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गोपी-प्रेम
कहा ‘रसखान’ सुख-संपति सुमार महँ,
- कहा महाजोगी है, लगाएँ अंग छार कौं।
- साथ साधैं पंचालन, कहा सोएँ बीच जल,
- कहा जीत लीन्हें राज सिंधु वारापार कौं।।
- जप बार-बार, तप-संजम, अपार व्रत,
- तीरथ हजार अरे! बूझत लवार को?
- सोई है गँवार, जिहिं किन्हौ नाहिं प्यार, नाहिं
- सेयौ दरबार यार नंद के कुमार कौ।।
- कंचन के मंदिरन दीठि ठहरात नायँ,
- सदा दीप माल लाल रतन उजारे सौं।
- और प्रभुताई सब कहाँ लौं बखानौ, प्रति-
- हारिन की भीर भूप टरत न द्वारे सौं।।
- गंगाजू मैं न्हाय, मुकताहल लुटाय, बेद
- बीस बार गाय ध्यान कीजै सरकारे सौं।
- ऐसे ही भए तौ कहा कीन्हो ‘रसखान’ जु पै
- चित्त दै न कीन्ही प्रीति पीत पटवारे सौं।।
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