श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
श्रीराधा-प्रेम का स्वरूपप्रिय महोदय, सादर प्रणाम। आपने श्रीराधा के प्रेम का स्वरूप पूछा सो इसका उत्तर मैं प्रेमशून्य जन्तु क्या दूँ, यद्यपि मैं ‘राधा’ पर बोलने-लिखने का दुस्साहस सदा करता रहता हूँ। मुझे इसमें सुख मिलता है। इसी से ऐसा करता हूँ। राधा या राधा-प्रेम-तत्त्व का विवेचन मेरी शक्ति से परे की चीज है। पर सदा लिखता हूँ— इसलिये आपको भी दो-चार शब्द लिख ही देता हूँ। श्रीराधा का प्रेम अचिन्त्य और अनिर्वचनीय है। उसका वर्णन न श्रीराधा कर सकती हैं, न श्रीमाधव ही करने में समर्थ हैं। कहने के लिये इतना ही कहा जा सकता है कि वह प्रेम परम विशुद्ध तथा परम उज्ज्वल है। स्वर्ण को बार-बार अग्नि में जलाने पर जैसे उसमें मिली हुई दूसरी धातु या दूसरी चीजें जल जाती हैं और वह स्वर्ण जैसे अत्यन्त विशुद्ध और उज्ज्वल हो जाता है, वैसे ही राधा का प्रेम केवल विशुद्ध प्रेम है। पर वह स्वर्ण की भाँति जलाने पर विशुद्ध नहीं हुआ है, वह तो सहज ही, स्वरूपतः ही ऐसा है। सच्चिदानन्दमय में दूसरी धातु आती ही कहाँ से? यह तो साधको के लिये बतलाया गया है कि श्रीकृष्ण-प्रेम की साधना में परिपक्क व्रजरस के साधक के हृदय से दूसरे राग और दूसरे काम सर्वथा जल जाते हैं और उनका प्रेम एकान्त परिशुद्ध हो जाता है। श्रीराधा में यह दिव्य प्रेम सहज और परमोच्च शिखर पर आरूढ़ है। इसी राधाप्रेम का दूसरा नाम अधिरूढ़ महाभाव है। इसमें केवल ‘प्रियतम-सुख’ ही सब कुछ है। |
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