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स्वर्गीय देवों की श्रवणशक्ति लुप्त हो गयी थी। नागलोक के प्राणी भी बधिरप्राय हो गये थे, तथा दिङ्नाग प्रकम्पित हो रहे थे। क्षणभर के लिये समस्त ब्रह्माण्ड में उसके अतिरिक्त अन्य कोई शब्द अवशिष्ट नहीं रहा था। ऐसी एक साथ शतसहस्र प्रलयंकर वज्रपातों की सी वह प्रचण्ड ध्वनि अर्जुनवृक्षों के धराशायी होने पर हुई थी। किंतु अघटघटनापटीयसी योगमाया ने उस ध्वनि को व्रजपुर के धरातल पर तो तब तक प्रकट नहीं होने दिया, जब तक कुबेरतनय नलकूबर-मणिग्रीव श्रीकृष्णचन्द्र का स्तवन कर चले नहीं गये। स्तुति के समय कितने क्षण, कितने दिन, कितने मास, कितने वर्ष, कितने युग बीते थे, यह कल्पना प्राकृत मन में समा नहीं सकती; पर जितना भी समय लगा हो, उतने काल तक तो व्रजपुर निश्चितरूप से नीरव था। अवश्य ही गृहकार्य में संलग्न गोपसुन्दरियों की एवं व्रजराजमहिषी की कंकण-झंकृति, नुपुररव रह-रहकर उस नीरवता को भंग कर देते थे। पक्षियों का कलख, भ्रमर का गुंजन तो इनमें स्थायी स्वर की भाँति समा गया था। पर ज्यों ही कुबेरपुत्र दृष्टिपथ से ओझल हुए कि बस, समस्त व्रजपुर भी उस प्रचण्ड ध्वनि से काँप उठा। गोवर्धन परिसर, परिसर की समलंकृत यज्ञ भूमि ऐसी हिल गयी मानो भूकम्प हुआ हो। गोपों के, गोपरामाओं के अंग ऐसे नाचने लगे, मानो सहसा सबके अंगों में कम्पवायु का प्रकोप हो गया हो-
- तरु टूटत चरके, झरमर झरकके, फिरि भर-भर के भूमि परे।
- धर थल-थल धर के लोग नगर के, थरथर थरके, चौंकि परे।।
- तहँ उर सब नरके, इमि खरखर के, जनु थनतर के झरप तहाँ।
- जो गिरत न सरके, ग्रह सब बरके, को कहि हरि के गुननि महाँ।।
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