संजय की विदाई एवं युधिष्ठिर का संदेश

महाभारत उद्योग पर्व में संजययान पर्व के अंतर्गत तीसवें अध्याय में 'संजय की विदाई एवं युधिष्ठिर का संदेश' का वर्णन है, जो इस प्रकार है[1]-

संजय का विदा हेतु आज्ञा लेना

संजय ने कहा- नरदेवदेव पाण्‍डुनंदन! आपका कल्‍याण हो। अब मैं आपसे विदा लेता और हस्तिनापुर को जाता हूँ। कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि मैंने मानसिक आवेग के कारण वाणी द्वारा कोई ऐसी बात कह दी हो, जिससे आपको कष्‍ट हुआ हो? भगवान श्रीकृष्‍ण, भीमसेन, अर्जुन, नकुल, सहदेव, सात्यकि तथा चेकितान से भी आज्ञा लेकर मैं जा रहा हूँ। आप लोगों को सुख और कल्याण की प्राप्ति हो। राजाओं! आप मेरी ओर स्नेहपूर्ण दृष्टि से देखें।

युधिष्ठिर बोले- संजय! मैं तुम्हें जाने की अनुमति देता हूँ। तुम्हारा कल्याण हो। अब तुम जाओ। विद्वन! तुम कभी हम लोगों का अनिष्‍ट-चिन्तन नहीं करते हो। इसलिये कौरव तथा हम लोग सभी तुम्हें शुद्धचित्त एवं मध्‍यस्थ सदस्य समझते हैं। संजय! तुम विश्‍वसनीय दूत और हमारे अत्यन्त प्रिय हो। तुम्हारी बातें कल्याणकारिणी होती हैं। तुम शीलवान और संतोषी हो। तुम्हारी बुद्धि कभी मोहित नहीं होती और कटु वचन सुनकर भी तुम कभी क्रोध नहीं करते हो। सूत! तुम्हारे मुख से कभी कोई ऐसी बात नहीं निकलती, जो कड़वी होने के साथ ही मर्म पर आघात करने वाली हो। तुम नीरस और अप्रासङिगक बात भी नहीं बोलते। हम अच्छी तरह जानते हैं कि तुम्हारा यह कथन धर्मानुकूल होने के कारण मनोहर, अर्थयुक्त तथा हिंसा की भावना से रहित है। संजय! तुम्हीं हमारे अत्यन्त प्रिय हो। जान पड़ता है कि दूसरे विदुर जी ही[2] यहाँ आ गये हैं। पहले भी तुम हमसे बारंबार मिलते रहे हो और धनंजय के तो तुम अपने आत्मा के समान प्रिय सखा हो। संजय! यहाँ से जाकर तुम शीघ्र ही जो आदर और सम्मान के योग्य हैं, उन विशुद्ध शक्तिशाली, ब्रह्मचर्य-पालनपूर्वक वेदों के स्वाध्‍याय में संलग्न, कुलीन तथा सर्वधर्म सम्पन्न ब्राह्मणों को हमारी ओर से प्रणाम कहना। स्वाध्‍यायशील ब्राह्मणों, संन्यासियों तथा सदा वन में निवास करने वाले तपस्वी मुनियों एवं बडे़-बूढे़ लोगों से हमारी ओर से प्रणाम कहना और दूसरे लोगों से भी कुशल-समाचार पूछना।

युधिष्ठिर का संजय को संदेश

युधिष्ठिर कहते हैं- तात संजय! राजा धृतराष्‍ट्र के पुरोहित, आचार्य तथा उनके ऋत्विजों से भी[3] तुम हमारी ओर से कुशल-मंगल का समाचार पूछते हुए ही मिलना। तदनन्तर शान्तभाव से उन्हीं की ओर मन की वृत्तियों को एकाग्र करके हाथ जोड़कर मेरे कहने से उन सबको प्रणाम निवेदन करना। तात! जो अश्रोत्रिय (शुद्र) वृद्ध पुरुष मनस्वी तथा शील और बल से सम्पन्न हैं एवं हस्तिनापुर में निवास करते हैं, जो यथाशक्ति कुछ धर्म का आचरण करते हुए हम लोगों के प्रति शुभ कामना रखते हैं और बारंबार हमें याद करते हैं, उन सबसे हम लोगों का कुशल-समाचार निवेदन करना। तत्पश्‍चात उनके स्वास्थ्‍य का समाचार पूछना। जो कौरव-राज्य में व्यापार से जीविका चलाते हैं, पशुओं का पालन करते हुए निवास करते हैं तथा जो खेती करके सब लोगों का भरण-पोषण करते हैं, उन सब वैश्‍यों का भी कुशल-समाचार पूछना। जिन्होंने वेदों की शिक्षा प्राप्त करने के लिये पहले ब्रह्मचर्य का पालन किया। तत्पश्‍चात मन्त्र, उपचार, प्रयोग तथा सं‍हार इन चार पादों से युक्त अस्त्रविद्या की शिक्षा प्राप्त की, वे सबके प्रिय, नीतिज्ञ, विनयी तथा सदा प्रसन्नचित्त रहने वाले आचार्य द्रोण भी हमारे अभिवादन के योग्य हैं, तुम उनसे भी मेरा प्रणाम कहना।[1]

