श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
प्रेम में विषय-वैराग्य की अनिवार्यतामेरे समझ से ज्ञान और प्रेम दोनों में ही वैराग्य स्वमेव होता है। ज्ञान में जगत का जगद रूप से अभाव हो जाता है, फिर राग किसमें हो? और प्रेम में प्रियतम के अतिरिक्त और कुछ सूझता ही नहीं- कल्पना में ही नहीं आता, तब दूसरे में राग कैसे रहे? स्त्री हो या पुरुष-यदि किसी में सच्चा प्रेम है, कामगन्ध का लेशमात्र भी दोष नहीं है, यदि प्रियतम से आत्मसुख की कामना न होकर, अपने महान् दुःखों की तनिक भी परवा न करके प्रियतम के सुख के लिये व्याकुलतापूर्ण प्रयास है तो वही पवित्र जीवन है। पवित्र भावना, पवित्र विचार, पवित्र वाणी और पवित्र शरीर वे ही हैं, जिनमें आत्मसुख की इच्छा सर्वथा प्रियतम के सुख की इच्छा में परिणत हो जाती है और भावना, विचार, वाणी और शरीर-सभी स्वाभाविक ही आत्मसुख का बलिदान करके सतत प्रियतम को सुखी करने के अखण्ड प्रयत्न में लग जाते हैं। ऐसे पवित्र भाव, विचार, वाणी और शरीर वाला प्रेमी ही यथार्थ प्रेमी है। इस प्रेम में जगत के भोगों से स्वाभाविक ही वैराग्य है; क्योंकि यहाँ काम-गन्ध का लेश भी नहीं है। प्रेम ऐसा पवित्र पदार्थ है कि यह जिससे प्राप्त होता है, उसके लिये यह समस्त विश्व ही प्रियतम बन जाता है। विश्व नहीं रहता, प्रियतम ही रह जाता है। वही कह सकता है- ‘जित देखौं तित स्याममई है।’ उसके नेत्रों में विश्व के चित्र नहीं आते। उसके चित्तपट पर जगत का चित्र अंकित नहीं होता। यदि कभी किसी के प्रेरणा करने पर उसे विश्व की स्मृति होती है तो दूसरे ही क्षण वह देखता है कि अपने प्रियतम में ही विश्व का भास हो रहा है। भगवान ने जो कहा है- ‘जो सर्वत्र मुझको देखता है और सबको मुझमें देखता है।’ इसका यही गम्भीर रहस्य है। प्रेमियों का यह प्रेम-यह प्रियतमानुराग जगत के समस्त विषयानुराग को खा-पीकर पचा जाता है, फिर उसका बीज भी नहीं रहने पाता उनके हृदय में। लोग उन्हें पागल बताते हैं। ये परम रागमय परम विरागी पुरुष बड़े ही विलक्षण होते हैं। श्रीचैतन्य महाप्रभु की जीवन-लीला के अन्तिम वर्ष इसी विलक्षण विरागमय राग का प्रत्यक्ष कराने वाले थे। वे धन्य हैं, जो इस प्रकार के प्रेम की कल्पना भी कर पाते हैं। |
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- ↑ गीता 6। 30
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