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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
6. कंस के भेजे हुए श्रीधर नामक ब्राह्मण का व्रज में आगमन और व्रजरानी के द्वारा उसका सत्कार
सुरराज जिसके भय से वर्षा की धारा दान करते हैं, अगणित तारिका राशि चमकती रहती हैं; जिससे भयभीत हो कर असंख्य तरु-वल्लरियाँ, वनस्पतियाँ पुष्पित होती हैं, फल-भार वहन करती हुई जगत् को मधुर फल वितरित करती हैं; जिसके डर से सरिताएँ प्रवाहित होती हैं और सागर अपनी मर्यादा का त्याग नहीं करता; जिससे भयभीत अग्नि प्रज्वलित होती है और भूधरों को वक्षःस्थल पर धारण करने वाली पृथ्वी जल में निमग्न नहीं होती; जिसका शासन मानकर आकाश जीवित प्राणियों को श्वास-प्रश्वास के लिये अवकाश देता है और त्रिदेव सृजन-पालन-संहार में तत्पर रहते हैं, उस ‘काल’ के भी स्रष्टा एवं स्वामी व्रजेन्द्र नन्दन को दृष्टि दोष के भय से बचाने के लिये व्यग्रता के साथ उद्योग किया जाय - यह कितनी अद्भुत, आश्चर्यमयी घटना है। अनन्त विश्व जिनके उदर में अवस्थित हो, वे व्रजेन्द्र नन्दन क्षुद्र दृष्टि दोष से रक्षा पाने के लिये सूप के कोने में पड़े हों, इससे अधिक आश्चर्य और क्या होगा-
इसीलिये श्रीधर भी व्रजेन्द्र नन्दन को पहचान नहीं पाता। ऐसी अद्भुत विचित्र पहेली को समझने की शक्ति भी श्रीधर की मलिन बुद्धि में नहीं है। वह यह समझने आया भी नहीं है। वह तो आया है अपने यजमान क्रूर कंस का कण्टक दूर करने! पर उसकी इच्छा न रहने पर भी व्रजेन्द्र नन्दन ने उसे कुछ समझा देना चाहा। उनकी वह निर्मल चाह ही श्रीधर के मलिन अन्तःकरण में प्रतिबिम्बित हुई, पर हुई पात्र के अनुरूप ही। वह सोचने लगता है - व्रजेन्द्र गेहिनी के लौट आने के पूर्व ही इस बालक को समाप्त कर दूँ। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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