श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
प्रेमी के काम-क्रोधादि के पात्र-प्रियतम भगवानप्रियतम भगवान जैसे अपने प्रेमी भक्त के प्रेम के पात्र हैं, वैसे ही उनके काम-क्रोधादिक के पात्र भी वे ही हैं। दूसरा तो कोई उसके मन है ही नहीं, तब इनका पात्र और कौन हो? इसका अर्थ यह नहीं कि भगवान के प्रेमी भक्तों मे भी विषयी पुरुषों-जैसे ही काम, क्रोध, अभिमान रहते हैं। प्रेमी भक्त महात्माओं में यह दूषित काम कहाँ। उनमें विषयाशक्ति,हिंसा,द्वेष और क्रोध कहाँ। उन अमानियों में मान की गन्ध भी कहाँ इनका तो उन में बीज ही नहीं है! अपने सुख की जब कोई वासना ही नहीं, तब ये दोष कहाँ से आयें? उन भक्तों के जीवन का उद्देश्य तो बस, एक प्रियतम को सुखी करना ही है-‘कृष्णसुखैकतात्पर्य गोपीभाववर्य।’ उनके चित्त में जगत का संस्कार ही नहीं है; वे तो लज्जा, घृणा, कुल शील, मान, देह, गेह, भोग, मोक्ष सबकी सुधि भुलाकर केवल अपने प्रियतम भगवान पर ही न्योछावर हो चुके हैं। अतएव जैसे ये भक्त स्वयं दिव्य भाव वाले होते हैं, वैसे ही इनके काम, क्रोध, अभिमान भी दिव्य होते हैं। इसीलिये परम विरागी जीवन्मुक्त मुनियों ने इस प्रकार के भगवत्-रंग-रँगीले प्रेमियों की ऐसी लीलाएँ गाने और सुनने में अपने को कृतार्थ माना है। जिनका चित्त सब ओर से हट गया है, एकमात्र भगवान ही जिनकी कामना की वस्तु रह गये हैं, वे भक्त अपने उन भगवान के दर्शन की कामना के वेग से पीड़ित होकर रो-रोकर पुकारते हैं- ‘हे देव! हे प्रियतम! हे विश्व के एकमात्र बन्धु! हे हमारे मनों को अपनी ओर बरबस खींचने वाले! हे चपल! हे करूणा के एकमात्र सिन्धु! हे नाथ! हे रमण! हे नयनाभिराम! हा! हा! तुम कब हमारे दृष्टिगोचर होगे? |
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- ↑ श्रीकृष्णकर्णामृत
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