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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
34. उपनन्द जी के प्रस्ताव पर, आये दिन व्रज में होन वाले उपद्रवों के भय से सम्पूर्ण व्रजवासियों की गोकुल छोड़कर यमुना जी के उस पार वृन्दावन जाने की तैयारी
स्वर्णथाल में दीप सजाये व्रजेश्वरी तुलसीकानन की ओर जा रही हैं। उनके उत्तरीय (ओढ़नी) को दक्षिण कर पल्लव में धारण किये श्रीकृष्णचन्द्र पीछे-पीछे चल रहे हैं, किंतु वे देख रहे हैं अभी कुछ क्षण पहले वन से लौटी हुई गायों की ओर, हुमक-हुमक कर दुग्धपान करने वाले गोवत्सों की ओर। गायों के पाश्वदेश में वयस्क आभीर गो रक्षक खड़े हैं, उनके हाथों में लगुड़ सुशोभित हैं। वे इस प्रतीक्षा में हैं कि गोवत्स जब दुग्धपान से तृप्त हो लें, तब उन्हें यथास्थान पहुँचा दें। यही दृश्य आज श्रीकृष्णचन्द्र के हृदय में सहसा एक अभिनव भाव का उन्मेष कर देता है। वे सोचने लगते हैं- कदाचित मैं भी गोचारण के लिये बन जाता, फिर संध्या होती और उस समय वन से लौटकर ऐसे ही गो संरक्षण करता। जो रसस्वरूप हैं, जिन रस-सागर की एक बूँद रस से अगणित विश्व-प्रपंच में रस का संचार होता रहता है, जिनकी रस कणिका पाकर विश्व के प्राणी आनन्द का अनुभव करते हैं-
वे आनन्दकंद परब्रह्म पुरुषोत्तम स्वयं भगवान श्रीकृष्णचन्द्र आये ही हैं व्रजपुर में रसपान जो करने! व्रजदम्पति के क्रोड़ में, नन्दप्रांगड़ में, व्रजपुर की वीथियों में, गोपसुन्दरियों के गृहों में, गोकुल के उपवन में रस की सरिता बहाकर वे बाल्यरस का आस्वादन तो कर चुके। अब पौगण्ड-रसपान की वासना उनमें उदय हुई है। बस, यह इच्छामात्र ही अपेक्षित थी, अन्यथा उनकी अचिन्त्य लीला महाशक्ति तो समस्त संघटन प्रस्तुत कर बहुत देर से प्रतीक्षा कर रही हैं। श्रीकृष्णचन्द्र की अनादि अनन्त लीला प्रपंच में युग-युगों से प्रकट भी तो इसी क्रम से होती है- बाल्यलीला, गोकुल में, पौगण्ड- कैशोर वृन्दारण्य में। इसी का उपक्रम होने चला। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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