सकाम और निष्काम उपासना का वर्णन

महाभारत भीष्म पर्व में श्रीमद्भगवद्गीता पर्व के अंतर्गत 33वें अध्याय में 'सकाम और निष्काम उपासना का वर्णन' हुआ हैं, जो इस प्रकार है-[1]

कृष्ण द्वारा अर्जुन को सकाम और निष्काम उपासना का वर्णन करना

सम्बन्ध - भगवान् के गुण, प्रभाव आदि को जानने वाले अनन्य प्रेमी भक्तों के भजन का प्रकार बतलाकर अब भगवान् कृष्ण अर्जुन से भगवान् के प्रेमी भक्तों से भिन्न श्रेणी के उपासकों की उपासना का प्रकार बतलाते हैं। कृष्ण कहते हैं -हे अर्जुन दूसरे ज्ञानयोगी पुरुष मुझ निर्गुण निराकार ब्रह्म का ज्ञान यज्ञ के द्वारा अभिन्न भाव से पूजन करते हुए भी मेरी उपासना करते हैं,[2] और दूसरे मनुष्य बहुत प्रकार से स्थित मुझ विराट स्वरूप परमेश्‍वर पृथक भाव से उपासना करते हैं।[3] सम्बन्ध - समस्त विश्‍व की उपासना से भगवान् की उपासना कैसे है-यह स्पष्ट समझाने के लिये अब चार श्लोको द्वारा भगवान् इस बात का प्रतिपादन करते हैं कि समस्त जगत् मेरा ही स्वरूप है। क्रतु[4]मैं हॅू, यज्ञ[5]मैं हॅू, स्वधा[6]मैं हॅू, औषधि मैं हॅू, मन्त्र मैं हॅू, घृत मैं हॅू, अग्नि[7] मैं हूँ और हवनरूप क्रिया भी मैं ही हॅू।[8] इस सम्पूर्ण जगत् का धाता अर्थात धारण करने वाला एवं कर्मो के फल को देने वाला, पिता, माता,[9] पितामाह,[10] जानने योग्य, पवित्र,[11] ओकांर[12] तथा ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हॅू।[13] प्राप्त होने योग्य[14] परम धाम, भरण पोषण करने वाला, सबका स्वामी,[15] शुभा-शुभ का देखने वाला, सबका वासस्थान, शरण[16] लेने योग्य, प्रत्युपकार[17] न चाहकर हित करने वाला, सबकी उत्पत्ति प्रलय का हेतु, स्थिति का आधार, निधान[18] और अविनाशी[19] का कारण भी मैं ही हॅू।[20][1] मैं ही सूर्यरूप से तपता हॅू, वर्षा का आकर्षण करता हूँ और उसे बरसाता हॅू[21] हे अर्जुन! मैं ही अमृत[22]और मृत्यु[23] और सत् असत् भी मैं ही हॅू।[24][25]

सम्बन्ध - तेरहवें से पंद्रहवें श्लोक तक अपने सगुण- निर्गुण और विराट रूप की उपासनाओं का वर्णन करके भगवान् ने उन्नीसवें श्लोक तक समस्त विश्‍व को अपना स्वरूप बतलाया। ‘समस्त विश्‍व मेरा ही स्वरूप होने के कारण इन्द्र आदि अन्य देवों की उपासना भी प्रकारान्तर से मेरी ही उपासना है‚ परंतु ऐसा न जानकर फला सक्ति पूर्वक पृथक पृथक भाव से उपासना करने वाले को मेरी प्राप्ति न होकर विनाशी फल ही मिलता है।’ इसी बात को दिखलाने के लिये अब दो श्लोकों में उस उपासना का फल सहित वर्णन करते हैं। तीनों वेदों में विधान किये हुए सकर्मों को करने वाले‚ सोमरस पीन वाले‚ पाप रहित पुरुष[26] मुझको यज्ञों के द्वारा पूजकर स्वर्ग की प्राप्ति चाहते हैं वे पुरुष अपने पुण्यों के फलरूप स्वर्गलोक को[27] प्राप्त होकर स्वर्ग में दिव्य देवताओं के भोगों को भोगते हैं। वे उस विशाल[28] स्वर्गलोक को भोगकर पुण्य क्षीण होने पर मृत्युलोक को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार स्वर्ग के साधन रूप तीनों वेदों में कहे हुए सकाम कर्म का आश्रय लेने वाले और भोगों की कामना वाले पुरुष बार- बार आवागमन को प्राप्त होते हैं‚ अर्थात् पुण्य के प्रभाव से स्वर्ग में जाते हैं और पुण्य क्षीण होने पर मृत्यु लोक में जाते हैं।[29] किन्‍तु जो अनन्‍य[30] प्रेमी भक्‍तजन मुझ परमेश्‍वर को निरन्‍तर चिन्‍तन करते हुए निष्‍काम भाव से भजते हैं,[31] उन नित्‍य निरन्‍तर मेरा चिन्‍तन करने वाले पुरुषों का योगक्षेम मैं स्‍वयं प्राप्‍त कर देता हॅू।[32] हे अर्जुन! यदपि श्रद्धा[33] से युक्‍त जो सकाम भक्‍त दूसरे देवताओं को पूजते हैं, किन्‍तु उनका वह पूजन अविधि पूर्वक अर्थात अज्ञान पूर्वक हैं।[34][25] क्‍योंकि सम्‍पूर्ण यज्ञों का भोक्‍ता और स्‍वामी भी मैं ही हॅू[35] परन्‍तु वे मुझ परमेश्‍वर को तत्‍व से नहीं जानते, इसी से गिरते हैं अर्थात पुनर्जन्म को प्राप्त होते हैं।

