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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
31. कुबेर-पुत्रों को स्वरूप प्राप्ति तथा उनके द्वारा श्रीकृष्णचन्द्र का स्तवन तथा प्रार्थना; श्रीकृष्ण की उनके प्रति करुणापूर्ण आश्वासन वाणी
नतजानु हुए, अंजलि बाँधे वे धनदपुत्र नलकूबर मणिग्रीव श्रीकृष्णचन्द्र के चरणप्रान्त में अवस्थित हैं, उन्हें प्रणाम कर रहे हैं। व्रजचन्द्र की चरण-नखचन्द्रिका ने उनमें दिव्य ज्ञान का उन्मेष कर दिया है, नवनीरद-श्यामल श्रीअंगों ने रस की सरिता बहा दी है। वे कभी तो उस ज्ञान के आलोक में व्रजेन्द्रनन्दन के अचिन्त्य अनन्त ऐश्वर्य को प्रत्यक्ष अनुभव कर चमत्कृत होने लगते हैं और कभी रसपान से उन्मत्त होकर अपनी सुधबुध भूल जाते हैं। श्रीकृष्णचन्द्र चकित चंचल भीति-विजडित नेत्रों से उनकी ओर देख रहे हैं तथा उनके आश्चर्य विस्फारित पर रससिक्त नेत्र निष्पन्द होकर श्रीकृष्णचन्द्र की ओर लग रहे हैं। यह जानना सम्भव नहीं कि वास्तव में कितने काल तक उनकी यह दशा रही है। अवश्य ही बाह्य दृष्टि से देखने पर तो कुछ ही क्षण बीते हैं और अब वे अखिल-लोकनाथ श्रीकृष्णचन्द्र की महिमा गाने जा रहे हैं-
किंतु हर्षातिरेक वश कण्ठ रुद्ध हो जाता है, वे कुछ भी बोल नहीं पाते। नेत्रों से अनवरत अश्रु की वर्षा हो रही है; कपोल, वक्षःस्थल आर्द्र हो चुके हैं। वे अपने मुकुटमण्डित सिर को झुकाकर दूर से तो वन्दना कर चुके, पर उसे श्रीकृष्णचन्द्र के चरणपल्लव से स्पर्श करा देने के लिये वे अत्यन्त व्याकुल हैं। किंतु शरीर विवश हो रहा है, जड-सा बनकर चेष्टाशून्य हो गया है। कुछ क्षणों के पश्चात् किसी अचिन्त्य शक्ति की प्रेरणा से उनके हाथों में स्पन्दन होता है और वे अनुभव करते हैं-सिर से तो नहीं, पर हाथ बढ़ाकर कदातिच् चरणसरोज के स्पर्श का सौभाग्य सम्भव हो जाय। इस लालसा से ही वे अपने हाथ श्रीचरणों के समीप ले जाते है।। पर बाल्यलीलाविहारी का बाल्यावेश, बाल्यभंगिमा कुबेरपुत्रों को यह सौभाग्य सहज में देना जो नहीं चाहती। ऊखल से बँधे होने के कारण, धराशायी अर्जुन वृक्षों के मध्यदेश में ऊखल के अटके रहने से वे भाग तो नहीं सकते, पर अगों से अमानव तेज की किरणें बिखेरते, प्रज्वलित अग्नि के समान चमचम करते हुए चार हाथों को अपने लघु-लघु चरणों की ओर आते देखकर वे स्थिर कैसे रह सकते हैं। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीमद्भा. 10।10।28)
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