सखा सत्कार 2

सखा सत्कार


‘लाल! आज मित्रों का सत्कार करते हैं।’ मैया ने बड़े स्नेह से कहा- ‘तुम अपने सखाओं को भी तो उपहार दो।’ ‘हाँ! कन्हाई प्रसन्न, दौड़ आया उस राशि के समीप जो मैया ने सजा रखी है। इस बार मैया ने बाबा को बहुत सावधान किया था कि उनका नीलमणि अपने सखाओं को ऐसी-वैसी वस्तु नहीं देना चाहेगा। बाबा ने कई महीने लगाये हैं इन वस्तुओं के चयन में। बहुत प्रयत्न करके दूर-दूर से मँगाया है। मैया ठिठकी खड़ी रह गयी। बाबा भी स्तब्ध देखते रह गये। इस बार भी वही हुआ जो पिछली वर्षगाँठों को होता आया है। कोई प्रयत्न सफल नहीं हुआ। कुछ भी तो कृष्ण को ऐसा नहीं लगता है, जो वह अपने किसी सखा को दे सके।

कन्हाई कोई चमकता मणि, कोई रत्नाभरण, कोई वस्त्र उठाता है, देखता है और फेंक देता है। किसी सखा के किसलय, गुंजा, पिच्छ, फल को देखता है और हाथ की वस्तु इसे तुच्छ लगती है। अनेक बार भाल के गोमय-बिन्दु तक कर ले गया और हाथ की वस्तु उपेक्षा से फेंक दी इसने। अब तक हर्ष से उछलता, खिलखिलाता, दौड़ता श्यामसुन्दर गम्भीर हो गया है। कुछ खिन्न हो उठा है। विशाल अन्जन-रंजित कमललोचन भर आये हैं। अग्रज की ओर देखा इसने ‘दादा!’

प्रत्येक वर्षगाँठ पर यही होता है। दाऊ ही अपने अनुज का समाधान करते हैं- ‘कनूँ! अपने सखा को देकर सन्तुष्ट हो सके, ऐसी कोई वस्तु कैसे हो सकती है?’ सचमुच कोई वस्तु त्रिभुवन में कैसे हो सकती है, जो सखा को देने योग्य प्रतीत हो सके कन्हाई को। तब? एक क्षण सिर झुकाकर सोचता है और फेंके-बिखरे रत्नाभरणों, मणियों, वस्त्रों के मध्य से आगे कूद आता है, ‘भद्र!’ दोनों भुजाएँ गले में डालकर कन्हाई लिपट गया है। वाणी नहीं कह पाती; किंतु इसका रोम-रोम कहता है..‘मैं तेरा! मैं तेरा!’ ‘तोक! सुबल! श्रीदाम! वरूथप! अब एक-एक सखा के कण्ठ से कन्हाई भुजाएँ फैलाकर लिपट रहा है। इसका अंग-अंग मानो पुकार रहा है- ‘मैं तेरा! मैं तेरा!’ चल रहा है यह सखाओं का सत्कार!


टीका टिप्पणी और संदर्भ

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