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‘महाबली वकासुर को वीरण तृण की भाँति चीरकर फेंक दिया गया’- चरों के द्वारा यह समाचार मधुुपुर-सम्राट कंस को भी मिला। मानो किसी ने एक साथ सहस्र शूल चुभोकर हृदय को छिन्न-भिन्न कर डाला-ऐसी मार्मिक वेदना से कंस के प्राण कराह उठे। वत्स निधन की बात सुनकर तो वह चेतना शून्य हो गया था, मूर्च्छा ने कुछ काल के लिये उसकी वेदना हर ली थी। किंतु इस बार प्राणों में टीस चलते रहने पर भी वह सजग बना रहा। रह-रहकर सिंहासन से उठ खड़ा होता एवं उसके नेत्र नीलाभ गगन तल की ओर लग जाते। कहीं की भी नीलिमा उसके लिये भय की वस्तु बन गयी थी; उसने सुन जो रखा था- ‘वह नन्दपुत्र श्यामलवर्ण है।’ और इसीलिये ऐसे किसी प्रसंग पर उसकी दृष्टि ऊपर की ओर केन्द्रित हो जाती-‘क्या पता, वह उस नीले आकाश में ही समाया हो, मेरे प्राण लेने के उद्देश्य से इस नीलमणि की ओट में ही कहीं छिपा हो।’ तथा उस समय उसकी भावना भयवश ही मूर्त भी होने लगती, उसे प्रतीत होने लग जाता एक नहीं, अनेकों श्यामशिशुओं से आकाश परिव्याप्त है। फिर तो उसकी आँखें जहाँ जातीं, वहीं उसे नन्दपुत्र के दर्शन होते तथा वह अतिशय उद्विग्न होकर सोचने लगता-‘क्या करूँ, किधर जाऊँ, कैसे इस श्यामशिशु को अन्त हो। इस समय भी वकविपाटन की घटना सुनकर-एक ओर तो वह दुःखभार से पिसने लगा और उधर उसे दीखने लगे नन्दनन्दन-सर्वत्र सब ओर से। मृत्यु के भय से उसके प्राण चंचल हो उठे।
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