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श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
प्रेम-भक्तिभक्तों के चित्त के अनुसार इन भावों के प्रकट होने में तारतम्य हुआ करता है। आठ सात्त्विक और तैंतीस व्यभिचारिभावों को ही संचारि भाव भी कहते हैं, क्योंकि इन्हीं के द्वारा अन्य सारे भावों की गति का संचालन होता है। अब रही स्थायिभाव की बात। स्थायिभाव सामान्य, स्वच्छ और शान्तादि भेद से तीन प्रकार का है। किसी रसनिष्ठ भक्त का संग हुए बिना ही सामान्य भजन की परिपक्वता के कारण जो एक प्रकार की सामान्य रति उत्पन्न हो जाती है, उसे सामान्य स्थायिभाव कहते हैं। शान्तादि भक्तों के संग से संग के समय किसी के स्वच्छ चित्त में संग के अनुसार जो रति उत्पन्न होती है, उस रति को स्वच्छ स्थायिभाव कहते हैं और पृथक्-पृथक् रस में परिनिष्ठित भक्तों की शान्तादि पृथक्-पृथक् रति का नाम ही शान्तादि स्थायिभाव है। शान्तादि भाव पाँच प्रकार का है- शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य, और मधुर। इनमें पूर्व-पूर्व से उत्तर-उत्तर श्रेष्ठ है। इन पाँच रसों के अतिरिक्त हास्य, अद्भुत, वीर, करुण, रौद्र, भयानक और वीभत्स- ये सात गौण रस और हैं। भगवान का किसी भी रस के द्वारा भजन हो, वह कल्याणकारी ही है। परंतु साधन के योग्य आदर्श मुख्य रस उपर्युक्त पाँच हैं। भाव के विभिन्न स्तरभगवान के प्रेमी भक्तों के अनुग्रह से ही इस प्रेम रूप भक्तिमार्ग पर आरूढ़ हुआ जा सकता है। इसके विपरीत भक्तों का अपराध बन जाने पर साधना से उत्पन्न भाव भी क्रमशः क्षीण होकर नष्ट हो जाता है। भाव की प्रगाढ़ स्थिति का नाम ही ‘प्रेम’ है। प्रेम में भी जहाँ तक महिमाज्ञान है, वहाँ तक कुछ कमी है। वास्तविक प्रेम तो सर्वथा विशुद्ध माधुर्यमय होता है। इस प्रेम पर किसी भी विघ्न-बाधा का कोई भी प्रभाव नहीं होता। यहाँ तक कि ध्वंस का कारण उपस्थित होने पर भी इसका ध्वंस नहीं होता- ‘सर्वथा ध्वंसरहितं सत्यपि ध्वंसकारणे’ वरं उत्तरोत्तर बढ़ता ही जाता है - ‘प्रतिक्षणवर्धमानम्।’ निर्मल और निष्काम - केवल प्रेम-काममय अन्तरंग साधनों के द्वारा जो ‘भाव’ सबसे ऊँचे स्तर पर पहुँचता है, उस भावजन्य प्रेम को ‘भावोत्थ’ कहते हैं। और श्रीभगवान स्वयं अपने सांनिध्य, संग और प्रेमदान से जिस ‘भाव’ का पोषण करते हैं और जिसे ऊँचे-से-ऊँचे स्तर पर ले जाते हैं, उस ‘भाव’ से उत्पन्न प्रेम को ‘अतिप्रसादोत्थ’ कहा गया है। श्रेष्ठ भावुक भक्त के प्रति श्रीभगवान का यही सर्वोत्कृष्ट दान है। |
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