सम्बंध -भगवान के भक्त आवागमन को प्राप्त नहीं होते और अन्य देवताओं के उपासक आवागमन को प्राप्त होते हैं, इसका क्‍या कारण है? इस जिज्ञासा पर उपास्‍य के स्‍वरूप और उपवास के भाव से उपासना के फल में भेद होने का नियम बतलाते हैं- देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्‍त होते है, पितरों को पूजने वाले पितरों को प्राप्‍त होते हैं,[36]भूतों को पूजने वाले भूतों को प्राप्‍त होते हैं[37] और मेरा पूजन करने वाले भक्‍त मुझको ही प्राप्‍त होते हैं।[38] इसीलिये मेरे भक्‍तों का पुनर्जन्‍म नहीं होता।[39]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 33 श्लोक 14-18
  2. गीता के तीसरे अध्याय के तीसरे श्लोक में जिस ‘ज्ञानयोग’ का वर्णन हैं यहाॅ भी ‘ज्ञानयज्ञ’ का वही स्वरूप है। उसके अनुसार शरीर इन्द्रियों और मन द्वारा होने वाले समस्त कर्मो में मायामय गुण ही गुणों में बरत रहे हैं- ऐसा समझकर कर्तापन के अभिमान से रहित रहना सम्पूर्ण दृष्य वर्ग को परमात्मा के अतिरिक्त अन्य किसी की भी सत्ता न मानकर निरन्तर उसी का श्रवण, मनन और निदिध्यासन करते हुए उस सच्चिदानन्दवन ब्रह्म में नित्य अभिन्न भाव से स्थित रहने का अभ्यास करते रहना - यही ‘ज्ञानयज्ञ के द्वारा पूजन करते हुए उसकी उपासना करना’ हैं।
  3. समस्त विश्‍व उस भगवान् से ही उत्पन्न हुआ है और भगवान् ही इसमें व्याप्त हैं। अतः भगवान् स्वयं ही विश्‍व रूप में स्थित हैं। इसलिये चन्द्र, सूर्य, अग्नि, इन्द्र और वरुण आदि विभिन्न देवता तथा और भी समस्त वाणी भगवान् के ही स्वरूप हैं - ऐसा समझकर जो उन सबकी अपने कर्मो द्वारा यथा योग्य निष्काम भाव से सेवा पूजा करना है (गीता 18।46)- यही ‘बहुत प्रकार से स्थित भगवान् के विराट स्वरूप की पृथग्भाव से उपासना करना’ है।
  4. श्रौत कर्म को ‘क्रतु’ कहते हैं।
  5. पन्चमहायज्ञादि स्मार्त्त कर्म ‘यज्ञ’ कहलाते है।
  6. पितरों के निमित्त प्रदान किया जाने वाला अन्न ‘स्वधा’ कहलाता है।
  7. ‘अग्नि’ से यहाँ गार्हपत्य आहवनीय और दक्षिणाग्नि आदि सभी प्रकार के अग्नि समझने चाहिये।
  8. अभिप्राय यह है कि यज्ञ, श्राद्ध आदि शास्त्रीय शुभ कर्म में प्रयोजनीय समस्त वस्तुऍ तत्सम्बन्धी मन्त्र, जिनमें यज्ञादि किये जाते हैं, वे अविष्ठान तथा मन, वाणी, शरीर से होने वाली तदिषयक समस्त चेष्टाएं - ये सब भगवान् के ही स्वरूप है।
  9. यह चराचर प्राणियों के सहित समस्त विश्‍व भगवान् से ही उत्पन्न हुआ है, भगवान् ही इसके महाकारण हैं।
  10. जिन ब्रह्मा आदि प्रजातियों से सृष्टि की रचना होती है, उनको भी उत्पन्न करने वाले भगवान् ही है; इसीलिये उन्होंने अपने को इसका ‘पितामह’ बतलाया है।
  11. जो स्वयं विशुद्ध हो और सहज ही दूसरों के पापों का नाश करके उन्हें भी विशुद्ध बना दे, उसे ‘पवित्र’ कहते हैं। भगवान् परम पवित्र हैं तथा भगवान् के दर्शन, भाषण और स्मरण से मनुष्य परम पवित्र हो जाते हैं।
  12. ‘ऊॅ’ भगवान् का नाम है, इसी को प्रणव भी कहते हैं। गीता के आठवें अध्याय के तेरहवें श्लोक में इसे ब्रह्म बतलाया है तथा इसी का उच्चारण करने के लिये कहा गया है। यहाँ नाम तथा नामी का अभेद प्रतिपादन करने के लिये भगवान् ने अपने को ओकांर बतलाया है।
  13. ‘ऋृक्’, ‘साम’ और ‘यजुः’ - ये तीनों पद वेदों के वाचक हैं। वेदों का प्राकट्य भगवान् से हुआ है तथा सारे वेदों से भगवान् का ज्ञान होता है, इसलिये सब वेदों को भगवान् ने अपना स्वरूप बतलाया है।
  14. प्राप्त करने की वस्तु का नाम ‘गति’ है। सबसे बढ़कर प्राप्त करने की वस्तु एक मात्र भगवान् ही हैं, इसलिये उन्होंने अपने को ‘गति’ कहा है। ‘परा गति’, ‘परमा गति’, ‘अविनाशी पद’ आदि नाम भी इसी के हैं।
  15. भगवान् ही ईश्वरयों के महान् ईश्वर, देवताओं के परम दैवत, पतियों के परम पति, समस्त भुवनों के स्वामी और परम पूज्य परमदेव हैं (श्‍वेताश्‍वतर उप. 6।7)