युधिष्ठिर कहते हैं- तात! जो वेदाध्‍ययन सम्पन्न तथा सदाचारयुक्त हैं, जिन्होंने चारों पादों से युक्त अस्त्रविद्या की शिक्षा पायी हैं, जो गन्धर्वकुमार के समान वेगशाली वीर हैं, उन आचार्यपुत्र अश्‍वत्थामा का भी कुशल-समाचार पूछना। संजय! तदनन्तर आत्मावेत्ताओं में श्रेष्‍ठ महारथी कृपाचार्य के घर जाकर बारंबार मेरा नाम लेते हुए अपने हाथ से उनके दोनों चरणों का स्पर्श करना। जिनमें वीरत्व, दया, तपस्या, बुद्धि, शील, शास्त्रज्ञान, सत्त्व और धैर्य आदि सद्गुण विद्यमान हैं, उन कुरुश्रेष्‍ठ पितामह भीष्‍म के दोनों चरण पकड़कर मेरा प्रणाम निवेदन करना। संजय! जो कौरवगणों के नेता, अनेक शास्त्रों के ज्ञाता, बड़े-बूढो़ के सेवक और बुद्धिमान हैं, उन वृद्ध नरेश प्रज्ञाचक्षु धृतराष्‍ट्र को मेरा प्रणाम निवेदन करके यह बताना कि युधिष्ठिर नीरोग और सकुशल है।[4]

युधिष्ठिर का धृतराष्ट्रपुत्रों के लिए संदेश

तात संजय! जो धृतराष्‍ट्र का ज्येष्‍ठ पुत्र, मन्दबुद्धि, मूर्ख, शठ और पापाचारी है तथा जिसकी निन्दा सारी पृथ्‍वी में फैल रही हैं, उस सुयोधन से भी मेरी ओर से कुशल-मंगल पूछना। तात संजय! जो दुर्योधन का छोटा भाई है तथा उसी के समान मूर्ख और सदा पाप में संलग्न रहने वाला हैं, कुरुकुल के उस महाधनुर्धर एवं विख्‍यात वीर दु:शासन से भी कुशल पूछकर मेरा कुशल-समाचार कहना। संजय! भरतवंशियों में परस्पर शान्ति बनी रहे, इसके सिवा दूसरी कोई कामना जिनके हृदय में कभी नहीं होती है, जो बाह्लीक वंश के श्रेष्‍ठ पुरुष हैं, उन साधु स्वभाव वाले बुद्धिमान बाह्लीक को भी तुम मेरा प्रणाम निवेदन करना।[4]

