श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
भाव-राज्यसप्रेम हरिस्मरण! आपका पत्र मिला। आपके प्रश्न का उत्तर निम्नलिखित है-भाव जब तक केवल आवेग मात्र है, तब तक वह साधन-राज्य से बाहर की चीज है। भाव के आवेग से जिस कामना का प्रादुर्भाव होता है, वह मन में अशान्ति तथा ज्वाला उत्पन्न करने वाली होती है। कामना एक प्रकार की अग्नि है, जो विषयों की आहुति पड़ने से बढ़ती रहती है और यदि कहीं आघात पा जाती है तो क्रोध का कराल रूप धारण कर लेती है। अतः यदि भाव का आवेग आता हो तो उसका भगवान में प्रयोग कर देना चाहिये। भगवान से जुड़ते ही भाव पवित्र होकर साधन बन जायगा, जो सहज ही ‘कर्मराज्य’ से उच्चस्तर पर पहुँचकर साधक को भगवान की और अग्रसर कर देगा। इस ‘भाव-राज्य’ से उच्चस्तर पर ‘ज्ञान-राज्य’ है, जो परमात्मा के तत्त्व-ज्ञान का बोध कराता है, उससे भी उच्चस्तर सिद्ध ‘भाव-राज्य’ है, जो नित्य एक, पर नित्य दो बने हुए श्रीराधा-माधव का अतिशय उज्ज्वल धाम है। वहाँ प्रिया-प्रियतम की अचिन्त्त्य अमल मधुरतम लीला नित्य चलती रहती है। वहाँ नटनागर श्यामसुन्दर के लीला-विहार का महान् मधुर अगाध सागर अत्यन्त प्रशान्त होने पर भी नित्य उछलता रहता है और वे उसमें विविध मनोहारिणी अलौकिक भाव-तरंगों के रूप में क्रीडा करते रहते हैं। यह कल्पना नहीं सत्य है। इस परम उज्ज्वल सर्वश्रेष्ठ भाव-राज्य की सीमा में उसी का प्रवेश हो सकता है, जो घृणित भोगों से तथा कैवल्य मोक्ष से भी सदा विरक्त होकर केवल श्रीराधा-माधव के चरणों में ही अत्यन्त आसक्त हो गया है। यहाँ कोई आवेग नहीं, यह वस्तुस्थिति है और सच्चिदानन्दमयी मधुर लीला है। शेष भगवत्कृपा। |
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