  16. जिसकी शरण ली जाय उसे ‘शरणम्’ कहते है। भगवान् के समान शरणागत वत्सल, प्रणतपाल और शरणागत के दुःखों का नाश करने वाला अन्य कोई भी नहीं है। वाल्मीकी ने रामायण में कहा हैं- सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते। अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम॥ (6।16।33) अर्थात् ‘एक बार भी ‘मैं तेरा हॅू’ यों कहकर मेरी शरण में आये हुए और मुझसे अभय चाहने वाले को मैं सभी भूतों से अभय कर देता हॅू, यह मेरा व्रत है।’ इसीलिये भगवान् ने अपने को ‘शरण’ कहा है।
  17. भगवान् समस्त प्राणियों के बिना ही कारण उपकार करने वाले परम हितैषी और सबके साथ अतिशय प्रेम करने वाले परम बन्धु हैं, इसलिये उन्होंने अपने को ‘सुहृत्’ कहा है।
  18. जिसमें कोई वस्तु बहुत दिनों के लिये रखी जाती हो, उसे ‘निधान’ कहते हैं। महाप्रलय समस्त प्राणियों के सहित अव्यक्त प्रकृति भगवान् के ही किसी एक अंश में धरोहर की भाँति बहुत समय तक अक्रिय अवस्था में स्थित रहती है, इसलिये भगवान् ने अपने को ‘निधान’ कहा है।
  19. जिसका कभी नाश न हो, उसे ‘अव्यय’ कहते है। भगवान् समस्त चराचर भूतप्राणियों के अविनाशी कारण हैं। सबकी उत्पत्ति उन्हीं से होती है, वे ही सब के परम आधार हैं। इसी से उनको ‘अव्यय बीज’ कहा है। गीता के सातवें अध्याय के दसवे श्लोक में उन्होंने ‘सनातन बीज’ और दसवें अध्याय के उन्चालीसवें श्लोक में ‘सब भूतों का बीच’ बतलाया गया है।
  20. इस श्लोक में जितने भी शब्द आये हैं, सब के सब भगवान् के विशेषण है; अतः इस श्लोक में पूर्व श्लोकों की भाँति ‘अहम’ पद का प्रयोग नहीं किया गया।
  21. इस कथन से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि अपनी किरणों द्वारा समस्त जगत् को उष्णता और प्रकाश प्रदान करने वाला तथा समुद्र आदि स्थानों से जल को उठाकर रोक रखने वाला तथा उसे लोक हितार्थ मेघों के द्वारा यथासमय यथायोग्य वितरण करने वाला सूर्य भी मेरा ही स्वरूप है।
  22. वास्तव में अमृत तो एक भगवान् ही हैं, जिनकी प्राप्ति हो जाने पर मनुष्य सदा के लिये मृत्यु के पाश से मुक्त हो जाता हॅू‚ इसीलिये भगवान् ने अपने को ‘अमृत’ कहा है और इसलिये मुक्ति को भी ‘अमृत’ कहते हैं।
  23. सबका नाश करने वाले ‘काल’ को ‘मृत्यु’ कहते है। भगवान् ही यथा समय लोको का संहार करने के लिये महाकाल रूप धारण किय रहते हैं। वे काल के भी काल हैं। इसीलिये भगवान् ‘मृत्यु’ को अपना स्वरूप बतलाया है।
  24. जिसका कभी अभाव नहीं होता‚ उस अविनाशी आत्मा को ‘सत्’ कहते हैं और नाशवान अनित्य वस्तु मात्र का नाम ‘असत्’ है। इन्हीं दोनों को गीता के पंद्रहवें अध्याय में ‘अक्षर’ और ‘क्षर’ पुरुष के नाम से कहा गया है। ये दोनों ही भगवान् से अभिन्न हैं‚ इसलिये भगवान् ने सत् और असत् को अपना स्वरूप कहा है।
  25. 25.0 25.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 33 श्लोक 19-23
  26. ऋक्‚ यजु और साम - इन तीनों वेदों के ‘वेदत्रयी’ अथवा त्रिविद्या कहते हैं। इन तीनों वेदों में वर्णित नाना प्रकार के यज्ञों की विधि और उनके फल में श्रद्धा - प्रेम रखने वाले एवं उसके अनुसार सकाम कर्म करने वाले मनुष्यों को ‘त्रैविद्य’ कहते हैं। यज्ञों में सोमलता के रसपान की जो विधि बतलायी गयी है‚ उस विधि से सोमलता के रसपान करने वालों को ‘सोमपा’ कहते हैं। उपर्युक्त वेदोक्त कर्मों का विधिपूर्वक अनुष्ठान करने से जिनके स्वर्ग प्राप्ति में प्रतिबंध स्वरूप पाप नष्ट हो गयें हैं उनको 'पूतपाप' कहते हैं। ये तीनों विशेषण ऐसी श्रेणी के मनुष्यों के लिये हैं‚ जो भगवान् की सर्वरूपता से अनभिज्ञ हैं और वेदोक्त कर्म काण्ड पर प्रेम और श्रद्धा रखकर कर्मो से बचते हुए सकाम भाव से यज्ञादि कर्मो का विधि पूर्वक अनुष्ठान किया करते हैं।
  27. यज्ञादि पुण्य कर्मो के फलरूप में प्राप्त होने वाले इन्द्र लोक से लेकर ब्रह्मलोक पर्यन्त जितने भी लोक हैं‚ उन सबको लक्ष्य करके श्लोक में ‘पुण्यम्’ विशेषण सहित ‘सुरेन्द्रलोकम्’ पद का प्रयोग किया गया है। अतः ‘सुरेन्द्रलोकम्’ पद इन्द्र लोक का वाचक होते हुए भी उसे उपर्युक्त सभी लोकों का वाचक समझना चाहिये।
