विषय सूची
श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
5. पूतना-मोक्ष तथा पूतना के अतीत जन्म की कथा
आश्लेषा नक्षत्र है, विष घटिका की वेला आ गयी, मृत्यु योग का भी संयोग हो गया। इतने में ही असुर बल-वर्द्धिनी निशा भी आ पहुँची। इसी से निशाचरी पूतना का यह अनुभव हुआ मानो उसकी भुजाओं में शत-सहस्र गिरि श्रृंगों को तोड़ कर, एक साथ ले कर उड़ जाने की शक्ति संचारित हो गयी हो। वह इस आवेश में ही उड़ चली, उड़ कर व्रजपुर के तरु-वल्लरी-सुशोभित उपवन में जा पहुँची। राक्षसी ने एक बार विस्फारित नेत्रों से व्रजेन्द्र की पुरी को, अगणित मणिदीपों के उज्ज्वल निर्मल प्रकाश में चम-चम करते हुए धवल आवास गृहों को देखा। उसे अतिशय आश्चर्य है कि आज सात दिन तक यह नन्द व्रज उसकी कराल दृष्टि से बचा कैसे रह गया। अब तक वह नगर-ग्राम-गोष्ठों में घूमती हुई अपने विषमय स्तन का पान करा कर सहस्रों शिशुओं का प्राण अपहरण कर चुकी है, यह प्राणहरण का खेल खेलती हुई प्रतिदिन ही अनेकों बार इस उपवन की सीमा तक आ पहुँची है; पर एक बार भी नन्दव्रज की ओर उसका ध्यान क्यों नहीं आकर्षित हुआ? इतना ही नहीं, वह सुन भी चुकी है कि जिस क्षण आकाशचारिणी उन अष्ट भुजा देवी ने कंस को सावधान किया, उससे कुछ ही पूर्व, उसी रात्रि में व्रजराज नन्द को एक अतिशय सुन्दर पुत्र हुआ है; और तो क्या, इस पुत्र का प्राण हरण करने के लिये कंस ने विशेष रूप से आज्ञा भी दी थी। पर इन बातों को निरन्तर सात दिन तक वह भूली क्यों रही? एक बार भी तो ये बातें उसके स्मृति पथ में नहीं आयीं। ऐसा हुआ ही क्यों? इन बातों की मीमांसा करने में राक्षसी ने बड़ा प्रयास किया; पर सभी निष्फल, सभी व्यर्थ! वह कारण ढूँढ़ न सकी, ढूँढ़ सकती भी नहीं; क्योंकि शिशु रूप धारी गोलोक विहारी नराकृति परब्रह्म पुरुषोत्तम भगवान् की अचिन्त्य लीला महाशक्ति के प्रभाव से ही ये बातें घटित हुई हैं। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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