सखि कर धनु लै चंद्रहि मारि -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग केदारौ


सखि कर धनु लै चंद्रहि मारि।
तब तो पै कछुवै न सिरैहै, जब अति जर जैहै तनु जारि।।
उठि हरुवाइ जाइ मँदिर चढ़ि, ससि सनमुख दरषन बिस्तारि।
ऐसी भाँति बुलाइ मुकुर मैं, अति बल खंड खड करि डारि।।
सोई अबधि निकट आई है, चलत तोहिं जो दई मुरारि।
'सूरदास' बिरहिनि यौ तलफतिं, जैसै मीन नदी बिनु बारि।। 3353।।

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