  28. स्वर्गादि लोकों के विस्तार का वहाँ की भोग्य वस्तुओं का‚ भोग प्रकारों का‚ भोग्य वस्तुओं की सुख रूपता का और भोगने योग्य शारीरिक तथा मानसिक शक्ति और परमाणु आदि सभी का अनेक प्रकार का परिमाण मृत्यु लोक की अपेक्षा कहीं विशद और महान् है। इसीलिये उसको ‘विशाल’ कहा गया है।
  29. भगवान् के स्वरूप तत्‍व को न जानने वाले सकाम मनुष्य अनन्य चित्त से भगवान् शरण ग्रहण नहीं करते‚ भोग कामना के वश में होकर उपर्युक्त धर्म का आश्रय लेते हैं। इसी कारण उनके कर्मो का फल अनित्य हैं और इसीलिये उन्हें फिर मृत्‍यु लोक में लौटना पड़ता है।
  30. जिनका संसार के समस्त भोगों से प्रेम हटकर केवल मात्र भगवान् में अटल और अचल प्रेम हो गया है‚ भगवान् का वियोग जिनके लिये असह्य है‚ जिनका भगवान् से भिन्न दूसरा कोई भी उपास्यदेव नहीं है और जो भगवान् को ही परम आश्रय‚ परम गति और परम प्रेमास्पद मानते हैं -ऐसे अनन्य प्रेमी एक निष्ठ भक्तों का विशेषण ‘‘अनन्याः’ पद है।
  31. सगुण भगवान् पुरुषोत्‍तम के गुण, प्रभाव, तत्‍व और रहस्‍य को समझकर, चलते-‍फिरते, उठते- बैठते, सोते –जागते और एकान्‍त में साधन करते, सब समय निरन्‍तर अविच्छिन्‍न रूप से उनका चिन्‍तन करते हुए, उन्‍हीं के आज्ञानुसार निष्‍काम भाव से उन्‍हीं की प्रसन्‍नता के लिये चेष्‍ठा करते रहना – यही ‘उनका चिन्‍तन करते हुए भजन करना’ है।
  32. अप्राप्‍त की प्राप्ति नाम ‘योग’ और प्राप्‍त की रक्षा का नाम ‘क्षेम’ हैा अतः भगवान् की प्राप्ति के लिये जो साधन उन्‍हें प्राप्‍त है, सब प्रकार के विघ्‍न बाधाओं से बचाकर उसकी रक्षा करना और जिस साधन की कमी है, उसकी पूर्ति करके स्‍वयं अपनी प्राप्ति करा देना- यही ‘उन प्रेमी भक्‍तों का योगक्षेम चलाना’ हैा भक्‍त प्रहलाद का जीवन इसका सुन्‍दर उदाहरण हैा हिरण्‍यकशिपुद्वारा उसके साधन में बडे-बडे विघ्‍न उपस्थित किये जाने पर भी सब प्रकार से भगवान् ने उसकी रक्षा करके अन्‍त में उसे अपनी प्राप्ति करवा दी। जो पुरुष भगवान् के ही परायण होकर अनन्‍यचित से उनका प्रेम पूर्वक निरन्‍तर चिन्‍तन करते हुए ही सब कार्य करते हैं, अन्‍य किसी भी विषय की कामना, अपेक्षा और चिन्‍ता नहीं करते, उनके जीवन निर्वाह का सारा भार भी भगवान् पर रहता हैा अतः वे सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सर्वदशीं, परम सुहदय भगवान् ही अपने भक्‍त का लौकिक और पारमार्थिक सब प्रकार का योगक्षेम चलाते है।
  33. वेद-शास्‍त्रों में वर्णित देवता, उनकी उपासना और स्‍वर्गादि की प्राप्ति रूप उसके फल पर जिनका आदरपूर्वक दृढ़ विश्‍वास हो, उनको यहाँ ‘श्रद्धा से युक्‍त’ कहा गया है और इस विशेषण का प्रयोग करके यह भाव दिखलाया गया है कि जो बिना श्रद्धा के दम्‍भपूर्वक यज्ञादि कर्मो द्वारा देवताओं का पूजन करते हैं, वे इस श्रेणी में नहीं आ सकते; उनकी गणना तो आसुरी प्रकृति के मनुष्‍यों में है।
  34. जिस कामना की सिदिद् के लिये जिस देवता की पूजा का शास्‍त्र में विधान है, उस देवता की शास्‍त्रोक्‍त यज्ञादि कर्मो द्वारा श्रद्धा पूर्वक पूजा करना ‘दूसरे देवताओं की पूजा करना’ हैा समस्‍त देवता भी भगवान् के ही अंगभूत हैं, भगवान् ही सबके स्‍वामी हैं और वस्‍तुतः भगवान् ही उनके रूप में प्रकट हैं – इस तत्‍व को न जानकर उन देवताओं को भगवान् से भिन्‍न समझकर सकाम भाव से जो उनकी पूजा करना है, यही भगवान् की ‘अविधिपूर्वक’ पूजा है।
  35. यह सारा विश्‍व भगवान् का ही विराट रूप होने के कारण भिन्‍न भिन्‍न यज्ञ पूजादि कर्मो के भोक्‍ता रूप में माने जाने वाले जितने भी देवता है, सब भगवान् के ही अंग हैं तथा भगवान् ही उन सबकी आत्मा हैं (गीता 10।20) अतः उन देवताओं के रूप में भगवान् ही समस्‍त यज्ञादि कर्मो के भोक्‍ता हैं। भगवान् ही अपनी योग शक्ति द्वारा सम्‍पूर्ण जगत् की उत्‍पति, स्थिति और प्रलय करते हुए सबको यथा योग्‍य नियम में चलाते हैं वे ही इन्‍द्र, वरुण, यमराज, प्रजापति आदि जितने भी लोकपाल और देवतागण हैं- उन सबके नियन्‍ता हैं इसलिये वही सबके प्रभु अर्थात् महेश्‍वर हैं। (गीता 5।29)
