संवर्त का मन्त्रबल से देवताओं को बुलाना और मरुत्त का यज्ञ पूर्ण करना

महाभारत आश्वमेधिक पर्व के अश्वमेधिक पर्व के अंतर्गत अध्याय 10 में संवर्त का मन्त्रबल से देवताओं को बुलाना और मरुत्त द्वारा यज्ञ पूर्ण करने का वर्णन हुआ है।[1]

संवर्त द्वारा मरुत्त की चिंता का निवारण

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! व्यास जी कहते हैं- राजन! धृतराष्ट्र के ऐसा कहने पर राजा मरुत्त ने आकाश में गरजते हुए इन्द्र का शब्द सुनकर सदा तपस्या में तत्पर रहने वाले धर्मज्ञों में श्रेष्ठ संवर्त को इन्द्र के इस कार्य की सूचना दी मरुत्त ने कहा- विप्रवर! देवराज इन्द्र दूर से ही प्रहार करने की चेष्टा कर रहे हैं, वे दूर की राह पर खड़े हैं, इसलिये उनका शरीर दृष्टिगोर नहीं होता। ब्राह्मण शिरोमणे! मैं आपकी शरण में हूँ और आपके द्वारा अपनी रक्षा चाहता हूँ, अत: आप कृपा करके मुझे अभय-दान दें। देखिये, वे वज्रधारी इन्द्र दसों दिशाओं को प्रकाशित करते हुए चले आ रहे हैं। इनके भयंकर एवं अलौकिक सिंहनाद से हमारी यज्ञशाला के सभी सदस्य थर्रा उठे हैं। संवर्त ने कहा- राजसिंह! इन्द्र से तुम्हारा भय दूर हो जाना चाहिये। मैं स्तम्भिनी विद्या का प्रयोग करके बहुत जल्द तुम्हारे आने वाले इस अत्यन्त भयंकर संकट को दूर किये देता हूँ। मुझ पर विश्वास करो ओर इन्द्र से पराजित होने का भय छोड़ दो। नरेश्वर! मैं अभी उन्हें स्तम्भित करता हूँ, अत: तुम इन्द्र से न डरो। मैंने सम्पूर्ण देवताओं के अस्त्र-शस्त्र भी क्षीण कर दिये हैं। चाहे दसों दिशाओं में वज्र गिरे, आँधी चले, इन्द्र स्वयं ही वर्षा बनकर सम्पूर्ण वनों में निरन्तर बरसते रहें, आकश में व्यर्थ ही जलप्लावन होता रहे और बिजली चमके तो भी तुम भयभीत न होओ। अग्रिदेव तुम्हारी सब ओर से रक्षा करें। देवराज इन्द्र तुम्हारे लिये जल की नहीं, सम्पूर्ण कामनाओं की वर्षा करें और तुम्हारे वध के लिये उठे हुए और जलराशि के साथ चंचल गति से चले हुए महाघोर वज्र को वे देवेन्द्र हाथ में ही रखे रहें।[1]

मरुत्त को वरदान प्राप्ति

मरुत्त ने कहा- विप्रवर! आँधी के साथ ही जोर-जोर से होने वाली वज्र की भयंकर गड़गड़ाहट सुनायी दे रही है। इससे रह-रहकर मेरा हृदय काँप उठता है। आज मने में तनिक भी शान्ति नहीं है। सवंर्त ने कहा- नरेन्द्र! तुम्हें इन्द्र के भयंकर वज्र से आज भयभीत नही होना चाहिये। मैं वायु का रूप धारण करके अभी इस वज्र को विष्फल किये देता हूँ। तुम भय छोड़कर मुझ से कोई दूसरा वर माँगो। बताओं, मैं तुम्हारी कौन-सी मानसिक इच्छा पूर्ण करूँ? मरुत्त ने कहा। ब्रह्मर्षे! आप ऐसा प्रयत्न कीजिये, जिससे साक्षात इन्द्र मेरे यज्ञ में शीघ्रतापर्वूक पधारें और अपना हविष्य-भाग ग्रहण करें। साथ ही अन्य देवता भ अपने-अपने स्थान पर आकर बैठ जायँ और सब लोग एक साथ आहुति रूप में प्राप्त हुए सोमरस का पान करें। (तदनन्तर संवर्त ने अपने मंत्र बल से सम्पूर्ण देवताओं का आवाहन किया और) मरुत्त से कहा।[2]

