श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
चोर-जार-शिखामणि
एक सज्जन पूछते हैं- ‘गोपाल सहस्रनाम’ में भगवान का एक नाम ‘चोर-जार-शिखामणि’ आया है। चोरी और जारी दोनों ही अत्यन्त नीच वृत्तियाँ हैं। भगवान के भक्त की तो बात ही दूर, जब साधरण विवेकवान् पुरुष भी ‘चोरी-जारी’ से बचे रहते हैं, तब फिर भगवान में चोरी-जारी का होना कैसे सम्भव है? और यदि उनमें चोरी-जारी नहीं है तो फिर उनको चोर-जारों का मुकुटमणि कहना क्या उन्हें गालियाँ देना नहीं है? और यदि वस्तुतः भगवान में चोरी-जारी का होना माना जा सकता है तो फिर वे भगवान कैसे हुए और उनके आदर्श से दुनिया के लोग डूबे बिना कैसे रहेंगे? मेरी समझ से बुरी नीयत किसी ने उनका यह नाम रख दिया है। इस सम्बन्ध में मैं आपका मत जानना चाहता हूँ। इसके उत्तर में अल्पमति के अनुसार कुछ लिखने का प्रयन्त किया जाता है। प्रश्रन–कर्ता महोदय को इससे कुछ संतोष हुआ तो अच्छी बात है। नहीं तो, इसी बहाने कुछ समय भगवतच्चर्चा में बीतेगा और इस सुअवसर की प्राप्ति के कारण प्रश्रन कर्ता महोदय हैं, इसीलिये मैं तो उनका कृतज्ञ हूँ ही। यह सर्वथा सत्य है कि ‘चोरी’ और ‘जारी’ बहुत ही नीच वृत्तियाँ हैं और ऐसी वृत्तियाँ जिन लोगों में हैं, वे कदापि विवेकवान् और सदाचारी नहीं हैं। भक्त में ऐसे दुगुर्ण रह ही नहीं सकते; और भगवान में तो इनकी कल्पना करना भी मूर्खता की सीमा है। इतना होने पर भी उनके ‘गोपाल सहस्रनाम’ में आया हुआ श्रीभगवान का यह ‘चोर-जार-शिखामणि’ नाम न तो भगवान को गाली देने के लिये है और न किसी ने बुरी नीयत से ही इस नाम को गढ़ लिया है। दृष्टि विशेष के अनुसार भगवान में इस नाम की पूर्ण सार्थकता है और इसका रहस्य समझ लेने पर फिर कोई शकां भी नहीं रहती। |
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