  36. देवताओं की पूजा करना, उनकी पूजा के लिये बतलाये हुए नियमों का पालन करना, उनके निमित्‍त यज्ञादि का अनुष्‍ठान करना, उनके मन्‍त्र का जप करना और उनके निमित्‍त ब्राह्मण को भोजन कराना – इत्‍यादि सभी बाते ‘देवताओं के व्रत’ हैं। इनका पालन करने वाले मनुष्‍यों को अग्‍नी उपासना के फलस्‍परूप जो उन देवताओं के लोको की, उनके सद्श भोगों की अथवा उनके जैसे रूप की प्राप्ति होती है, वही देवों को प्राप्‍त होना है। पितरों के लिये यथा विधि श्राध्‍द – तर्पण करना, उनके निमित्‍त ब्राह्मणों को भोजन कराना, हवन करना, जप करना, पाठ पूजा करना तथा उनके लिये शास्‍त्र में बतलाये हुए व्रत और नियमों का भलीभाँति पालन करना आदि ‘पितरों के व्रत’ हैं और जो मनुष्‍य सकामभाव से इन व्रतों का पालन करते हैं, वे मरने के बाद पितृलोक में जाते है। ये भी अधिक से अधिक देवताओं या दिव्‍य पितरों की आयुपर्यन्‍त ही वहाँ रह सकते हैं। अन्‍त में इनका भी पुनरागमन होता है। यहाँ देव और पितरों की पूजा का निषेध नहीं समझना चाहियेा देव पितृ पूजा तो यथा विधि अपने अपने वर्णाश्रम के अधिकारनुसार सबको अवश्‍य ही करनी चाहिये; परन्‍तु वह पूजा यदि सकामभाव से होती है तो अपना अधिक से अधिक फल देकर नष्‍ट हो जाती है और यदि कर्तव्‍यबुघ्दि से भवगत आज्ञा मानकर या भवगत पूजा समझकर की जाती है तो वह भगवत् प्राप्ति रूप महान फल में कारण होती है। इसलिये यहाँ समझना चाहिये कि देव पितृकर्म तो अवश्‍य ही करें; परन्‍तु उनमें निष्‍काम भाव लाने का पालन करें।
  37. जो प्रेत और भूतगणों की पूजा करते हैं, उनकी पूजा के नियमों का पालन करते हैं, उनके लिये हवन या दान आदि करते हैं, ऐसे मनुष्‍यों का जो उन-उन भूत प्रेतादि के समान रूप, भोग आदि को प्राप्‍त होना है, वही उनको प्राप्‍त होना हैा भूत- प्रेतों की पूजा तामसी है तथा अनिष्‍ट फल देने वाली है, इसलिये उसको नहीं करना चाहिये।
  38. जो पुरुष भगवान् के सगुण निराकार अथवा साकार--किसी भी रूप का सेवन पूजन और भजन ध्‍यान आदि करते हैं, समस्‍त कर्म उनके अर्पण करते हैं, उनके नाम का जप करते हैं, गुणानुवाद सुनते और गाते हैं तथा इसी प्रकार भगवद भक्ति विषयक अनेक प्रकार के साधन करते हैं, वे भगवान् का पूजन करने वाले भक्‍त हैं और उनका भगवान् के दिव्‍य लोक में जाना, भगवान् के समीप रहना, उनके जैसे ही दिव्‍य रूप को प्राप्‍त होना अथवा उनमें लीन हो जाना – यही भगवान् को प्राप्‍त होना है।
  39. महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 33 श्लोक 24-28

सम्बंधित लेख

महाभारत भीष्म पर्व में उल्लेखित कथाएँ


जम्बूखण्डविनिर्माण पर्व
कुरुक्षेत्र में उभय पक्ष के सैनिकों की स्थिति | कौरव-पांडव द्वारा युद्ध के नियमों का निर्माण | वेदव्यास द्वारा संजय को दिव्य दृष्टि का दान | वेदव्यास द्वारा भयसूचक उत्पातों का वर्णन | वेदव्यास द्वारा अमंगलसूचक उत्पातों का वर्णन | वेदव्यास द्वारा विजयसूचक लक्षणों का वर्णन | संजय द्वारा धृतराष्ट्र से भूमि के महत्त्व का वर्णन | पंचमहाभूतों द्वारा सुदर्शन द्वीप का संक्षिप्त वर्णन | सुदर्शन द्वीप के वर्ष तथा शशाकृति आदि का वर्णन | उत्तर कुरु, भद्राश्ववर्ष तथा माल्यवान का वर्णन | रमणक, हिरण्यक, शृंगवान पर्वत तथा ऐरावतवर्ष का वर्णन | भारतवर्ष की नदियों तथा देशों का वर्णन | भारतवर्ष के जनपदों के नाम तथा भूमि का महत्त्व | युगों के अनुसार मनुष्यों की आयु तथा गुणों का निरूपण
भूमि पर्व
संजय द्वारा शाकद्वीप का वर्णन | कुश, क्रौंच तथा पुष्कर आदि द्वीपों का वर्णन | राहू, सूर्य एवं चन्द्रमा के प्रमाण का वर्णन
श्रीमद्भगवद्गीता पर्व
