श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
‘वह दिन कब आयेगा?’प्यारे नटवर! तुम्हीं बताओं कि मेरा चिरवाञ्छित वह सुदिन कब आयेगा? दुलारे चितचोर! तुम्हीं कहो कि वह शुभ घड़ी, वह सुहावना सरस समय, वह परम प्रिय अनमोल पल, वह भाग्योदय का मुहूर्त कब होगा, जब ये चिरतृषित नेत्र उस अनूप रूपमाधुरी का पान करके अन्य किसी भी छवि को न देख सकेंगे? अहा! वह समय बड़ा ही अनमोल होगा, जब प्रियतम का करोड़ों चन्द्रमाओं का लजाने वाला मोहन मुखड़ा घनश्याम मेघ से निकल पड़ेगा और अपनी विश्वमोहिनी चटकीली चाँदनी से विश्व को चमका देगा। उस समय कोयल पच्चम स्वर में ‘कुहू-कुहू’ की ध्वनि से अपने प्राणाधार को पुकार उठेगी। पपीहा ‘पी कहाँ’ की रट से प्रेमिका को अधीर कर देगा। मोर के शोर से सहसा हृदय में चोट लग जायेगी। योगी चंचल चितवन से उस नवीन चन्द्र की ओर त्राटक लग लेंगे और प्रकृति देवी उस अलौकिक सौन्दर्य की झाँकी पर थिरक-थिरक नाचने लगेगी। भक्त-मन-चोर! सच कहना यह चोरी की कला तुमने किससे और कब सीखी? सुनते हैं, तुम व्रज-ललनाओं से बड़े इठलाते हो, उनका माखन चुरा लेते हो और कोई-कोई तो यहाँ तक कहते हैं कि उनका सर्वस्व लूट लेते हो! यदि बात सत्य है तो क्या मैं भी तुम्हारी इस लूट-पाट का एक नवीन पात्र बन सकता हूँ कि ऐ अनोखे चोर! मेरा भी ‘चित्त’ चुरा लो? क्या मेरी ओर से तुम्हारा नाम ‘मन-चोर’ न पड़े? गोपीकुमार! वह समय कब आयेगा, जब मैं तुम्हें कदम्ब पर मन्द-मन्द हास्य करते हुए बाँसुरी की मधुर तान छेड़ते सुनूँगा, जिसे सुनकर व्रजललनाएँ अपने घर-द्वार, पति-पुत्र, कुटुम्ब-परिवार का परित्याग करके तुम्हारी ओर बलात् खिंच जाती थीं। लीलामय! सुना है, तुम्हारी मुरली में विचित्र आकर्षण है! उसके स्वरों में अपार अनोखापन है। बाँसुरी तो मैंने बहुत सुनी है, पर तुम्हारी बाँसुरी तो गजब कर देती है! देवता और मनुष्यों की कौन कहे, पशु-पक्षी तक उस ध्वनि को सुनकर स्तब्ध हो खाना-पीना भूल जाते हैं! सुना है, अब भी तुम वृन्दावन की कुञ्जों में वही राग-तान छेड़ेते हो और भाग्यवान् भक्तों को अब भी तुम्हारी वंशी की ध्वनि स्पष्टतया सुनायी देती है। यदि तुम्हारी कृपादृष्टि हो गयी तो तुम उन्हें अपने मोहन मुखड़े का दर्शन दे कृतकृत्य कर देते हो। पतितपावन! क्या मुझे प्रेम के प्याले की एक बूँद पान करने का भी अवसर न मिलेगा? क्या तुम्हारी यही इच्छा है कि तुम्हारा एक प्रेम-पथ-पथिक तुम्हारे प्रेम-पथ से गुमराह हो जाय और कँटीले जंगलों में भटकता रहे?यह तो बिलकुल सच है कि मेरे अंदर व्रजललनाओं का-सा प्रेम नहीं, केवट के-से-प्रेम-लपेटे अटपटे बैन नहीं, गजका-सा आर्त्तनाद नहीं प्रह्लाद की-सी अनन्यता, निष्कामता नहीं, ध्रुव का-सा विश्वास नहीं, द्रौपदी की-सी पुकार नहीं; सूरदास की-सी लगन नहीं और गोस्वामी तुलसीदास का-सा भरोसा नहीं; फिर भी ठहरे पतित पावन और मैं ठहरा तुम्हारा एक पतित। यदि तुम्हारा दावा है कि मैं पतित-से-पतित का उद्धार करता हूँ तो मैं इसी नाते तुमसे कहता हूँ और करबद्ध प्रार्थना करता हूँ कि वह दिन कब आयेगा, जब तुम इस पतित का उद्धार करके अपने पतित पावन नाम को सार्थक करोगे? |
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