सकुञ्च भरे अधखिले सुमन में -हनुमान प्रसाद पोद्दार

पद रत्नाकर -हनुमान प्रसाद पोद्दार

अभिलाषा

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राग भैरवी


 
सकुच भरे अधखिले सुमन में छिपकर रहता प्रेम-पराग।
नव-दर्शन में मुग्ध प्राण का होगा मूक मधुर अनुराग॥
भय-लज्जा, संकोच-सहम, सहसा वाणी का निपट निरोध।
वाचा-रहित, नेत्र-मुख अवनत, हास्य-हीन, बालकवत्‌‌ क्रोध॥
जो उसने था किया, इसी स्वाभाविक रसका ही व्यवहार।
तो देना था तुम्हें चाहिये उसे हर्ष से अपना प्यार॥
हृदयंगम करना आवश्यक था वह सरल प्रणय का भाव।
नहीं तिरस्कृत करना था नवप्रेमिक का वह गूँगा चाव॥
प्रथम मिलनमें ही क्या समुचित है समस्त संकोच-विनाश।
क्या उससे वस्तुतः नहीं होता नवीन मधु-रस का नाश॥
नव कलिकाके लिये चाहना असमय में ही पूर्ण विकास।
क्या है नहिं अप्राकृत और असंगत उससे ऐसी आस?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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