सखी री हरि बिनु है दुख भारी -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग मलार


सखी री हरि बिनु है दुख भारी ।
सिंहिकासुत हरभूषन ग्रसि ज्यौ, सोइ गति भई हमारी ।।
सिखर-बधु-अरि क्यौ न निवारत, पुहुप धनुष कै बिसेष ।
चच्छुस्रवा उरहार ग्रसी ज्यौ, छिनु दुतिया बपु रेख ।।
घट-सुत-असन समयसुत, आनन अमी गलित जैसै मेत ।
जलधर ब्योम अबुकन, मुचत नैन होइ बदि लेत ।।
जदुपति प्रभु मिलि आनि मिलावहु, हरिसुत आरत जानि ।
जैसै हरि करि बधु प्रगट भए, तैसिय आरति मानि ।।
पट-आनन-बाहन कानन मैं, घन रजनी तहँ बासी ।
'सूरदास' प्रभु चतुर सिरोमनि, सुनि चातक पिक त्रासी ।। 3222 ।।

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