संजय का धृतराष्ट्र को भीष्म की मृत्यु का समाचार सुनाना | भीष्म के मारे जाने पर धृतराष्ट्र का विलाप | धृतराष्ट्र का संजय से भीष्मवध घटनाक्रम जानने हेतु प्रश्न करना | संजय द्वारा युद्ध के वृत्तान्त का वर्णन आरम्भ करना | दुर्योधन की सेना का वर्णन | कौरवों के व्यूह, वाहन और ध्वज आदि का वर्णन | कौरव सेना का कोलाहल तथा भीष्म के रक्षकों का वर्णन | अर्जुन द्वारा वज्रव्यूह की रचना | भीमसेन की अध्यक्षता में पांडव सेना का आगे बढ़ना | कौरव-पांडव सेनाओं की स्थिति | युधिष्ठिर का विषाद और अर्जुन का उन्हें आश्वासन | युधिष्ठिर की रणयात्रा | अर्जुन द्वारा देवी दुर्गा की स्तुति | अर्जुन को देवी दुर्गा से वर की प्राप्ति | सैनिकों के हर्ष तथा उत्साह विषयक धृतराष्ट्र और संजय का संवाद | कौरव-पांडव सेना के प्रधान वीरों तथा शंखध्वनि का वर्णन | स्वजनवध के पाप से भयभीत अर्जुन का विषाद | कृष्ण द्वारा अर्जुन का उत्साहवर्धन एवं सांख्ययोग की महिमा का प्रतिपादन | कृष्ण द्वारा कर्मयोग एवं स्थितप्रज्ञ की स्थिति और महिमा का प्रतिपादन | कर्तव्यकर्म की आवश्यकता का प्रतिपादन एवं स्वधर्मपालन की महिमा का वर्णन | कामनिरोध के उपाय का वर्णन | निष्काम कर्मयोग तथा योगी महात्मा पुरुषों के आचरण एवं महिमा का वर्णन | विविध यज्ञों तथा ज्ञान की महिमा का वर्णन | सांख्ययोग, निष्काम कर्मयोग, ज्ञानयोग एवं ध्यानयोग का वर्णन | निष्काम कर्मयोग का प्रतिपादन और आत्मोद्धार के लिए प्रेरणा | ध्यानयोग एवं योगभ्रष्ट की गति का वर्णन | ज्ञान-विज्ञान एवं भगवान की व्यापकता का वर्णन | कृष्ण का अर्जुन से भगवान को जानने और न जानने वालों की महिमा का वर्णन | ब्रह्म, अध्यात्म तथा कर्मादि विषयक अर्जुन के सात प्रश्न और उनका उत्तर | कृष्ण द्वारा भक्तियोग तथा शुक्ल और कृष्ण मार्गों का प्रतिपादन | ज्ञान विज्ञान सहित जगत की उत्पत्ति का वर्णन | प्रभावसहित भगवान के स्वरूप का वर्णन | आसुरी और दैवी सम्पदा वालों का वर्णन | सकाम और निष्काम उपासना का वर्णन | भगवद्भक्ति की महिमा का वर्णन | कृष्ण द्वारा अर्जुन से शरणागति भक्ति के महत्त्व का वर्णन | कृष्ण द्वारा अपनी विभूति और योगशक्ति का वर्णन | कृष्ण द्वारा प्रभावसहित भक्तियोग का कथन | कृष्ण द्वारा अपनी विभूतियों और योगशक्ति का पुन: वर्णन | अर्जुन द्वारा कृष्ण से विश्वरूप का दर्शन कराने की प्रार्थना | कृष्ण और संजय द्वारा विश्वरूप का वर्णन | अर्जुन द्वारा कृष्ण के विश्वरूप का देखा जाना | अर्जुन द्वारा कृष्ण की स्तुति और प्रार्थना | कृष्ण के विश्वरूप और चतुर्भुजरूप के दर्शन की महिमा का कथन | साकार और निराकार उपासकों की उत्तमता का निर्णय | भगवत्प्राप्ति वाले पुरुषों के लक्षणों का वर्णन | ज्ञान सहित क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का वर्णन | प्रकृति और पुरुष का वर्णन | ज्ञान की महिमा और प्रकृति-पुरुष से जगत की उत्पत्ति का वर्णन | सत्त्व, रज और तम गुणों का वर्णन | भगवत्प्राप्ति के उपाय तथा गुणातीत पुरुषों के लक्षणों का वर्णन | संसारवृक्ष और भगवत्प्राप्ति के उपाय का वर्णन | प्रभाव सहित परमेश्वर के स्वरूप और पुरुषोत्तम के तत्त्व का वर्णन | दैवी और आसुरी सम्पदा का फलसहित वर्णन | शास्त्र के अनुकूल आचरण करने के लिए प्रेरणा | श्रद्धा और शास्त्र विपरीत घोर तप करने वालों का वर्णन | आहार, यज्ञ, तप और दान के भेद की व्याख्या | ओम, तत्‌ और सत्‌ के प्रयोग की व्याख्या | त्याग और सांख्यसिद्धान्त का वर्णन | भक्तिसहित निष्काम कर्मयोग का वर्णन | फल सहित वर्ण-धर्म का वर्णन | उपासना सहित ज्ञाननिष्ठा का वर्णन | भक्तिप्रधान कर्मयोग की महिमा का वर्णन | गीता के माहात्म्य का वर्णन
भीष्मवध पर्व
