श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
श्रीगोपांगनाओं की महत्तासप्रेम हरिस्मरण।....... गोपीजनों को भगवान के स्वरूप का पूर्णतया ज्ञान था, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। गोपियाँ भगवान की अन्तरंग शक्तियाँ थीं, जिनके मन-प्राण सदा भगवान में ही लगे रहते थे; वे उनके स्वरूप और महत्त्व को न जानती हों- यह कैसे सम्भव है। श्रीमद्भागवत के 29 वें अध्याय में श्रीशुकदेवजी ने जो यह कहा कि- ‘तमेव परमात्मानं जारबुद्धयापि संगताः। जहर्गुणमयं देहं सद्यः प्रक्षीणबन्धनाः।।’ और उस पर राजा परीक्षित् ने शंका की कि- ‘कृष्णं विदुः परं कान्तं न तु ब्रह्मतया मुने।’ इत्यादि, तथा इस शंका को स्वीकार करके जो शुकदेव जी ने उत्तर दिया- ‘उक्तं पुरस्तादेतत्तें चैद्यः सिद्धिं यथा गतः। द्विपन्नपि हषीकेशं किंमुताधोक्षजप्रियाः।।’ यह सब ठीक है। इस प्रसंग से गोपी जनों की महत्ता पर ही प्रकाश पड़ता है। यह सब होने पर भी भगवान की स्वरूप भूत माया शक्ति या लीला शक्ति गोपियों के ज्ञान को तिरोहित तथा प्रेम भाव को ही प्रायः जाग्रत किये रहती है। श्रीकृष्ण परमात्मा या ब्रह्म हैं, इस भाव का स्मरण उन्हें नहीं रमता; वे यही अनुभव करती हैं- श्रीकृष्ण हमारे प्रियतम हैं, प्राणवल्लभ हैं। आपको ‘जारबुद्धचापि’ यह कहना खटक सकता है। ब्रह्माजी भी जिनकी चरणरज की वन्दना करते हैं तथा उद्धव-जैसे ज्ञानी भी जिनकी चरणरेनु पाने के लिये तरसते हैं, उन व्रजललनाओं की भी सच्चरित्रता का समर्थन करना पड़े, उनके चरित्र पर भी संदेह का अवसर आये- यह आपको ही नहीं, सभी भगवत्प्रेमियों को व्यथा देता है। |
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