ष व शरीर रूपी नगर का वर्णन | मन और बुद्धि के गुणों का विस्तृत वर्णन | युधिष्ठिर का मृत्युविषयक प्रश्न व ब्रह्मा की रोषाग्नि से प्रजा के दग्ध होने का वर्णन | ब्रह्मा के द्वारा रोषाग्नि का उपसंहार व मृत्यु की उत्पत्ति | मृत्यु की तपस्या व प्रजापति की आज्ञा से मृत्यु का प्राणियों के संहार का कार्य स्वीकार करना | धर्माधर्म के स्वरूप का निर्णय | युधिष्ठिर का धर्म की प्रमाणिकता पर संदेह उपस्थित करना | जाजलि की घोर तपस्या व जटाओं में पक्षियों का घोंसला बनाने से उनका अभिमान | आकाशवाणी की प्रेरणा से जाजलि का तुलाधार वैश्य के पास जाना | जाजलि और तुलाधार का धर्म के विषय में संवाद | जाजलि को तुलाधार का आत्मयज्ञविषयक धर्म का उपदेश | जाजलि को पक्षियों का उपदेश | राजा विचख्नु के द्बारा अहिंसा-धर्म की प्रशंसा | महर्षि गौतम और चिरकारी का उपाख्यान | दीर्घकाल तक सोच-विचारकर कार्य करने की प्रशंसा | द्युमत्सेन और सत्यवान का संवाद | अहिंसापूर्वक राज्यशासन की श्रेष्ठता का कथन | स्यूमरश्मि और कपिल का संवाद | प्रवृत्ति एवं निवृत्तिमार्ग के विषय में स्यूमरश्मि व कपिल संवाद | चारों आश्रमों में उत्तम साधनों के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति का कथन | ब्रह्मण और कुण्डधार मेघ की कथा | यज्ञ में हिंसा की निंदा और अहिंसा की प्रशंसा | धर्म, अधर्म, वैराग्य और मोक्ष के विषय में युधिष्ठिर के प्रश्न | मोक्ष के साधन का वर्णन | नारद और असितदेवल का संवाद | तृष्णा के परित्याग के विषय में माण्डव्य मुनि और जनक का संवाद | पिता और पुत्र का संवाद | हारित मुनि के द्वारा आचरण व धर्मों का वर्णन | ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | ब्रह्म की प्राप्ति के विषय में वृत्र और शुक्र का संवाद | वृत्रासुर को सनत्कुमार का आध्यात्मविषयक उपदेश | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर की शंका निवारण | इन्द्र और वृत्रासुर के युद्ध का वर्णन | वृत्रासुर के वध से प्रकट हुई ब्रह्महत्या का ब्रह्मा जी के द्वारा चार स्थानों में विभाजन | शिवजी के द्वारा दक्ष के यज्ञ का भंग | शिवजी के क्रोध से ज्वर की उत्पत्ति व उसके विविध रूप | पार्वती के रोष के निवारण के लिए शिव द्वारा दक्ष-यज्ञ का विध्वंस | महादेव जी का दक्ष को वरदान | स्तोत्र की महिमा | अध्यात्म ज्ञान और उसके फल का वर्णन | समंग द्वारा नारद जी से अपनी शोकहीन स्थिति का वर्णन | नारद जी द्वारा गालव मुनि को श्रेय का उपदेश | अरिष्टनेमि का राजा सगर को मोक्षविषयक उपदेश | उशना का चरित्र | उशना को शुक्र नाम की प्राप्ति | पराशर मुनि का राजा जनक को कल्याण की प्राप्ति के साधन का उपदेश | कर्मफल की अनिवार्यता | कर्मफल से लाभ | धर्मोपार्जित धन की श्रेष्ठता, व अतिथि-सत्कार का महत्त्व | गुरुजनों की सेवा से लाभ | सत्संग की महिमा व धर्मपालन का महत्त्व | ब्राह्मण और शूद्र की जीविका | मनुष्यों में आसुरभाव की उत्पत्ति व शिव के द्वारा उसका निवारण | विषयासक्त मनुष्य का पतन | तपोबल की श्रेष्ठता व दृढ़तापूर्वक स्वधर्मपालन का आदेश | वर्ण विशेष की उत्पत्ति का रहस्य | हिंसारहित धर्म का वर्णन | धर्म व कर्तव्यों का उपदेश | राजा जनक के विविध प्रश्नों का उत्तर | ब्रह्मा को साध्यगणों को उपदेश | योगमार्ग के स्वरूप, साधन, फल और प्रभाव का वर्णन | सांख्ययोग के अनुसार साधन का वर्णन | सांख्ययोग के फल का वर्णन | वसिष्ठ और करालजनक का संवाद | प्रकृति-संसर्ग के कारण जीव का बारंबार जन्म ग्रहण करना | प्रकृति के संसर्ग दोष से जीव का पतन | क्षर-अक्षर एवं प्रकृति-पुरुष के विषय में राजा जनक की शंका | योग और सांख्य के स्वरूप का वर्णन तथा आत्मज्ञान से मुक्ति | विद्या-अविद्या व पुरुष के स्वरूप के उद्गार का वर्णन | वसिष्ठ व जनक संवाद का उपसंहार | जनकवंशी वसुमान को मुनि का धर्मविषयक उपदेश | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश | इन्द्रियों में मन की प्रधानता का प्रतिदान | संहार क्रम का वर्णन | अध्यात्म व अधिभूत वर्णन तथा राजस और तामस के भावों के लक्षण | राजा जनक के प्रश्न | प्रकृति पुरुष का विवेक और उसका फल | योग का वर्णन व उससे परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति | मृत्यु सूचक लक्षण व मृत्यु को जीतने का उपाय | याज्ञयवल्क्य द्वारा सूर्य से वेदज्ञान की प्राप्ति का प्रसंग सुनाना | विश्वावसु को जीवात्मा और परमात्मा की एकता के ज्ञान का उपदेश देना | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश देकर विदा होना | पञ्चशिख और जनक का संवाद | सुलभा का राजा जनक के शरीर में प्रवेश करना | राजा जनक का सुलभा पर दोषारोपण करना | सुलभा का राजा जनक को अज्ञानी बताना | व्यास जी का शुकदेव को धर्मपूर्ण उपदेश देते हुए सावधान करना | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम का वर्णन | शंकर द्वारा व्यास को पुत्रप्राप्ति के लिये वरदान देना | शुकदेव की उत्पति तथा संस्कार का वृतान्त | पिता की आज्ञा से शुकदेव का मिथिला में जाना | शुकदेव का ध्यान में स्थित होना | राजा जनक द्वारा शुकदेव जी का पूजन तथा उनके प्रश्न का समाधान | जनक द्वारा बह्मचर्याश्रम में परमात्मा की प्राप्ति | शुकदेव द्वारा मुक्त पुरुष के लक्षणों का वर्णन | शुकदेव का पिता के पास लौट आना
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