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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
4. व्रजेश की मथुरा-यात्रा
अभी रात्रि दो घड़ी अवशिष्ठ हैं, पर अभी से व्रजेन्द्र के मथुरा गमन की तैयारी प्रारमभ हो गयी है। व्रजेन्द्र की भी अनिच्छा है, व्रजरानी भी नहीं चाहतीं; फिर भी जाना आवश्यक है, राक्षस कंस को संतुष्ट जो करना है। अतः कंस के लिये उपहार-सम्भार, रत्न राशि शकटों (छकड़ों) में भरी जा रही है; भर जाने पर शकटों को खींच-खींच कर गोप राजपथ पर एक पंक्ति में सजा रहे हैं। व्रजेश्वर अतिशय बलिष्ठ गोपों को बुलाते हैं। अपने हाथों से सब की पीठ ठोक कर उनके हाथों में शस्त्र देते हैं तथा समय एवं स्थान का निर्देष करते हैं कि अमुक गोप इस समय से इस समय तक अमुक स्थान पर सावधान हो कर पहरा देता रहे। बड़ी तत्परता से प्रत्येक गोप को अलग-अलग कुछ गुप्त परामर्श देते हैं। इतनी तत्परता इसीलिये है कि उनकी अनुपस्थिति में कंस प्रेरित कोई विपत्ति उनके पुत्र पर न आ जाय। इस आशंका से ही व्रजेश्वर को समस्त गोकुल की पूर्ण रक्षा की पूरी व्यवस्था करके तब कंस का वार्षिक कर चुकाने मथुरा जाना है-
एक पहर दिन चढ़ने तक कहीं सारी तैयारी हो सकी। पर जाने के पूर्व व्रजराज कुछ चिन्तित हो गये - ‘अत्यन्त नृशंस कंस के समक्ष जा रहा हूँ; पता नहीं क्या परिणाम होगा। मैं अपने इस शिशु का मुख देखने लौट सकूँगा कि नहीं .........! जो हो, जी भर कर इसे देख तो हूँ, यह पाथेय तो साथ ले लूँ।’ |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीमद्भा. 10। 5। 19)
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