श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
चतुर्दश अध्याय
मम योनिर्महद्बह्य तस्मिन्गर्भ दधाम्यहम् ।
उत्तर- समस्त जगत् की कारण रूपा जो मूल प्रकृति है, जिसे ‘अव्यक्त’ और ‘प्रधान’ भी कहते हैं, उस प्रकृति का वाचक ‘महत्’ विशेषण के सहित ‘ब्रह्म’ पद है। इसकी व्याख्या नवें अध्याय के सातवें श्लोक पर की जा चुकी है। उसे ‘मम’ (मेरी) कहकर भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि मेरे साथ इसका अनादि सम्बन्ध है। ‘योनिः’ उपादान-कारण और गर्भाधान के आधार को कहते हैं। यहाँ उसे ‘योनि’ नाम देकर भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि समस्त प्राणियों के विभिन्न शरीरों का यही उपादान-कारण है और यही गर्भाधान का आधार है। प्रश्न- यहाँ ‘गर्भम्’ पद किसका वाचक है और उसको उस महद्ब्रह्म रूप प्रकृति में स्थापन करना क्या है? उत्तर- सातवें अध्याय में जिसे ‘परा प्रकृति’ कहा है, उसी चेतन समूह का वाचक यहाँ ‘गर्भम्’ पद है। और महाप्रलय के समय अपने-अपने संस्कारों के सहित परमेश्वर में स्थित जीवसमुदाय को जो महासर्ग के आदि में प्रकृति के साथ विशेष सम्बन्ध कर देना है, वही उस चेतनसमुदाय का गर्भ को प्रकृति रूप योनि में स्थापन करना है। प्रश्न- ‘ततः’ पद किसका वाचक है और ‘सर्वभूतानाम्’ पद किनका वाचक है तथा उनकी उत्पत्ति क्या है? उत्तर- ‘ततः’ पद यहाँ भगवान् द्वारा किये जाने वाले उस जड़ और चेतन के संयोग का और ‘सर्वभूतानाम्’ पद अपने-अपने कर्म-संस्कारों के अनुसार देव, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि विभिन्न शरीरों में उत्पन्न होने वाले प्राणियों का वाचक है। उपर्युक्त जड़-चेतन के संयोग से जो भिन्न-भिन्न आकृतियों में सब प्राणियों का सूक्ष्मरूप से प्रकट होना है, वही उनकी उत्पत्ति है। महासर्ग के आदि में उपर्युक्त संयोग से पहले-पहल हिरण्यगर्भ की और तदनन्तर अन्यान्यभूतों की उत्पत्ति होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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