अन्य राजाओं हेतु कुशल समाचार देना

जो अनेक श्रेष्‍ठ गुणों से विभूषित और ज्ञानवान हैं, जिनमें निष्‍ठुरता का लेशमात्र भी नहीं है, जो स्नेहवश सदा ही हम लोगों का क्रोध सहन करते रहते हैं, वे सोमदत्त भी मेरे लिये पूजनीय हैं। संजय! सोमदत्त के पुत्र भूरिश्रवा कुरुकुल में पूज्यतम पुरुष माने गये हैं। वे हम लोगों के निकट सम्बन्धी और मेरे प्रिय सखा हैं। रथी वीरों में उनका बहुत ऊंचा स्थान है। वे महान धनुर्धर तथा आदरणीय वीर हैं। तुम मेरी ओर से मन्त्रियों सहित उनका कुशल-समाचार पूछना। संजय! इनके सिवा और भी जो कुरुकुल के प्रधान नवयुवक हैं, जो हमारे पुत्र, पौत्र और भाई लगते हैं, इनमें से जिस-जिसको तुम जिस व्यवहार के योग्य समझो, उससे वैसी ही बात कहकर उन सबसे बताना कि पाण्‍डव लोग स्वस्थ और सानन्द हैं। दुर्योधन ने हम पाण्‍डवों के साथ युद्ध करने के लिये जिन-जिन राजाओं को बुलाया है। वे वशाति, शाल्व, केकय, अम्बष्ठ तथा त्रिगर्तदेश के प्रधान वीर, पूर्व, उत्तर, दक्षिण और पश्चिम दिशा के शौर्य सम्पन्न योद्धा तथा समस्त पर्वतीय नरेश वहाँ उपस्थित हैं। वे लोग दयालु तथा शील और सदाचार से सम्पन्न हैं। संजय! तुम मेरी ओर से उन सबका कुशल-मड़्गल पूछना। जो हाथीसवार, रथी, घुड़सवार, पैदल तथा बड़े-बड़े़ सज्जनों के समुदाय वहाँ उपस्थित हैं, उन सबसे मुझे सकुशल बताकर उनका भी आरोग्य-समाचार पूछना। जो राजा के हितकर कार्यों में लगे हुए मन्त्री, द्वारपाल, सेनानायक, आय-व्यय निरीक्ष‍क तथा निरन्तर बड़े-बड़े़ कार्यों एवं प्रश्‍नों पर विचार करने वाले हैं, उनसे भी कुशल-समाचार पूछना। तात! जो समस्त कौरवों में श्रेष्‍ठ, महाबुद्धिमान, ज्ञानी तथा सब धर्मों से सम्पन्न है, जिसे कौरव और पाण्‍डवों का युद्ध कभी अच्छा नहीं लगता, उस वैश्‍यापुत्र युयुत्सु का भी मेरी ओर से कुशल-मंगल पूछना। तात! जो धन के अनहरण और द्यूतक्रीड़ा में अद्वितीय है, छल को छिपाये रखकर अच्छी तरह से जूआ खेलता है, पासे फेंकने की कला में प्रवीण है तथा जो युद्ध में दिव्य रथा-रूढ़ वीर के लिये भी दुर्जय है, उस चित्रसेन से भी कुशल-समाचार पूछना और बताना। तात संजय! जो जूआ खेलकर पराये धन का अपहरण करने की कला में अपना सानी नहीं रखता तथा दुर्योधन का सदा सम्मान करता है, उस मिथ्‍याबुद्धि पर्वत निवासी गान्धारराज शकुनि की भी कुशल पूछना।[4]

जो अद्वितीय वीर एकमात्र रथ की सहायता से अजेय पाण्‍डवों को भी जीतने का उत्साह रखता है तथा जो मोह में पड़े हुए धृतराष्‍ट्र के पुत्रों को और भी मोहित करने वाला है, उस वैकर्तन कर्ण की भी कुशल पूछना। अगाधबुद्धि दूरदर्शी विदुर जी हम लोगों के प्रेमी, गुरु, पालक, पिता-माता और सुहृद हैं, वे ही हमारे मन्त्री भी हैं। संजय! तुम मेरी ओर से उनकी भी कुशल पूछना।[5]

युधिष्ठिर का हस्तिनापुर वासियों के लिये संदेश

संजय! राजघराने में जो सद्गुणवती वृद्धा स्त्रियां हैं, वे सब हमारी माताएं लगती हैं। उन सब वृद्धा स्त्रियों से एक साथ मिलकर तुम उनसे हमारा प्रणाम निवेदन करना। संजय! उन बड़ी-बूढ़ी स्त्रियों से इस प्रकार कहना- 'माताओ! आपके पुत्र आपके साथ उत्तम बर्ताव करते हैं न? उनमें क्रूरता तो नहीं आ गयी है? उन सबके दीर्घायु पुत्र हो गये हैं न?’ इस प्रकार कहकर पीछे यह बताना कि आपका बालक अजातशत्रु युधिष्ठिर पुत्रों सहित सकुशल है। तात संजय! हस्तिनापुर में हमारे भाइयों की जो स्त्रियां हैं, उन सबको तो तुम जानते ही हो। उन सबकी कुशल पूछना और कहना क्या तुम लोग सर्वथा सुरक्षित रहकर निर्दोष जीवन बिता रही हो? तु्म्हें आवश्‍यक सुगन्ध आदि प्रसाधन-सामग्रियां प्राप्त होती हैं न? तुम घर में प्रमाद शून्य होकर रहती हो न? भद्र महिलाओ! क्या तुम अपने श्वशुरजनों के प्रति क्रूरता रहित कल्याणकारी बर्ताव करती हो तथा जिस प्रकार तुम्हारे पति अनुकूल बने रहें, वैसे व्यवहार और सद्भाव को अपने हृदय में स्थान देती हो?

