श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
श्रीकृष्ण पूर्ण ब्रह्म भगवान् हैंगीता के अनुसार यह सिद्ध है। कि ईश्वर अपनी इच्छा से अपनी प्रकृति में अधिष्ठित हो कर जब चाहें तभी लीला से अवतार धारण कर सकते हैं। संसार में भगवान के अनेक अवतार हो चुके हैं, अनेक रूपों में प्रकट हो कर मेरे उन लीला मय नाथ ने अनेक लीलाएँ की हैं- ‘बहूनि से व्यतीतानि जन्मानि’।
मीन-कूर्मादि अवतार सब भगवान के अंश हैं कोई कला है, काई आवेश है; परंतु श्रीकृष्ण सवयं भगवान हैं! वास्तव में भगवान श्रीकृष्ण सब प्रकार से पूर्ण हैं। उनमें सभी पूर्व और आगामी अवतारों का पूर्णं समावेश है। भगवान श्रीकृष्ण अनन्त ऐश्वर्य, अनन्त बल, अनन्त यश, अनन्त श्री, अनन्त ज्ञान और अनन्त वैराग्य की जीवन्त मूर्ति हैं। प्रारम्भ से लेकर लीलावसानपर्यन्त उनके सम्पूर्ण कार्य ही अलौकिक-चमत्कार पूर्ण हैं। उनमें सभी शक्तियाँ प्रकट हैं। बाबू बंकिम चन्द्र चटर्जी ने भगवान श्रीकृष्ण को अवतार माना है और लाला लाजपतराय आदि विद्वानों ने महान योगेश्वर। परंतु इन महानुभावों ने भगवान श्रीकृष्ण को जगत् के सामने भगवान की जगह पूर्ण मान के रूप में रखना चाहा है। मानव कितना भी पूर्ण क्यों न हो, वह है मानव ही; दूसरी ओर भगवान भगवान ही हैं, वे अचिन्त्य और अतर्क्य-शक्ति हैं। महामना बंकिम बाबू ने अपने भगवान श्रीकृष्ण को सर्व गुणान्वित, सर्व पाप संस्पर्श शून्य, आदर्श चरित्र पूर्ण मानव के रूप में विश्व के सामने उपस्थित करने के अभिप्राय से उनके अलोकिक ऐश्वर मानवातीय मानव-कल्पनातीत, शास्त्रातीत और नित्य-मधुर चरित्रों को उपन्यास बतलकार उड़ा देने का प्रयास किया है; उन्होंने भगवान के ऐश्वर्य भाव के कुछ अंश को-जो उनके मन में निर्दोष जँचा है- मानकर,शेष रस और ऐश्वर्य भाव को प्राय: छोड़ दिया है। इसका कारण यह कि भगवान की स्वरूप-सत्ता से अलौकिक शक्ति के नाते। यह बात खेद के साथ स्वीकार करने पड़ती है कि विद्याबुद्धि के अत्यधिक अभिमान ने भगवान को तर्क की कसौटी पर कसने में प्रवृत कराकर आज मनुष्य-हदय को श्रद्धाशून्य, शुष्क, रसहीन बनाना आरम्भ कर दिया है। |
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- ↑ श्रीमद्भ० 1। 3। 28
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