सखी री काहे रहति मलीन ।
तनसिंगार कछू देखति नहि, बुधिबल आनँद हीन ।।
मुख तोमर नैननि नहि अँजन, तिलक ललाट न दीन ।
कुचिल वस्त्र, अलकै अति रूखी, दिखियत है तन छीन ।।
प्रेम तृषा तीनौ जन जानै, बिरही चातक मीन ।
'सूरदास' वीतति जु हृदय मैं, जिय जिन परबस कीन ।। 3267 ।।