संजय! तुम वहाँ उन स्त्रियों को भी जानते हो, जो हमारी पुत्र-वधुएं लगती हैं, जो उत्तम कुलों से आयी हैं तथा सर्वगुण सम्पन्न और संतानवती हैं। वहाँ जाकर उनसे कहना, बहुओं! युधिष्ठिर प्रसन्न होकर तुम लोगों का कुशल-समाचार पूछते थे’। संजय! राजमहल में जो छोटी-छोटी बालिकाएं हैं, उन्हें हृदय से लगाना और मेरी ओर से उनका आरोग्य-समाचार पूछकर उन्हें कहना- ‘पुत्रियों! तुम्हें कल्याणकारी पति प्राप्त हों और वे तुम्हारे अनुकूल बने रहें। साथ ही तुम भी पतियों के अनुकूल बनी रहो’। तात संजय! जिनका दर्शन मनोहर और बातें मन को प्रिय लगने वाली होती हैं, जो वेश-भूषा से अलङ्कृत, सुन्दर वस्त्रों से सुशोभित, उत्तम सुगन्ध धारण करने वाली, घृणित व्यवहार से रहित, सुख शालिनी और भोग-सामग्री से सम्पन्न हैं, उन वेश (श्रृगांर) धारण करने वाली स्त्रियों की भी कुशल पूछना। कौरवों के जो दास-दासियां हों तथा उनके आश्रित जो बहुत से कुबडे़ और लंगडे़ मनुष्‍य रहते हों, उन सबसे मुझे सकुशल बताकर अन्त में मेरी ओर से उनकी भी कुशल पूछना। और कहना क्या राजा धृतराष्‍ट्र दयावश जिन अंगहीनों, दीनों और बौने मनुष्‍यों का पालन करते हैं, उन्हें दुर्योधन भरण-पोषण की सामग्री देता है? क्या वह उनकी प्राचीन जीविका-वृत्तिका निर्वाह करता है? हस्तिनापुर में जो बहुत से हाथीवान हैं तथा जो अन्धे और बूढे़ हैं, उन सबको मेरी कुशल-बताकर अन्त में मेरी ओर से उनके भी आरोग्य आदि का समाचार पूछना। साथ ही उन्हें आश्‍वासन देते हुए मेरा यह संदेश सुना देना। तुम्हें जो दु:ख प्राप्त होता है अथवा कुत्सित जीवन बिताना पड़ता है, इसके कारण तुम लोग भयभीत न होना। निश्‍चय ही यह दूसरे जन्मों में किये हुए पाप का फल प्रकट हुआ है। मैं कुछ ही दिनों में अपने शत्रुओं को कैद करके हितैषी सुहृदों पर अनुग्रह करते हुए अन्न और वस्त्र द्वारा तुम लोगों का भरण-पोषण करूंगा।[5]

युधिष्ठिर का दुर्योधन के लिये संदेश

राजा दुर्योधन से कहना, मैंने कुछ ब्राह्मणों के लिये वार्षिक जीविका-वृत्तियां नियत कर रखी थीं, किंतु खेद है कि तुम्‍हारे कर्मचारीगण उन्‍हें ठीक से नहीं चला रहे हैं। मैं उन ब्राह्मणों को पुन: पूर्ववत उन्‍हीं वृत्तियों से युक्‍त देखना चाहता हूँ। तुम किसी दूत के द्वारा मुझे यह समाचार सुना दो कि उन वृत्तियों का अब यथावत रूप से पालन होने लगा है।