युधिष्ठिर का भीष्म, द्रोण आदि से अनुमति लेकर युद्ध हेतु तैयार होना | कौरव-पांडवों के प्रथम दिन के युद्ध का प्रारम्भ | उभय पक्ष के सैनिकों का द्वन्द्व युद्ध | कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध | भीष्म के साथ अभिमन्यु का भयंकर युद्ध | शल्य द्वारा उत्तरकुमार का वध और श्वेत का पराक्रम | विराट के पुत्र श्वेत का महापराक्रम | भीष्म द्वारा श्वेत का वध | भीष्म का प्रचण्ड पराक्रम तथा प्रथम दिन के युद्ध की समाप्ति | युधिष्ठिर की चिंता और श्रीकृष्ण द्वारा उनको आश्वासन | धृष्टद्युम्न का उत्साह और क्रौंचारुण व्यूह की रचना | कौरव सेना की व्यूह रचना | कौरव-पांडव सेना में शंखध्वनि और सिंहनाद | भीष्म और अर्जुन का युद्ध | धृष्टद्युम्न और द्रोणाचार्य का युद्ध | भीमसेन का कलिंगों और निषादों से युद्ध | भीमसेन द्वारा शक्रदेव और भानुमान का वध | भीमसेन द्वारा कई गजराजों और केतुमान का वध | भीमसेन द्वारा कौरव सेना के असंख्य सैनिकों का वध | अभिमन्यु और अर्जुन का पराक्रम तथा दूसरे दिन के युद्ध की समाप्ति | कौरव-पांडवों की व्यूह रचना | उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध | पांडव वीरों का पराक्रम और कौरव सेना में भगदड़ | दुर्योधन और भीष्म का संवाद | भीष्म का पराक्रम | कृष्ण का भीष्म को मारने के लिए उद्यत होना | अर्जुन द्वारा कौरव सेना की पराजय और तीसरे दिन के युद्ध की समाप्ति | कौरव-पांडव सेनाओं का व्यूह निर्माण | भीष्म और अर्जुन का द्वैरथ युद्ध | अभिमन्यु का पराक्रम | धृष्टद्युम्न द्वारा शल के पुत्र का वध | धृष्टद्युम्न और शल्य आदि दोनों पक्ष के वीरों का युद्ध | भीमसेन द्वारा गजसेना का संहार | भीमसेन का पराक्रम | सात्यकि और भूरिश्रवा की मुठभेड़ | भीमसेन और घटोत्कच का पराक्रम | कौरवों की पराजय तथा चौथे दिन के युद्ध की समाप्ति | धृतराष्ट्र-संजय प्रसंग में दुर्योधन का भीष्म से पांडवों की विजय का कारण पूछना | भीष्म का ब्रह्मा द्वारा की हुई भगवत-स्तुति का कथन | नारायणावतार श्रीकृष्ण एवं नरावतार अर्जुन की महिमा का प्रतिपादन | भगवान श्रीकृष्ण की महिमा | ब्रह्मभूतस्तोत्र तथा श्रीकृष्ण और अर्जुन की महत्ता | कौरवों द्वारा मकरव्यूह तथा पांडवों द्वारा श्येनव्यूह का निर्माण | भीष्म और भीमसेन का घमासान युद्ध | भीष्म, अर्जुन आदि योद्धाओं का घमासान युद्ध | कौरव-पांडव सेनाओं का परस्पर घोर युद्ध | कौरव-पांडव योद्धाओं का द्वन्द्व युद्ध | भूरिश्रवा द्वारा सात्यकि के दस पुत्रों का वध | अर्जुन का पराक्रम तथा पाँचवें दिन के युद्ध की समाप्ति | पांडवों द्वारा मकरव्यूह तथा कौरवों द्वारा क्रौंचव्यूह का निर्माण | धृतराष्ट्र की चिन्ता | भीमसेन, धृष्टद्युम्न तथा द्रोणाचार्य का पराक्रम | उभय पक्ष की सेनाओं का संकुल युद्ध | भीमसेन के द्वारा दुर्योधन की पराजय | अभिमन्यु आदि का धृतराष्ट्रपुत्रों के साथ युद्ध तथा छठे दिन के युद्ध की समाप्ति | भीष्म द्वारा दुर्योधन को आश्वासन | कौरव-पांडव सेनाओं का मण्डल और वज्रव्यूह बनाकर भीषण संघर्ष | श्रीकृष्ण और अर्जुन से डरकर कौरव सेना में भगदड़ | द्रोणाचार्य और विराट का युद्ध तथा विराटपुत्र शंख का वध | शिखण्डी और अश्वत्थामा का युद्ध | सात्यकि द्वारा अलम्बुष की पराजय | धृष्टद्युम्न और दुर्योधन तथा भीमसेन और कृतवर्मा का युद्ध | इरावान द्वारा विन्द-अनुविन्द की पराजय | भगदत्त द्वारा घटोत्कच की पराजय | मद्रराज पर नकुल और सहदेव की विजय | युधिष्ठिर द्वारा राजा श्रुतायु की पराजय | महाभारत युद्ध में चेकितान और कृपाचार्य का मूर्छित होना | भूरिश्रवा से धृष्टकेतु तथा अभिमन्यु से चित्रसेन आदि की पराजय | सुशर्मा आदि से अर्जुन का युद्धारम्भ | अर्जुन का पराक्रम और पांडवों का भीष्म पर आक्रमण | युधिष्ठिर का शिखण्डी को उपालम्भ | भीमसेन का पुरुषार्थ | भीष्म और युधिष्ठिर का युद्ध | धृष्टद्युम्न के साथ विन्द-अनुविन्द का संग्राम | द्रोण आदि का पराक्रम और सातवें दिन के युद्ध की समाप्ति | व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं की रणयात्रा | व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं का घमासान युद्ध | भीष्म का रणभूमि में पराक्रम | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के आठ पुत्रों का वध | दुर्योधन और भीष्म का युद्ध विषयक वार्तालाप | कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध और भयानक जनसंहार | इरावान द्वारा शकुनि के भाइयों का वध | अलम्बुष द्वारा इरावान का