संवर्त का मन्त्रबल से देवताओं को बुलाना

संवर्त ने कहा- राजन! ये इन्द्र सम्पूर्ण देवताओं के द्वारा अपनी स्तुति सुनते शीघ्रगामी अश्वों से युक्त रथ की सवारी से आ रहे हैं। मैंने मंत्रबल से आज इस यज्ञ में इनका आवाहन किया है। देखा, मंत्रशक्ति से इनका शरीर इधर खिंचता चला आ रहा है। तत्पश्चात देवराज इन्द्र अपने रथ में उन सफेद रंग के अच्छे घोड़ों को जोतकर देवताओं को साथ ले सोमपान की इच्छा से अनुपम पराक्रमी राजा मरुत्त की यज्ञशाला में आ पहुँचें। देववृन्द के साथ इन्द्र को आते देख राजा मरुत्त ने अपने पुरोहित संवर्त मुनि के साथ आगे बढ़कर उनकी आगवानी की और बड़ी प्रसन्नता के साथ शास्त्रीय विधि से उनका अग्रपूजन किया। सवंर्त ने कहा- पुरुहूत इन्द्र! आपका स्वागत हैद्ध विद्वन! आपके यहाँ पधारने से इस यज्ञ की शोभा बहुत बढ़ गयी है। बल और वृत्रासुर का वध करने वाले देवराज! मेरे द्वारा तैयार किया हुआ यह सोमरस प्रस्तुत है, आप इसका पान कीजिये। मरुत्त ने कहा।

सुरेन्द्र! आपको नमस्कार है। आप मुझे कल्याणमयी दृष्टि से देखिये। आपके पदार्पण से मेरा यज्ञ और जीवन सफल हो गया। बृहस्पति जी के छोटे भाई ये विप्रवर संवर्त जी मेरा यज्ञ करा रहे हैं। इन्द्र ने कहा- नरेन्द्र! आपके इन गुरुदेव को मैं जानता हूँ। ये बृहस्पति जी के छोटे भाई और तपस्या के धनी हैं। इनका तेज दु:सह है। इन्हीं के आवाहन से मुझे आना पड़ा है। अब मैं आप पर प्रसन्न हूँ और मेरा सारा क्रोध दूर हो गया हैं। संवर्त ने कहा- देवराज! यदि आप प्रसन्न हैं तो यज्ञ में जो-जो कार्य आवश्यक है, उसका स्वयं ही उपदेश दीजिये तथा सुरेन्द्र! स्वयं ही सब देवताओं के भाग निश्चित कीजिये। देव! यहाँ आये हुए सब लोग आपकी प्रसन्नता का प्रत्यक्ष अनुभव करें। व्यास जी ने कहते हैं- राजन! संवर्त के यों कहने पर इन्द्र ने स्वयं ही सब देवताओं को आज्ञा दी कि ‘तुम सब लोग अतयन्त समृद्ध एवं चित्र- विचित्र ढंग के हजारों अच्दे सभा-भवन बनाओ। ‘गन्धर्वों और अप्सराओं के लिये ऐसे रंगमण्डप का निर्माण करो, जिसमें बहुत से सुन्दर स्तम्भ लगे हों। उनके रंगमंच पर चढ़ने के लिये बहुत सी सीढ़ियाँ बना दो। यह सब कार्य शीघ्र हो जाना चाहिये। यह यज्ञशाला स्वर्ग के समान सुन्दर एवं मनोहर बना दो। जिसमें सारी अप्सराएँ नृत्य कर सकें’।[2]