संजय! जो अनाथ, दुर्बल एवं मूर्खजन सदा अपने शरीर का पोषण करने के लिये ही प्रयत्‍न करते हैं, तुम मेरे कहने से उन दीनजनों के पास भी जाकर सब प्रकार से उनका कुशल-समाचार पूछना। सूतपुत्र! इनके सिवा विभिन्‍न दिशाओं से आये हुए दूसरे-दूसरे लोग धृतराष्‍ट्रपुत्रों का आश्रय लेकर रहते हैं। उन सब माननीय पुरुषों से भी मिलकर उनकी कुशल और क्‍या वे जीवित बचे रहेंगे, इस संबंध में भी प्रश्‍न करना। इस प्रकार वहाँ सब दिशाओं से पधारे हुए राजदूतों तथा अन्‍य सब अभ्‍यागतों से कुशल-मंगल पूछकर अंत में उनसे मेरा कुशल-समाचार भी निवेदन करना। यद्यपि दुर्योधन ने जिन योद्धाओं का संग्रह किया है, वैसे वीर इस भूमण्‍डल में दूसरे नहीं हैं, तथापि धर्म ही नित्‍य है और मेरे पास शत्रुओं का नाश करने के लिये धर्म का ही सबसे महान बल है।

संजय! दुर्योधन को तुम मेरी यह बात पुन: सुना देना- 'तुम्‍हारे शरीर के भीतर मन में जो यह अभिलाषा उत्‍पन्‍न हुई है कि मैं कौरवों का निष्‍कण्‍टक राज्‍य करूं, वह तुम्‍हारे हृदय को पीड़ा मात्र दे रही है। उसकी सिद्धि का कोई उपाय नहीं है। हम ऐसे पौरूषहीन नहीं हैं कि तुम्‍हारा यह प्रिय कार्य होने दें। भरतवंश के प्रमुख वीर! तुम इंद्रप्रस्‍थपुरी फिर मुझे ही लौटा दो अथवा युद्ध करो।'[5]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 30 श्लोक 1-12
  2. दुत बनकर
  3. उनके साथ भेंट होने पर
  4. 4.0 4.1 4.2 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 30 श्लोक 13-29
  5. 5.0 5.1 5.2 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 30 श्लोक 30-42

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संजय का कौरव सभा में आगमन | संजय द्वारा कौरव सभा में अर्जुन का संदेश सुनाना | भीष्म का दुर्योधन से कृष्ण और अर्जुन की महिमा का बखान | भीष्म का कर्ण पर आक्षेप और द्रोणाचार्य द्वारा भीष्मकथन का अनुमोदन | संजय द्वारा युधिष्ठिर के प्रधान सहायकों का वर्णन | भीमसेन के पराक्रम से धृतराष्ट्र का विलाप | धृतराष्ट्र द्वारा अर्जुन से प्राप्त होने वाले भय का वर्णन | कौरव सभा में धृतराष्ट्र द्वारा शान्ति का प्रस्ताव | संजय द्वारा धृतराष्ट्र को उनके दोष बताना तथा सलाह देना | दुर्योधन का धृतराष्ट्र से अपने उत्कर्ष और पांडवों के अपकर्ष का वर्णन | संजय द्वारा अर्जुन के ध्वज एवं अश्वों का वर्णन | संजय द्वारा युधिष्ठिर के अश्वों का वर्णन | संजय द्वारा पांडवों की युद्ध विषयक तैयारी का वर्णन और धृतराष्ट्र का विलाप | दुर्योधन द्वारा अपनी प्रबलता का प्रतिपादन और धृतराष्ट्र का उस पर अविश्वास | संजय द्वारा धृष्टद्युम्न की शक्ति एवं संदेश का कथन | धृतराष्ट्र का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना | दुर्योधन का अहंकारपूर्वक पांडवों से युद्ध का निश्चय | धृतराष्ट्र का अन्य योद्धाओं को युद्ध से भय दिखाना | संजय द्वारा धृतराष्ट्र को कृष्ण और अर्जुन के संदेश सुनाना | धृतराष्ट्र द्वारा कौरव-पांडव शक्ति का तुलनात्मक वर्णन | दुर्योधन की आत्मप्रशंसा | कर्ण की आत्मप्रशंसा एवं भीष्म द्वारा उस पर आक्षेप | कर्ण द्वारा कौरव सभा त्यागकर जाना | दुर्योधन द्वारा अपने पक्ष की प्रबलता का वर्णन | विदुर का दम की महिमा बताना | विदुर का धृतराष्ट्र से कौटुम्बिक कलह से हानि बताना | धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना | संजय का धृतराष्ट्र को अर्जुन का संदेश सुनाना | धृतराष्ट्र के पास व्यास और गांधारी का आगमन | संजय का धृतराष्ट्र को कृष्ण की महिमा बताना | संजय द्वारा धृतराष्ट्र को कृष्णप्राप्ति एवं तत्त्वज्ञान का साधन बताना | कृष्ण के विभिन्न नामों की व्युत्पत्तियों का कथन | धृतराष्ट्र द्वारा भगवद्गुणगान

