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श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
प्रेम और ब्राह्मी स्थितिप्रेमियों के लिये भगवान उन गुणों पर कृपा करके उन्हें स्वीकार कर लेते हैं। प्रयोजन यही है कि प्रेमीगण अनन्ताचिन्त्य-दिव्यगुणगणविशिष्ट सौन्दर्य-माधुर्यरसाम्बुधि भगवान की प्रेम-सामग्री से पूजा करके अचिन्त्य गुणों को प्राप्त करेंगे। परंतु यह भी प्रेमियों की प्राथमिक पाठशाला का ही पाठ है। आगे चलकर न तो प्रेमियों को कोई उद्देश्य दृष्टिगोचर होता है और भगवान में तो किसी प्रयोजन की कल्पना ही भगवान की दृष्टि से नहीं हो सकती। वहाँ उपादेय और हेय की तो कोई बात ही नहीं है। वहाँ तो प्रेम और आनन्द घुलमिलकर एक हो जाते हैं। वहाँ राधा और कृष्ण की अलग-अलग पहचान नहीं रहती। दोनों एक हो जाते हैं- साधन-काल में जैसे ज्ञानी को ध्यानावस्था में बाह्य-ज्ञान नहीं रहता, ऐसे ही प्रेमी को भी नहीं रहता। जैसे ज्ञानी निरन्तर ब्रह्माकारवृत्ति बनाये रखना चाहता है, ऐसे ही प्रेमी भी आठों पहर प्रेमास्पद भगवान के आनन्दमय चिन्तन में चित्त को लगाये रखना चाहता है। जैसे ज्ञानी का मनोवान्छित कुछ नहीं रहता, उसी प्रकार प्रेमी का भी मनोवान्छित प्रेम को छोड़कर और कुछ नहीं रहता। अधिकार या रुचिभेद से साधन में अन्तर है, वास्तविकता में- साध्य के स्वरूप में कोई अन्तर नहीं है; क्योंकि वह तो एक ही हैं। प्रेमभक्ति में भगवान और भक्त का सम्बन्धभगवान का वास्तविक स्वरूप कैसा है, इस बात को भगवान ही जानते हैं या किसी अंश में वे जानते हैं, जिनको भगवान जनाना चाहते हैं। आज तक किसी जगत् में कोई भी यह नहीं कह सका कि भगवान ऐसे ही हैं, न कोई कह सकता है और न कह सकेगा। यदि कोई ऐसा कहने का साहस करता है तो वह या तो भोला है या आग्रही अथवा मिथ्यावादी है। ऐसा होने पर भगवान के जितने वर्णन जगत् में हुए हैं, वे अपने-अपने स्थान में सभी सच्चे हैं; क्योंकि महान परमात्मा में सभी का अन्तर्भाव है - उसी प्रकार जैसे अनन्त आकाश में सभी मठाकाश, घटाकाश समाते हैं। किसी गाँव में होने वाली घटना को लेकर हम कहें कि जगत् में ऐसा होता है तो ऐसा कहना मिथ्या नहीं है; क्योंकि गाँव जगत् में ही है, अतएव वह जगत ही है; परंतु यह बात नहीं कि जगत् वह गाँव ही हैं फिर जगत् का तो वर्णन हो भी सकता है; क्योंकि वह प्राकृतिक, ससीम और सूक्ष्मबुद्धि के द्वारा आकलन करने योग्य है। परंतु अप्राकृतिक, असीम, अनन्त, अपार, अकल, अलौकिक परमात्मा का वर्णन तो हो ही नहीं सकता; इसीलिये वेद उन्हें ‘नेति-नेति’ कहकर चुप हो जाते हैं। |
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