मरुत्त का यज्ञ पूर्ण करना

नरेन्द्र! देवराज के ऐसा कहने पर सम्पूर्ण देवताओं ने संतुष्ट होकर उनकी आज्ञा के अनुसार शीघ्र ही सबाक निर्माण किया। राजन! तत्पश्चात पूजित एवं संतुष्ट हुए इन्द्र ने राजा मरुत्त से इस प्रकार कहा- ‘राजन! यह मैं यहाँ आकर तुमसे मिला हूँ। नरेन्द्र! तुम्हारे जो अन्यान्य पूर्वज हैं, वे तथा अन्य सब देवता भी यहाँ प्रसन्नतापूर्वक पधारे हैं। राजन! ये सब लोग तुम्हारा दिया हुआ हविष्य ग्रहण करेंगे। ‘राजेन्द्र! अग्नि के लिये लाल रंग की वस्तुएँ प्रस्तुत की जायँ, विश्वेदेवों के लिये अनेक रूप-रंग वाले पदार्थ दिये जायँ, श्रेष्ठ ब्राह्मण यहाँ छूकर दिये गये चंचल शिश्न वाले नील रंग के वृषभ का दान ग्रहण करें’। नरेश्वर! तदनन्तर राजा मरुत्त के यज्ञ का कार्य आगे बढ़ा, जिसमें देवता लोग स्वयं ही अन्न परोसने लगे। ब्राह्मणों द्वारा पूजित, उत्तम अश्वों से युक्त देवराज इन्द्र उस यज्ञमण्डप में सदस्य बनकर बैठे थे। इसके बाद द्वितीय अग्नि के समान तेजस्वी एवं यज्ञ मण्डप में बैठे हुए महात्मा संवर्त ने अत्यन्त प्रसन्नचितत होकर देववृन्द्र का उच्चस्वर से आह्वान करते हुए मन्त्र पाठ पूर्वक अग्नि में हविष्य का हवन किया।[3]

तत्पश्चात इन्द्र तथा सोमपान के अधिकारी अन्य देवताओं ने उत्तम सोमरस का पान किया। इससे सबको तृप्ति एंव प्रसन्नता हुई। फिर सब देवता राजा मरुत्त की अनुमति लेकर अपने-अपने स्थान को चले गये। तदनन्तर शत्रुहन्ता राजा मरुत्त बड़े हर्ष के साथ वहाँ ब्राहणों को बहुत-से धन का दान करते हुए उनके लिये पग-पग पर सुवर्ण के ढेर लगवा दिये। उस समय धनाध्यक्ष कुबेर के समान उनकी शोभा हो रही थी इसके बाद ब्राह्मणों के ले जाने से जो नाना प्रकार का धन बच गया, उसको मरुत्त ने उत्साह पूर्वक कोष-स्थान बनवाकर उसी में जमा कर दिया। फिर अपने गुरु सवंर्त की आज्ञा लेकर वे राजधानी को लौट आये और समुद्र पर्यन्त पृथ्वी का राज्य करने लगे। नरेन्द्र! राजा मरुत्त ऐसे प्रभावशाली हुए थे। उनके यज्ञ में बहुत-सा सुवर्ण एकत्र किया गया था। तुम उसी धन को मँगवाकर यज्ञ भाग से देवताओं को तृप्त करते हुए यजन करो। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! सत्यवतीनन्दन व्यास जी के ये वचन सुनकर पाण्डुकुमार राजा युधिष्ठिर बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने उस धन के द्वारा यज्ञ करने का विचार किया तथा इस विषय में मंत्रियों के साथ बारंबार मंत्रणा की।[3]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 10 श्लोक 1-15
  2. 2.0 2.1 महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 10 श्लोक 16-27
  3. 3.0 3.1 महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 10 श्लोक 28-37

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