विरह-पदावली -सूरदास
(260) (एक गोपी कह रही है-) सखी! हाथ में धनुष लेकर चन्द्रमा को मार दे; नहीं तो उस समय तुझसे कुछ करते नहीं बनेगा, जब यह अपनी तीव्र ज्वाला से मेरे शरीर को जलाकर चला जायगा। अरी, जल्दी से उठकर भवन के ऊपर चढ़ जा और चन्द्रमा के सम्मुख दर्पण रख दे और इस प्रकार उसे दर्पण में बुलाकर अत्यन्त बलपूर्वक पटककर (दर्पण सहित उसे) टुकड़े-टुकड़े कर डाल। चलते समय मुरारी ने (लौटने का) जो समय तुझे दिया था, वही समय पास आ गया है (अतः उनके आने तक मुझे बचा ले)। सूरदास जी कहते हैं कि (वह) वियोगिनी इस प्रकार तड़फड़ा रही है, जैसे जल के बिना मछली दुःखी हो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
पद संख्या | पद का नाम |