भगवद्यान पर्व
युधिष्ठिर का कृष्ण से अपना अभिप्राय निवेदन करना | कृष्ण का शांतिदूत बनकर कौरव सभा में जाने का निश्चय | कृष्ण का युधिष्ठिर को युद्ध के लिए प्रोत्साहन देना | भीमसेन का शांति विषयक प्रस्ताव | कृष्ण द्वारा भीमसेन को उत्तेजित करना | कृष्ण को भीमसेन का उत्तर | कृष्ण द्वारा भीमसेन को आश्वासन देना | अर्जुन का कथन | कृष्ण का अर्जुन को उत्तर देना | नकुल का निवेदन | सहदेव तथा सात्यकि की युद्ध हेतु सम्मति | द्रौपदी का कृष्ण को अपना दु:ख सुनाना | कृष्ण द्वारा द्रौपदी को आश्वासन | कृष्ण का हस्तिनापुर को प्रस्थान | युधिष्ठिर का कुन्ती एवं कौरवों के लिए संदेश | कृष्ण को मार्ग में दिव्य महर्षियों का दर्शन | वैशम्पायन द्वारा मार्ग के शुभाशुभ शकुनों का वर्णन | कृष्ण का मार्ग में लोगों द्वारा आदर-सत्कार | कृष्ण का वृकस्थल पहुँचकर विश्राम करना | दुर्योधन का कृष्ण के स्वागत-सत्कार हेतु मार्ग में विश्रामस्थान बनवाना | धृतराष्ट्र का कृष्ण की अगवानी करके उन्हें भेंट देने का विचार | विदुर का धृतराष्ट्र को कृष्णआज्ञा का पालन करने के लिए समझाना | दुर्योधन का कृष्ण के विषय में अपने विचार कहना | दुर्योधन की कुमन्त्रणा से भीष्म का कुपित होना | हस्तिनापुर में कृष्ण का स्वागत | धृतराष्ट्र एवं विदुर के यहाँ कृष्ण का आतिथ्य | कुन्ती का कृष्ण से अपने दु:खों का स्मरण करके विलाप करना | कृष्ण द्वारा कुन्ती को आश्वासन देना | कृष्ण का दुर्योधन के भोजन निमंत्रण को अस्वीकार करना | कृष्ण का विदुर के घर पर भोजन करना | विदुर का कृष्ण को कौरवसभा में जाने का अनौचित्य बतलाना | कृष्ण का कौरव-पांडव संधि के प्रयत्न का औचित्य बताना | कृष्ण का कौरवसभा में प्रवेश | कौरवसभा में कृष्ण का स्वागत और उनके द्वारा आसनग्रहण | कौरवसभा में कृष्ण का प्रभावशाली भाषण | परशुराम द्वारा नर-नारायणरूप कृष्ण-अर्जुन का महत्त्व वर्णन | कण्व मुनि का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना | कण्व मुनि द्वारा मातलि का उपाख्यान आरम्भ करना | मातलि का नारद संग वरुणलोक भ्रमण एवं अनेक आश्चर्यजनक वस्तुएँ देखना | नारद द्वारा पाताललोक का प्रदर्शन | नारद द्वारा हिरण्यपुर का दिग्दर्शन और वर्णन | नारद द्वारा गरुड़लोक तथा गरुड़ की संतानों का वर्णन | नारद द्वारा सुरभि तथा उसकी संतानों का वर्णन | नारद द्वारा नागलोक के नागों का वर्णन | मातलि का नागकुमार सुमुख के साथ पुत्री के विवाह का निश्चय | नारद का नागराज आर्यक से सुमुख तथा मातलि कन्या के विवाह का प्रस्ताव | विष्णु द्वारा सुमुख को दीर्घायु देना तथा सुमुख-गुणकेशी विवाह | विष्णु द्वारा गरुड़ का गर्वभंजन | दुर्योधन द्वारा कण्व मुनि के उपदेश की अवहेलना | नारद का दुर्योधन से धर्मराज द्वारा विश्वामित्र की परीक्षा लेने का वर्णन | गालव द्वारा विश्वामित्र से गुरुदक्षिणा माँगने के लिए हठ का वर्णन | गालव की चिन्ता और गरुड़ द्वारा उन्हें आश्वासन देना | गरुड़ का गालव से पूर्व दिशा का वर्णन करना | गरुड़ का गालव से