सखी री माधोहिं दोष न दीजै।
जो कछु करि सकियै सोई सब, या मुरली कौं कीजै।।
बार-बार बन बोलि मधुर धुनि, अति प्रतीत उपजाई।
मिलि स्रवननि मन मोहि महा रस, तन की सुधि बिसराई।।
मुख मृदु बचन, कपट उर अंतर, हम यह बात न जानी।
लोक-भेद-कुल छाँड़ि आपनौ, जोइ-जोइ कही सु मानी।।
अजहूँ वहै प्रकृति याकैं जिय लुब्धक-संग ज्यौं साधी।
सूरदास क्यौं हूँ करुना मैं, परति नहीं अवराधी।।1312।।