श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
38. रात्रि में समस्त व्रजवासियों के निद्रामग्न हो जाने पर अमर शिल्पी विश्वकर्मा का तीन कोटि शिल्प विशेषज्ञों तथा अगणित यक्ष-समूहों के साथ वृन्दावन में पदार्पण तथा रात्रि शेष होने से पूर्व वहाँ की चिन्मय भूमि पर नवीन व्रजेन्द्र-नगरी, वृषभानुपुर तथा रासस्थली आदि का आविर्भाव; पुरी की अप्रतिम शोभा तथा दिव्यता का वर्णन
शुभ्रज्योत्स्ना का परिधान धारण किये निशासुन्दरी ने वृन्दावन-भूमि में पदार्पण किया। आते ही उसने अपने अन्तस्तल की नीरवता बृहद्वन से आये हुए समस्त व्रजवासियों पर बिखेर दी। क्रमशः सभी गोप अलसांग होकर निद्रा की सुखमयी गोद में ढुलक पड़े। प्रथम प्रहर में कभी तन्द्रित न होने वाले व्रजेश्वर को भी आज निद्रा आ गयी। व्रजराजमहिषी भी सो गयीं। मातृवक्षःस्थल को अलंकृत करते हुए, निद्रा के अधीश्वर श्रीकृष्णचन्द्र भी सुनिद्रित हो गये। सुरम्य शय्या पर पौढ़ी वृद्धा व्रजगोपिकाओं को भी नींद आ गयी। पतिव्रता, पतिपरायणा, पतिसुखसुखिनी युवती गोप-सुन्दरियाँ भी सेवासुख की भावना में ही डूबी रह कर शयनपर्यंक पर निद्रा में निमग्न हो गयीं। शिशु को क्रोड में धारण कर माताएँ निद्रित हो गयीं। सखी को भुजपाश में बाँधे गोपकुमारिकाओं के नेत्र भी निद्रा से निमीलित हो गये। कोई शिबिर के अन्तर्देश में तो कोई बाहर उन्मुक्त आकाश के वितान में, कोई शकट पर तो कोई रथ पर-जिस गोपसुन्दरी की जहाँ इच्छा हुई, वहीं पौढ़कर वह निद्रासुख का अनुभव करने लग गयी। कानन में सर्वत्र राशि-राशि प्रस्फुटित कुसुमों के सौरभ से सुरभित हुई, शीतल मन्द बयार, नन्दनकानन की शोभा को भी तुच्छ, अकिंचित्कर कर देने वाली आज के राकाचन्द्र की मनोहर चन्द्रिका गोपों के, गोपसुन्दरियों के श्रीअंगों का स्पर्श कर उनके निद्रासुख को और भी गभीर बनाने लगी। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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