दक्षिण दिशा का वर्णन करना | गरुड़ का गालव से पश्चिम दिशा का वर्णन करना | गरुड़ का गालव से उत्तर दिशा का वर्णन करना | गरुड़ पर सवार गालव का उनके वेग से व्याकुल होना | गरुड़ और गालव की तपस्विनी शाण्डिली से भेंट | गरुड़ और गालव का ययाति के यहाँ आगमन | ययाति द्वारा गालव को अपनी कन्या देना | हर्यश्व का ययातिकन्या से वसुमना नामक पुत्र उत्पन्न करना | दिवोदास का ययातिकन्या से प्रतर्दन नामक पुत्र उत्पन्न करना | उशीनर का ययातिकन्या से शिबि नामक पुत्र उत्पन्न करना | गालव द्वारा ययातिकन्या को विश्वामित्र की सेवा में देना | ययातिकन्या माधवी का वन में जाकर तपस्या करना | ययाति का स्वर्ग में सुखभोग तथा मोहवश तेजोहीन होना | ययाति का स्वर्गलोक से पतन | ययाति के दौहित्रों तथा गालव द्वारा उन्हें पुन: स्वर्गलोक भेजने का प्रयास | ययाति का फिर से स्वर्गारोहण | स्वर्गलोक में ययाति का स्वागत | नारद द्वारा दुर्योधन को समझाना | धृतराष्ट्र के अनुरोध से कृष्ण का दुर्योधन को समझाना | भीष्म, द्रोण, विदुर और धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना | भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को पुन: समझाना | दुर्योधन द्वारा पांडवों को राज्य न देने का निश्चय | कृष्ण का दुर्योधन को फटकारना | कृष्ण द्वारा धृतराष्ट्र को दुर्योधन आदि को कैद करने की सलाह | गांधारी का दुर्योधन को समझाना | सात्यकि द्वारा दुर्योधन के षड़यंत्र का भंडाफोड़ | धृतराष्ट्र और विदुर का दुर्योधन को पुन: समझाना | कृष्ण का विश्वरूप | कृष्ण का कौरवसभा से प्रस्थान | कुंती का पांडवों के लिये संदेश | कुंती द्वारा विदुलोपाख्यान का प्रारम्भ | विदुला का पुत्र को युद्ध हेतु उत्साहित करना | विदुला और उसके पुत्र का संवाद | विदुला द्वारा कार्य में सफलता प्राप्ति और शत्रुवशीकरण उपायों का निर्देश | विदुला के उपदेश से उसके पुत्र का युद्ध हेतु उद्यत होना | कुंती का संदेश तथा कृष्ण का उनसे विदा लेना | भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को समझाना | द्रोणाचार्य का दुर्योधन को पुन: संधि के लिए समझाना | कृष्ण का कर्ण को पांडवपक्ष में आने के लिए समझाना | कर्ण का दुर्योधन के पक्ष में रहने का निश्चित विचार | कर्ण द्वारा कृष्ण से समरयज्ञ के रूपक का वर्णन | कृष्ण का कर्ण से पांडवपक्ष की निश्चित विजय का प्रतिपादन | कर्ण द्वारा कृष्ण से पांडवों की विजय और कौरवों की पराजय दर्शाने वाले लक्षणों का वर्णन | कर्ण द्वारा कृष्ण से अपने स्वप्न का वर्णन | कुंती का कर्ण के पास जाना | कुंती का कर्ण से पांडवपक्ष में मिल जाने का अनुरोध | कर्ण की अर्जुन को छोड़कर शेष पांडवों को न मारने की प्रतिज्ञा | कृष्ण का युधिष्ठिर से कौरवसभा में व्यक्त किये भीष्म के वचन सुनाना | कृष्ण द्वारा द्रोणाचार्य, विदुर तथा गांधारी के महत्त्वपूर्ण वचनों का वर्णन | दुर्योधन के प्रति धृतराष्ट्र के युक्तिसंगत वचनों का वर्णन | कृष्ण का कौरवों के प्रति दण्ड के प्रयोग पर जोर देना