वध | घटोत्कच और दुर्योधन का भयानक युद्ध | घटोत्कच का दुर्योधन एवं द्रोण आदि वीरों के साथ युद्ध | घटोत्कच की रक्षा के लिए भीमसेन का आगमन | भीम आदि शूरवीरों के साथ कौरवों का युद्ध | दुर्योधन और भीमसेन तथा अश्वत्थामा और राजा नील का युद्ध | घटोत्कच की माया से कौरव सेना का पलायन | भीष्म की आज्ञा से भगदत्त का घटोत्कच से युद्ध हेतु प्रस्थान | भगदत्त का घटोत्कच, भीमसेन और पांडव सेना के साथ युद्ध | इरावान के वध से अर्जुन का दु:खपूर्ण उद्गार | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के नौ पुत्रों का वध | अभिमन्यु और अम्बष्ठ का युद्ध | युद्ध की भयानक स्थिति का वर्णन और आठवें दिन के युद्ध की समाप्ति | दुर्योधन की शकुनि तथा कर्ण आदि के साथ पांडवों पर विजय हेतु मंत्रणा | दुर्योधन का भीष्म से पांडवों का वध अथवा कर्ण को युद्ध हेतु आज्ञा देने का अनुरोध | भीष्म का दुर्योधन को अर्जुन का पराक्रम बताना और भयंकर युद्ध की प्रतिज्ञा | दुर्योधन द्वारा भीष्म की रक्षा की व्यवस्था | उभयपक्ष की सेनाओं की व्यूह रचना तथा घमासान युद्ध | विनाशसूचक उत्पातों का वर्णन | अभिमन्यु के पराक्रम से कौरव सेना का युद्धभूमि से पलायन | अभिमन्यु तथा द्रौपदी के पुत्रों का अलम्बुष से घोर युद्ध | अभिमन्यु द्वारा अलम्बुष की पराजय | अर्जुन के साथ भीष्म का युद्ध | कृपाचार्य, द्रोणाचार्य तथा अश्वत्थामा के साथ सात्यकि का युद्ध | द्रोणाचार्य और सुशर्मा के साथ अर्जुन का युद्ध | भीमसेन द्वारा रणभूमि में गजसेना का संहार | कौरव-पांडव उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध | रक्तमयी रणनदी का वर्णन | अर्जुन द्वारा त्रिगर्तों की पराजय | अभिमन्यु से चित्रसेन की पराजय | सात्यकि और भीष्म का युद्ध | दुर्योधन द्वारा दु:शासन को भीष्म की रक्षा का आदेश | शकुनि की घुड़सवार सेना की पराजय | युधिष्ठिर और नकुल-सहदेव के साथ शल्य का युद्ध | भीष्म द्वारा पराजित पांडव सेना का पलायन | भीष्म को मारने के लिए कृष्ण का उद्यत होना | अर्जुन द्वारा उद्यत हुए कृष्ण को रोकना | नवें दिन के युद्ध की समाप्ति | कृष्ण व पांडवों की गुप्त मंत्रणा | कृष्णसहित पांडवों का भीष्म से उनके वध का उपाय पूछना | उभयपक्ष की सेना का रण प्रस्थान व दसवें दिन के युद्ध का प्रारम्भ | शिखण्डी को आगे कर पांडवों का भीष्म पर आक्रमण | शिखंडी एवं भीष्म का युद्ध | भीष्म-दुर्योधन संवाद | भीष्म द्वारा लाखों पांडव सैनिकों का संहार | अर्जुन के प्रोत्साहन से शिखंडी का भीष्म पर आक्रमण | दु:शासन का अर्जुन के साथ घोर युद्ध | कौरव-पांडव पक्ष के प्रमुख महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन | द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को अशुभ शकुनों की सूचना देना | द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को धृष्टद्युम्न से युद्ध करने का आदेश | कौरव पक्ष के दस महारथियों के साथ भीम का घोर युद्ध | कौरव महारथियों के साथ भीम और अर्जुन का अद्भुत पुरुषार्थ | भीष्म के आदेश से युधिष्ठिर का उन पर आक्रमण | कौरव-पांडव सैनिकों का भीषण युद्ध | कौरव-पांडव महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन | भीष्म का अद्भुत पराक्रम | उभय पक्ष की सेनाओं का युद्ध तथा दु:शासन का पराक्रम | अर्जुन के द्वारा भीष्म का मूर्च्छित होना | भीष्म द्वारा पांडव सेना का भीषण संहार | अर्जुन का भीष्म को रथ से गिराना | शरशय्या पर स्थित भीष्म के पास ऋषियों का आगमन | भीष्म द्वारा उत्तरायण की प्रतीक्षा कर प्राण धारण करना | भीष्म की महत्ता | अर्जुन द्वारा भीष्म को तकिया देना | उभय पक्ष की सेनाओं का अपने शिबिर में जाना एवं कृष्ण-युधिष्ठिर संवाद | अर्जुन द्वारा भीष्म की प्यास बुझाना | अर्जुन की प्रसंशा कर भीष्म का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना | भीष्म और कर्ण का रहस्यमय संवाद

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः