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श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
गोपी-प्रेम की महिमाक्या लिखा जाय? गोपी-प्रेम के इस ‘भाव’-राज्य में जिनका तनिक-सा भी प्रवेश है, उनकी दशा कुछ कही नहीं जाती। यह प्रेम-रस-सागर अगाधा और असीम है। इसमें जो डूबा, उसे क्या मिल गया- कुछ नहीं जा सकता। अहा! इस अगाध एक रस महासागर में कितनी विचित्रता है! यह नित्य स्थिर होने पर भी परम चचंल है। इसमें नित्य नयी-नयी भाव-लहरियाँ उठती रहती हैं- उनमें तनकि भी विराम या विश्राम नहीं है। धन्य हैं वे, जो इसमें डूबे हुए इन लहरियों के साथ लहराते रहते हैं। बिजली की चमक की भाँति कहीं एक बार क्षण मात्र के लिये भी इस प्रेम की और इस प्रेम के विषय-रस घन विग्रह श्यामसुन्दर की झाँकी हो जाती है तो वह सदा के लिये आनन्द रस–सागर में डुबो देने वाली होती है। यह गोपी-प्रेमी उसी को प्राप्त होता है, जो कर्म-धर्म, भुक्ति-मुक्ति, ज्ञान-वैराग्य- सबका मोह छोड़कर केवल प्रेम ही चाहता है और सारे भोगों की लालसा को तथा असत्य, हिंसा, काम, क्रोध, मान, बड़ाई, परचर्चा, लोक वार्ता आदि को सर्वथा त्यागकर परम-आश्रय-बुद्धि से श्रीगोपीजनों की चरणोपासना करता है और एक प्रेम लाल से युक्त होकर उनसे केवल इस प्रेम की ही भीख माँगता रहता है। गोपियों के श्रीकृष्णएक कथा आती है-पाँच सखियाँ थीं, पाँचों श्रीकृष्ण की भक्त थीं। एक समय वे वन में बैठी फूलों की माला गूँथ रही थीं। उधर से एक साधु आ निकले। साधु को रोक कर बालाओं ने कहा- ‘महात्मन्! हमारे प्राण नाथ श्रीकृष्ण वन में कहीं खो गये हैं, उन्हें आपने देखा हो तो बता दीजिये।’ इस पर साधु ने कहा- ‘अरी पगलियो! कहीं श्रीकृष्ण यों मिलते हैं? उनके लिये घोर तप करना चाहिये। वे राज राजेश्वर हैं, रुष्ट होते हैं तो दण्ड देते हैं और प्रसन्न होते हैं तो पुरस्कार।’ सखियों ने कहा- ‘महात्मन्! आपके वे श्रीकृष्ण दूसरे होंगे; हमारे श्रीकृष्ण तो राज राजेश्वर नहीं हैं, वे तो हमारे प्राण पति हैं। वे हमें पुरस्कार क्या देते? उनके कोष की कुंज तो हमारे ही पास रहती है। दण्ड तो वे कभी देते ही नहीं; यदि हम कभी कुपथ्य कर लें और वे हमें कड़वी दवा पिलायें तो यह तो दण्ड नहीं है, प्रेम है।’ साधु उनकी बात सुनकर मस्त हो गये। वे अपने श्रीकृष्ण को याद करके नाचने लगीं और साधु ही साधु भी तन्मय होकर नाचने लगे। |
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