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श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
सिद्ध सखीदेहस्थूलदेह समाधिस्थित की भाँति निर्जीव पड़ा था। तीन दिन बीत गये आचार्य पत्नी ने पहले तो इसे समाधि समझा; क्योंकि ऐसी समाधि उनको प्रायः हुआ करती थी। परंतु जब तीन दिन बीत गये, शरीर बिलकुल प्राणहीन प्रतीत हुआ, तब उन्होंने डरकर शिष्य भक्त रामचन्द्र को बुलाया। रामचन्द्र भी उच्च स्तर पर आरूढ़ थे, उन्होंने पता लगाया और गुरुपत्नी को धीरज देकर गुरु की खोज के लिये सिद्धदेह में गमन किया। उनका भी स्थूलदेह वहाँ पड़ा रहा। सिद्ध देह में जाकर रामचन्द्र ने देखा- श्रीयमुनाजी में क्रीड़ा करते-करते श्रीराधिकाजी का एक कर्णकुण्डल कहीं जल में पड़ गया है। श्रीकृष्ण सखियों के साथ उसे खोज रहे हैं, परंतु वह मिल नहीं रहा है। रामचन्द्र ने देखा सिद्ध-देहधारी गुरुदेव श्रीनिवास भी सखियों के यूथ में सम्मिलित हैं। तब रामचन्द्र भी गुरु की सेवा में लगे। खोजते-खोजते कुछ देर के बाद रामचन्द्र को श्रीजी का कुण्डल एक कमल पत्र के नीचे पंक में पड़ा मिला। उन्होंने लाकर गुरुदेव को दिया। उन्होंने अपनी गुरुरूपा सखी को दिया, सखी ने यूथेश्वरी को अर्पण किया और यूथेश्वरी ने जाकर श्रीजी की आज्ञा से उनके कान में पहना दिया। सब को बड़ा आनन्द हुआ। श्रीजी ने खोजने वाली सखी का पता लगाकर परम प्रसन्नता से उसे चर्वित ताम्बूल दिया। बस, इधर श्रीनिवासजी तथा रामचन्द्र की समाधि टूटी, रामचन्द्र के हाथ में श्रीजी का चबाया हुआ पान देखकर दोनों को बड़ी प्रसन्नता हुई थी। गोपी-प्रेम की साधना और सिद्धि
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