श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
भगवत्प्रेम की अभिलाषाअंदर जब तक दोष हैं, तब तक अपने को कभी उत्तम नहीं समझना चाहिये। सारे दोषों का मिट जाना प्रतीत होने पर भी दोषों की खोज करनी चाहिये तथा थोड़ा- सा भी दोष शूल की तरह हृदय में चुभना चाहिये। जब तक किंचिन्मात्र भी दूषित भाव हृदय में रहे तब तक सूरदासजी की भाँति अपने को महान पात की ही मानकर प्रभु के सामने रोना चाहिये। अन्तर्यामी प्रभु से अपने हृदय की बात आर्त भाषा में कहनी चाहिये। मनुष्य कदाचित् न सुनें, किसी की भाषा का मर्म न समझ सके, समझ कर भी लापरवाही कर दे और समझ भी ले किंतु शक्ति न होने से कुछ भी सहायता न कर सके; परंतु भगवान में इन सब बातों में से कोई-सी नहीं हैं। वे सुनते हैं, सब के हृदय की भाषा का रहस्य समझते हैं। लापरवाही भी नहीं करते और सब प्रकार दोष-दुःख दूर करने की उनमें पूर्ण सामर्थ्य भी है; इसलिये मनुष्य को अपने दोष - दुःखों का नाश करने के लिये प्रभु से ही प्रार्थना करनी चाहिये। प्रभु, अन्तर्यामी हैं, सब कुछ जानते हैं; परंतु प्रार्थना किये बिना, हमारे चाहे बिना, उनके द्वारा सदा किया जाने वाला उपकार हम पर प्रकट नहीं होता। तथा ऐसा विशेष रूप से अभ्द्रुत कार्य भी नहीं होता जैसा चाहने पर होता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि चींटी की चाल के बदले में भगवान इच्छा गति गरूड़ की चाल से ही आते हैं; परंतु चींटी की चाल भी उनकी ओर चल पड़ना तो हमारा ही कार्य है। ‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्’[1] का यही रहस्य है कि मनुष्य उन्हें चाहने लगे, उनकी ओर अपनी ही चाल से चलना प्रारम्भ कर दे; फिर भगवान अपनी चाल से चलकर उसके पास बात-की-बात में पहुँच जायँगे। हमारी मन्द गति के बदले में वे अपनी तेज चाल नहीं छोडे़ंगे। परंतु उनकी ओर चलना, उन्हें चाहना होगा पहले हमें। आप चल पड़े हैं तो प्रभु के वाक्यों पर विश्वास रखिये, वे आपकी ओर द्रुत गति से आपके मन की गति के अनुसार ही अनी तीव्र गति से आ रहे है; यदि नहीं चले हैं तो सब कुछ भूलकर चल पड़िये और फिर देखिये कितनी जल्दी वे आते हैं। भगवान से ही माँगनी चाहिये। यदि हमारी अभिलाषा सच्ची होगी तो अनन्य प्रेम अवश्य मिलेगा। अनन्य प्रेम की आपको अभिलाषा है, यह बड़े ही सौभाग्य और आनन्द की बात है। भगवान में विशुद्ध और अनन्य प्रेम होने की अभिलाषा से बढ़कर कोई सौभाग्यभरी उत्तम अभिलाषा नहीं है। यह सर्वोच्च अभिलाषा है, जो मोक्ष तक की अभिलाषा को लात मार देने के बाद ‘उत्पन्न होती है। भगवत्प्रेम पंचम पुरुषार्थ है, जो मोक्ष की इच्छा के भी त्याग से सिद्ध होता है और जिसके परे श्रीभगवान के सिवा और कुछ भी नहीं है। बल्कि भगवान भी उस प्रेम की डोर में बँधकर प्रेमी के नचाये नाचते, बाँधे बँधते, जन्माये जन्मते और मारे मरते हुए- से प्रतीत होते हैं। विशुद्ध और अनन्य प्रेम की महत्ता और कौन कहे, यह प्रेम प्रेमार्णव भगवान से ही मिलता है, दूसरे किसमें शक्ति है, जो इसका व्यापार करे। |
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क्रमांक | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
- ↑ गीता 4/11
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