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श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
साधक का सिद्धदेहप्रधान अष्ट सखियों का क्रम भी कहीं-कहीं ऐसा माना गया है- श्रीरगंदेवी, श्रीसुदेवी, श्रीललिता, श्रीविशाखा, श्रीचम्पकलता, श्रीचित्रा, श्रीतुगंविद्या, श्रीइन्दुलेखा अथवा श्रीललिता, श्रीविशाखा, श्रीचम्पकलता, श्रीइन्दुलेखा, श्रीतुगंविद्या, श्रीरगंदेवी, श्रीसुदेवी, श्रीचित्रा। कहीं-कहीं प्रधान अष्ट सखियों के नामों में भी अन्तर माना गया है। सखियों और मज्जरियों की संख्या इतनी ही नहीं है। ये तो मुख्य आठ-आठ हैं। सिद्धदेह में मजरियों की स्फूर्ति और तद्रूपता प्राप्त हो जाती है। यह परम गोपनीय साधन-राज्य का विषय है। यह बात जान लेने की है कि इस राग-मार्ग में-रति, स्न्नेह, मान, प्रणय, राग, अनुराग, भाव और महाभाव-ये आठ स्तर स्तर माने गये हैं। इनमें रति प्रथम है और वह रति तभी मानी जाती है जबकि इस और परलोक के-ब्रह्मलोक तक समस्त भोगों से तथा मोक्ष से भी सर्वथा विरति होकर केवल भगवत्चरणारविन्द में ही रति हो गयी हो। साधक के चित्त में निय-निरन्तर केवल यही धारणा दृढ़ता के साथ बद्धमूल हो जाय कि इस लोक में, परलोक में सर्वत्र, सर्वदा और सर्वथा एकमात्र श्रीकृष्ण ही मेरे हैं। श्रीकृष्ण के सिवा मेरा और कोई भी, कुछ भी, किसी काल में भी नहीं है। अतएव यहाँ दूसरी वस्तुमात्र तथा तत्त्व का अभाव हो जाता है; तब काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, ईर्ष्या और असूया आदि दोषों के लिये तो कल्पना ही नहीं की जा सकती। ये तो साधकदेह में ही समाप्त हो जाते हैं। सिद्ध देह में तो नित्य-निरन्तर श्रीकृष्णानुभव के अतिरिक्त और कुछ रहता ही नहीं। सिद्ध सखीदेहसप्रेम हरिस्मरण। तीन प्रकार के प्रेमी भक्त होते हैं-नित्यसिद्ध, कृपासिद्ध और साधनसिद्ध। नित्यसिद्ध वे हैं, जो श्रीकृष्ण के नित्य परिकर हैं और श्रीकृष्ण स्वयं लीला के लिये जहाँ विराजते हैं, वहीं वे उनके साथ रहते हैं। कृपासिद्ध वे हैं, जो श्रीभगवान की अहैतु की कृपा से प्रेमियों का सगं प्राप्त करके अन्त में उन्हें पा लेते हैं; और साधनसिद्ध वे हैं, जो भगवान की कृपा प्राप्त करने के लिये भगवान की रुचि के अनुसार भगवत्प्रीत्यर्थ प्रेमसाधना करते हैं। ऐसे साधकों में जो प्रेम के उच्च स्तर पर होते हैं, किसी सखी या मजंरी को गुरु रूप में वरण करके उनके अनुगत रहते हैं। ऐसे पुरुष समय-समय पर प्राकृत देह से निकलकर सिद्ध सखी देह के द्वारा लीला-राज्य में पहुँचते हैं और वहाँ श्रीराधा-गोविद की सेवा करके कृतार्थ होते हैं। ऐसे भक्त आज भी हो सकते हैं। कहा जाता है कि महात्मा श्रीनिवास आचार्य इस स्थिति पर पहुँचे हुए भक्त थे। वे सिद्धदेह के द्वारा श्रीराधागोविन्द की नित्य लीला के दर्शन के लिये अपनी सखी-गुरु के पीछे-पीछे श्रीव्रजधाम में जाया करते। एक बार वे ऐसे ही गये हुए थे। |
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