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‘हैं! गोवत्स किधर गये?- एक चंचल शिशु ने सबका ध्यान आकर्षित किया। फिर तो हाथ के पास ग्रास हाथ में ही रह गये। सबकी दृष्टि उस ओर केन्द्रित हो गयी, जिधर अभी-अभी कुछ क्षण पूर्व अदूरवर्ती तृण श्यामल भू-भाग पर राशि-राशि गोवत्स स्वच्छन्द विचरण कर रहे थे। पर इस समय वहाँ एक भी न था; सब के सब न जाने कहाँ चले गये! गोपशिशुओं को इस बात का सहसा अनुमान ही न हो सका कि जिस समय पुलिन-भोजन का उद्दाम कौतुक चल रहा था, वे बालक आनन्द-पयखिनी में डूबते-उतराते सुध-बुध खोये-से हो चुके थे, उनकी अन्य स्मृतियाँ विलुप्त प्राय हो चुकी थीं, उनके मन-प्राणों में केवल अपने प्राण सखा श्रीकृष्णचन्द्र का, उनके लीला विहार का अस्तित्व मात्र ही बच रहा था उसी समय गोवत्सराशि भी क्रमशः आगे बढ़ती जा रही थी, हरित तृण संकुल भूमिका एक से एक सुन्दर अंश सामने दीखता था और गोवत्स उससे प्रलोभित हुए उस दिशा में ही अग्रसर हो रहे थे; तथा इस प्रकार धीरे-धीरे ही वे सुदूर वन में जा पहुँचे थे, इतनी दूर कि अपने पालक वर्ग की दृष्टि से सर्वथा ओझल हो चुके थे-
- भारतैवं वत्सपेषु भुञ्जानेष्वच्युतात्मसु।
- वत्सास्त्वन्तर्वने दूरं विविशुस्तृणलोभिताः।।[1]
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