सैन्यनिर्याणपर्व
पांडवपक्ष के सेनापति का चुनाव | पांडव सेना का कुरुक्षेत्र में प्रवेश | कुरुक्षेत्र में पांडव सेना का पड़ाव तथा शिविर निर्माण | दुर्योधन द्वारा सेना को सुसज्जित होने और शिविर निर्माण का आदेश | कृष्ण का युधिष्ठिर से युद्ध को ही कर्तव्य बताना | युधिष्ठिर का संताप और अर्जुन द्वारा कृष्ण के वचनों का समर्थन | दुर्योधन द्वारा सेनाओं का विभाजन और सेनापतियों का अभिषेक | दुर्योधन द्वारा भीष्म का सेनापति पद पर अभिषेक | युधिष्ठिर द्वारा अपने सेनापतियों का अभिषेक | बलराम का पांडव शिविर में आगमन और तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान | रुक्मी का सहायता हेतु पांडवों और कौरवों के पास आगमन | धृतराष्ट्र और संजय का संवाद

उलूकदूतागमनपर्व
दुर्योधन का उलूक को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजना | पांडव शिविर में उलूक द्वारा दुर्योधन का संदेश सुनाना | पांडवों की ओर से दुर्योधन को उसके संदेश का उत्तर | पंडवों का संदेश लेकर उलूक का लौटना | धृष्टद्युम्न द्वारा योद्धाओं की नियुक्ति

रथातिरथसंख्यानपर्व
भीष्म द्वारा कौरव पक्ष के रथियों और अतिरथियों का परिचय | कौरव पक्ष के रथियों का परिचय | कौरव पक्ष के रथी, महारथी और अतिरथियों का वर्णन | कर्ण और भीष्म का रोषपूर्वक संवाद | भीष्म द्वारा पांडव पक्ष के रथी और उनकी महिमा का वर्णन | पांडव पक्ष के महारथियों का वर्णन तथा विराट और द्रुपद की प्रशंसा | पांडव पक्ष के रथी, महारथी एवं अतिरथी आदि का वर्णन | भीष्म का शिखण्डी और पांडवों का वध न करने का कथन

अम्बोपाख्यानपर्व
भीष्म द्वारा काशीराज की कन्याओं का अपहरण | अम्बा का भीष्म से शाल्वराज के प्रति अनुराग प्रकट करना | अम्बा का शाल्व द्वारा परित्याग | अम्बा और शैखावत्य संवाद | होत्रवाहन तथा अकृतव्रण का आगमन और उनका अम्बा से वार्तालाप | अकृतव्रण और परशुराम का अम्बा से वार्तालाप | अम्बा और परशुराम का संवाद तथा अकृतव्रण की सलाह | परशुराम और भीष्म का रोषपूर्ण वार्तालाप | परशुराम और भीष्म का युद्ध हेतु कुरुक्षेत्र में उतरना | परशुराम के साथ भीष्म द्वारा युद्ध प्रारम्भ करना | परशुराम और भीष्म का घोर युद्ध | भीष्म और परशुराम का युद्ध | भीष्म को प्रस्वापनास्त्र की प्राप्ति | भीष्म तथा परशुराम द्वारा शक्ति और ब्रह्मास्त्र का प्रयोग | भीष्म और परशुराम के युद्ध की समाप्ति | अम्बा की कठोर तपस्या | अम्बा को महादेव से वरप्राप्ति तथा उसका चिता में प्रवेश | अम्बा का द्रुपद का यहाँ जन्म और शिखण्डी नामकरण | शिखण्डी का विवाह और दशार्णराज का कोप | हिरण्यवर्मा के आक्रमण से द्रुपद का घबराना | द्रुपद द्वारा नगररक्षा की व्यवस्था और देवाराधन | शिखण्डिनी का वनगमन और स्थूणाकर्ण यक्ष से प्रार्थना | शिखण्डी को पुरुषत्व की प्राप्ति | स्थूणाकर्ण को कुबेर का शाप | भीष्म का शिखण्डी को न मारने का निश्चय | भीष्म आदि द्वारा अपनी-अपनी शक्ति का वर्णन | अर्जुन द्वारा अपने सहायकों और युधिष्ठिर की शक्ति का परिचय देना | कौरव सेना का रण के लिए प्रस्थान | पांडव सेना का युद्ध के लिए प्रस्थान

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