श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
प्यारे कन्हैयाप्यारे कन्हैया! तेरी ही पलकों के इशारे पर मुनिमन-मोहिनी महामाया नटी थिरक-थिरक कर नाच रही है। तेरे ही संकेत से महान् देव रुद्र अखण्ड ताण्डव-नृत्य करते हैं। तुझे ही रिझाने के लिये हाथ में वीणा लिये सदा नन्दी नारद मत वाला नाच नाच रहे हैं। तेरी ही प्रसन्नता के लिये व्यास-वाल्मीकि और शुक-सनकादि घूम-घूमकर और झूम-झूमकर तेरा गुण गान करते रहते हैं। तेरा रूप तो बड़ा ही अनोखा है! जब तेरी वह रूप माधुरी स्वयं तुझी को पागल बनाये डालती है तब ज्ञानी-महात्मा, संत-साधु और प्रेमी भक्तों के उस पर लोक-परलोक निछावर कर देने में तो आश्चर्य ही क्या है? आनन्द का तो तू अनन्त असीम सागर है, तेरे आनन्द के किसी एक क्षुद्र कण को पाकर ही बड़े-बड़े विद्वान् और तपस्वी लोग अपने जीवन को सार्थक समझते हैं। अहा! अनिर्वचनीय प्रेम का तो तू अचिन्त्य स्वरूप है। तुझ प्रेम-स्वरूप के एक छोटे-से परमाणु ने ही संसार के समस्त जननी-हृदयों में, समग्र शुद्ध प्रेमी-प्रेमिकाओं के अन्तर में, सम्पूर्ण मित्र-अन्तस्तलों में और विश्व के अखिल प्रिय पदार्थों में प्रविष्ट होकर जगत् को रसामय बना रखा है। ज्ञान का अनन्त स्त्रोत तो तेरे उन चरण कमलों के रजःकणों से प्रवाहित होता है, इसी से बड़े-बड़े संत-महात्मा तेरी चरण धूलि के लिये तरसते रहते हैं। किसमें सामर्थ्य है जो तुझ सर्वथा निर्गुण के अनन्त दिव्य गुणों की थाह पा ले? ऐसा कौन शक्तिसम्पन्न है, जो तुझ ज्ञानस्वरूप प्रकृति पर परमात्मा के अप्राकृत ज्ञान की शेष सीमा तक पहुँचे? किसमें ऐसी शक्ति है जो तुझ अरूप की विश्व-विमोहिनी नित्य रूप-छटा का सर्वथा साक्षात्कार करके उसका यथार्थ वर्णन कर सके; कौन ऐसा सच्चा प्रेमी है जो तुझ अपार-अलौकिक प्रेमार्णव में प्रवेश करके उसके अतल-तल में सदा के लिये डूबे बिना रह जाय? फिर बता, तेरा वर्णन-तेरे रूप, गुण, ज्ञान और प्रेम का विवेचन कौन करे और कैसे करे? प्यारे कृष्ण! बस, तू तू ही है! तेरे लिये जो कुछ कहा जाय, वही थोड़ा है। तेरे रूप, गुण, ज्ञान और प्रेम का दिव्य ध्यान-ज्ञान-जनित अनुभव भी तेरी कृपा बिना तुझ देश-काल-कल्पना तीत अकल कल्याण-निधि के वास्तविक स्वरूप के कल्पित चित्र तक भी पहुँचकर उसका सच्चा वर्णन नहीं कर सकता। फिर अनुभव शून्य कोरी कल्पनाओं का तो मूल्य ही क्या है? वस्तुतः तेरे स्वरूप और गुणों का मनुष्य कृत महान्-से-महान् वर्णन भी यथार्थ तत्त्व को बतलाने वाला न होने के कारण, महामहिमान्वित चक्रवर्ती सम्राट् को तुच्छ ताल्लुकेदार बतलाने के सदृश एक प्रकार से तेरा अपमान ही है। परंतु तू दयामय है। तेरे प्रेमी कहा करते हैं कि तू, प्यारे दुलारे नन्हे मुन्नों की हरकतों पर कभी नाराज न होकर स्न्नेह वंश सदा प्यार करने वाले लोगों के प्रति प्रसन्न ही होता है। तू उन पर कभी रुष्ट होता ही नहीं। बस, इसी तेरे विरद के भरोसे पर मैं भी मनमानी कर रहा हूँ! पर भूला, मेरी मनमानी? नचाने वाला सूत्रधार तो तू है, मैं मनमानी करने वाला पामर कौन? तू जो उचित समझे वही कर! तेरी लीला में आनाकानी कौन कर सकता है? पर मेरे प्यारे साँवलिया! तुझ से एक प्रार्थना अवश्य है। कभी-कभी अपनी मोहिनी मुरली का मीठा सुर सुना दिया कर और जँचे तो कभी अपनी भुवन-विमोहनी सौन्दर्य-सुधा की दो-एक बूँद पिलाने की दया भी..............................। |
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